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Prashant Singh

Inspirational

5.0  

Prashant Singh

Inspirational

असर

असर

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नहीं था फर्क नेताओं और आतंकियों में,

दोनों हमारी ही रची भूल थे।

एक उलझे थे कश्तियाँ बदलने में,

एक बयान बदलने में मशगूल थे।।


क्या पड़ा है असर इन धमाकों का,

शब्दों में बयान कर न पाऊँगा।

मर-मर कर बहुत जी चुका,

फिर से शायद मर न पाऊँगा।

कानों में गूँजती है चीखें,

इतने जोर से।

शायद बेफिक्र होकर,

मंदिरों के बगल से गुजर न पाऊँगा।

कौन हिन्दू था,

कौन था मुसलमान?

नहीं कोई जान पाया,

जो वतन के लिए जान गवाँ गया,

चंद दिनों तक रहे उनके ही चरचे,

पर उनके पीछे छूटी लकीरों को जमाना भुला गया

न ही मंदिरों की घंटियाँ,

न ही मस्जिदों से अजान सुनाई पड़ रहे।

दिल धड़कता था सूनी सड़कों पर,

आज हम भीड़ में जाने से डर रहे।

चाहते हैं वो चोट करना,

हमारी गंगा जमुनी संस्कृति पर।

पर फिर से हँसी हमारे चेहरों पर आयेगी,

बेचैन हो मत बहाना खून अपनो का,

ईद और दीपावली संग-संग,

फिर से मनायी जायेगी।

डर लग रहा है पटाखों से भी,

अपनों की गोलियों का सामना कर न पाऊँगा?

क्या पड़ा है असर इन धमाकों का।


काँपते होंठों को देख न सोचो,

कि हम खामोश हो जायेंगे।

नमी है आँखों में, पर ऐसा भी नहीं कि,

गम अश्कों के साथ बह जायेंगे।


भूले नहीं उन्हें जो पल भर में दूर हो गये,

हर पल उन्हें याद करना है जो कि नासूर हो गये।

चंद धमाकों से फर्क किसे पड़ता है ?

जिन्दगी को तो आगे ही बढ़ना है।


हजार बार कह चुके ऐसा,

दृढ़ निश्चय किया है कि इस बार लड़ना है।

शांति प्रिय हैं पर न सोचो कि,

चुप रहना हमारी मजबूरी है।

क्या अब भी कुछ कहना जरूरी है ?


वक्त तो है मरहम जो हर घाव को भर देगा,

खोया है जिन्होंने अपनों को,

उनकी कमी कौन पूरी करेगा ?

एक बार तो बाँटा है हमें,

कितने भागों में हमें बाँटोगे ?


पंजाब, सिन्धु, गुजरात,

मराठा बचपन से गाया है ?

क्या ये मतलब समझें कि,

इतने भागों में हमको छाँटोगे ?


कैसे यकीन करें कि नफरत की,

आँधी तब जाकर थम जायेगी ?

कैसे यकीन होगा कि गाँधी के,

विश्वास की तब न बलि दी जायेगी ?


खामोश लहरों को देख भला कब,

लगता है कि इनमें भी तूफान उठेगा,

तूफान उठता है तो समझ नहीं आता,

भला ये कैसे रूकेगा ?


हमारी खामोशी भी ऐसी है,

हमारा उद्गार भी ऐसा है।

हमारी नफरत भी ऐसी है,

हमारा प्यार भी ऐसा है।


राम तो कण-कण में बसे हैं यहाँ पर,

पर अब तो परशुराम,

बनना हमारी मजबूरी है।

क्या अब भी कुछ कहना जरूरी है ?


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