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पहला प्रेम

पहला प्रेम

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जेठ की दोपहर में भटक था रहा

था पसीनें की बूंदों से भीगा ये तन

कि तभी तुम पे मेरी नज़र जा पड़ी

आके यूँ ढक गया, धूप को जैसे घन।


मन में हलचल हुई प्रणय सी वेदना

जैसे मिल ही गया प्रेम का मुझको धन

खो गया भरी दोपहरी ही स्वप्न में

बेख़बर धूप में जल गया मेरा तन।


जाने तुम कब गयी कि पता ना चला

स्वप्न टूटा तो सर कर रहा टन-टन

तब से हर दोपहर मैं यहीं आता हूँ

तुम बिन लगता नहीं है कहीं मेरा मन।


प्रणय एहसास ही तुमसे पहला हुआ

झूमा था मेरा मन प्रेम की लहर बन

इस ह्रदय को स्पंदित तुम्हीं ने किया

तुमको ही है समर्पित ये तन और मन।


अपने भी प्रेम का एक संगम बने

यमुना सा तेरा तन गंगा सा मेरा मन

प्रेम पावन मेरा तू मिले ना मिले

तू सदा खुश रहे इतना चाहे ये मन।।


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