रूठना अपनों से
रूठना अपनों से
कल नहीं आये हमारे खास दिन पर
आज हमारे पास वक्त नहीं तेरे लिए
हमको भी कुछ जरूरी काम निपटाने हैं
अब तो गहरी नींद सोकर कुछ ख्वाब देखने हैं।
शाम को कुछ इधर उधर भटकना है
तू वक्त का पाबंद नहीं इसलिए ये ही कहेंगे हम
तू आज मिलने का वादा करेगा
और चार दिन इन्तजार करवाएगा,
इन्तजार हम कर नहीं सकते
आज नहीं चार दिन बाद मिलेंगे
वो भूली सी याद आ जाती है
वो लुका छिपी का खेल खेलना।
वो दौड़ के कहना आ छू ले
वो क्यों हम आज तक ना भूले
वो बचपन का झूला झूलना
वो तेरा हाथ पकड़कर साथ खेलना।
हम आज तलक ना भूले
वो प्यार हमारे दरमियाँ का....
वो भी क्या ज़माना था जब
सब एक साथ बैठकर नाश्ता
या खाना खाते थे।
अब तो वक्त ही नहीं किसी
के पास दो पल बात करने का
हर कोई दौड़ रहा अपनी ही
मस्ती में अपने ही कामों की।
चिंता खाये जा रही सबको
बच्चे हो जवान हो या बड़े हो
नाश्ता यूँ करते जल्दी में जैसे
की गाड़ी छूट जाएगी दिल्ली की।