वो आवाज़
वो आवाज़
एक आवाज़ सन्नाटे को चीरती,
दो आँखें बुझी सी, कुछ दो साल बाद,
वो आज फिर बुदबुदाई थी,
"ममता का अपनी माँ, तू इस बार गला मत घोंटना,
लाख सताए ज़माना, तू इस बार उसका साथ ना छोड़ना,
मेरी परछाई होगी वो, तेरे सपनों का आईना बनके निखरेगी,
तू एक बार हिम्मत तो कर, आँगन में तेरे खुशबू बनके बिखरेगी,
मैं जानती हूँ इस मर्तबा भी तुझे,
तेरे, मेरे और उसके, हम सब के अपने,
मजबूर करेंगे फिर वही पाप करने को,
पर इस बार माँ, मत सुनना तू उनकी,
उस नन्ही कली को जो तेरे उदर में पल रही है,
माँ! इस दफ़ा ज़मीं का स्पर्श ज़रूर कराना,
और यकीन मान उसके चेहरे की मासूमियत देख,
वो अपने भी पिघल जाएंगे,
बस माँ तू कहीं टूट मत जाना,
एक बार फिर अपनी वो भूल मत दोहराना,
उस मासूम को भी मेरी तरह,
सिर्फ रातों का साथी मत बनाना,
गुहार है मेरी ये माँ, तू उसे सवेरा ज़रूर दिखना।"
आँख खुली तो खिड़की से सूरज तो दिख रहा था,
पर वो आवाज़ भी गुम थी और उदर का वो उभार भी,
अश्रु भी गुम थे और किलकारी की आवाज़ भी।