बहुत बेजार होकर मिल रहे हैं
बहुत बेजार होकर मिल रहे हैं
बहुत बेजार होकर मिल रहे हैं
कभी जो दो जिस्म एक दिल रहे हैं।
हां अब बेगाने हैं गुमनाम है वो
कभी जो शम्मा-ए-मेह्फील रहे हैं।
था पतझड़ चल रहा इस गुलिस्ता में
जो तू आया है तो गुल खिल रहे हैं।
था शीक्वे का इरादा बाद-अज-वसल
सहेन में हाथ थामे चल रहे हैं।
उफख पे राख है कालिक है छाई
जमीं पे सब ह्सद में जल रहे हैं।
कहां का इश्क़ ये धंधा है दिल का
वफादारी के सौदे चल रहे हैं।
इशक़ मे कुछ नहीं मिलता है अकबर~
या प्यासे प्यार में साहिल रहे हैं।