दिसंबर
दिसंबर
दिसंबर महीने की गुनगुनी धूप जब मेरी बालकनी में पसरती , तो अपनी दोनों बाँहों में उसे घेर गर्म शाॅल में छिपा लेना मेरा मनपसंद शगल ! लो अब ये कोई उम्र है हमारी ऐसी बचकाना हरकतें करने की लेकिन दिल का क्या किया जाए दिल तो बच्चा है जी ! कोई चाँद की चाहत तो इसने नहीं की, चाँद से बहुत नीचे आ धूप के कुछ टुकड़े की तमन्ना कोई बेजा तो नहीं ! बालकनी में धूप का अक्स ज्यों - ज्यों धुँधलाता जाता है , धुँधलाहट के पीछे दीखते ब्लैक एन्ड व्हाइट फोटो की निगेटिव्स से झलकते अक्सों को पकड़ने की मेरी जिद जोर पकड़ने लगती है और मन गुनगुनाने लगता है भूले - बिसरे गीतों को।
दिसंबर की उतरती धूप अगल - बगल की परछाईंयों को पकड़ आड़े - तिरछे झूलने लगती है, समय की डोरी मेरे हाथों से जैसे छूट रही हो ! ओह ! दिसंबर के दिन कितने छोटे, इत्ते - इत्ते से क्यों होते हैं ? सूरज बिचारा पूरे आसमान की फेरी लगा भी नहीं पाता कि सागर बाँहें पसारे उसे बुलाने ही लगता है ! दिसंबर ये दिन अलग - अलग जगहों पर अपने अलग - अलग ही रंग दिखाती है। मुंबई का अरब सागर जलता भी तो रहता है सूरज की तीखी रोशनी से रात - दिन और भाप की शक्ल में धुआँ उगलता रहता है, उसी धुएँ की मोटी चादर लिपटी रहती है मुंबई के चारों ओर ! अब भला दिसंबर या जनवरी, अपने बिहार, यू पी, दिल्ली वाली कुनकुनी, गुनगुनी धूप यहाँ कहाँ ?
बोरसी और दिसंबर के दिन खासकर रातों की तो दोस्ती दाँत कटी रोटी जैसी, एकदम गुईंया वाली। आह ! क्या रातें होती थीं बोरसी की धीमी - धीमी गरमाहट देह में उतरती जाती और पलकें नींद से बोझिल होती जातीं नींद के हिंडोले पर सवार कितने - कितने बेलगाम सपने ! भाई - बहनों में से कोई एक किसी के बगैर सुर - ताल के आरोह - अवरोह में उठते गिरते सिर को देख खिलखिला उठता और फिर हँसी के झरने ही फूट पड़ते कई - कई गलों से। बोरसी की धीमी पड़ती आँच में पापा की रामायण, महाभारत की कहानियाँ आँखों में जीवंत हो उतरती जाती। आज के दिसंबर की रातें बोरसी की उस मीठी आँच से ही खाली नहीं हैं, टी . वी ., कम्प्यूटर, मोबाइल ने उस मीठी आँच को ही नहीं बुझाया, बोरसी की आग से रिश्तों में जो गरमाहट आती थी, बोरसी के इर्द गिर्द बैठ अपनी समृद्ध परम्परा के पात्रों से हमारी जो घनिष्ठता बनती, लोकगीत, लोककथाओं से आत्मीयता बढ़ाने में बोरसी की अहम् भूमिका को नकारते हुए आज की पीढ़ी ने इन नियामतों से भी खुद को मरहूम कर लिया है।
मुझे ऐसा क्यों लग रहा कि दिसंबर इंसान के आशियाने और उम्र के साथ भी अपने मायने और रंग बदलती चलती है, बहरहाल दिसंबर आज भी दिसंबर ही है और हमेशा दिसंबर ही रहेगा, मई क्योंकर होगा ? अपनी ठुनकती चाल से खरामा - खरामा चलता नये साल के उठँगे दरवाज़े को खोलता विदा ले लेगा, अगले साल की आखिरी सीढ़ी बनने की खातिर लेकिन तबतक तो दिसंबर की ओस भींगी धूप से अपने भीतर कुनमुनाहट भर लें !
#पोजिटिव इंडिया