वंश
वंश
कैसा है भ्रम तेरा,
किस बात का तुझमें दंभ है?
है तेरे जैसे और भी मानुष,
फिर क्यों करता तू घमंड है?
सूर्य अपनी रोशनी कुल पूछ,
कर बिखराता नहीं।
ऐसा भी नहीं चंद्र की शीतलता,
कोई पाता है और कोई पाता नहीं।
किस कुल है जन्म लिया,
इसमें तेरा कुछ हाथ नहीं।
श्रेष्ठ कुल में यदि जन्म हुआ,
इसमें फक्र की कोई बात नहीं।
फिर ऐसा क्यों है कि,
कोई यहाँ दूसरों के ख्वाबों को तोड़ रहा है।
जिसने किया था सर्वस्व राज,
वही हाथ जोड़ रहा है।
ऐसा भी नहीं, वो रीतियाँ गलत थी,
उसे हम तोड़ दें।
सही ढंग से उन्हें अपना ले,
कुछ है कुरीतियाँ उन्हें छोड़ दें।
अपनाना है तो राम की मर्यादा को अपना,
पा सके पाले, लक्ष्मण सा तेज,
बन सके हरिश्चन्द्र बन कर दिखा।
फक्र तब कर यदि,
भरत सी विद्या तूने पायी हो।
रघु जैसे कर्म हो तेरे,
दिलीप जैसी कीर्ति छायी हो।
दंभ तब कर यदि जनक सा ज्ञान हो।
कर्ण जैसी हो विद्या,
अर्जुन सा सम्मान हो।
कर सकता है तो शत्रुघ्न बन,
शत्रुओं का नाश कर,
या बन जा कुश सा योद्धा,
पितामह बन सबके हृदय में वासकर।
हो यदि तू क्षत्रिय, तू सर्वस्व अपना दान कर,
खुद है ब्राह्मण यदि,
दूसरों का भी सम्मान कर।
किसी कुल में जन्म लेकर,
कोई मानुष क्षत्रिय या ब्राह्मण कहलाता नहीं
और कोई जन्मजात,
शूद्र बन इस धरा पर आता नहीं।
हो चाहे जो भी जाति या धर्म,
हर जगह कर्म का ही गुणगान है।
संघर्ष करने की हो कुशलता,
तब जाकर तेरा सम्मान है।