वर्मा जी
वर्मा जी
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आज वर्मा जी बहुत खुश हैं और हो भी क्यों ना ! उन्हें देश के ख्यति प्राप्त सज्जनों ने मातृ-दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में वक्ता के रूप में आमंत्रित किया है।
प्रत्येक वर्ष इस दिन धनाढ्य लोगों की मण्डली में से किसी एक को वक्ता बनाकर प्रदर्शित किया जाता है। इस वर्ष व्यापारिक लाभ को देखकर मण्डली ने वर्मा जी को ही वक्ता बनाना उचित समझा। वर्मा जी प्रदेश के जाने माने उद्योगपतियों में से एक हैं। उनके जीवन में संघर्षमय जीवन से हर्षमय जीवन के तत्व समाहित हैं। वर्मा जी के पिता का देहांत उनके जन्म के १ वर्ष पश्चात ही हो गया था। उनके पिता की मौत की वजह उनकी माँ को मानकर उनके पितामह ने उन्हें और उनकी माता को घर से निकाल दिया था।
माँ का एक सहारा अब उनका पीहर ही रह गया था परन्तु अभागी के भाग्य से वह भी नहीं मिल पाया और वो अकेले ही अपने जीवन की नैया को पार लगाने हेतु कठोर परिश्रम करने लगी। इस भयावह जग में जिधर उसकी नज़र पड़ती उधर उसे मानवीय रूप में हैवानों के दर्शन सहजता से हो जाते लेकिन उसने सभी दुःखों को इस तरह सहा मानों दुःखरूपी आत्मा उसके अन्त:करण में शामिल हो और अपने बेटे को शहर का शीर्ष उद्योगपति बनाया पर लगता है अब उसके जीवन का असल संघर्ष शुरू हुआ था।
उसके बेटे ने भॊग-विलास को अत्यधिक महत्व दिया और अपनी माँ से कुछ इस तरह अलग हो गया मानों वो उन्हें कभी मिला ही ना हो। दुनिया के सितम जिसने हँसकर सहे वो ये सितम बर्दाश्त ना कर सकी और उसने सदैव के लिए शान्ति को गले लगा लिया। वर्मा जी इस भॊतिकि युग में इतने व्यस्त थे कि उन्हें अपनी माँ के गुज़रने का रंच-मात्र भी अफ़सोस नहीं था।
सहसा वर्मा जी अपनी ख्यालों की दुनिया से बहार आये और उनकी पत्नी ने उन्हें कार्यक्रम में चलने के लिए कहा। उन्होंने अपने आप को इस योग्य नहीं समझा और कार्यक्रम में जाने से किनारा कर लिया। वह मन ही मन अपनी माँ से कहते हैं:-
" निष्ठुर है तेरा सपूत जो तुझे समझ ना पाया,
अपने ही हाथों से जिसने अपनी तकदीर को है मिटाया ।
तेरी छाया के लिए हर पल में तरस रहा हूँ,
अपने कुकर्मों के चलते पल-पल में मर रहा हूँ । "