वो दीपक जो पानी से जलते हैं
वो दीपक जो पानी से जलते हैं
बस्ती जिले के छोटे से कस्बे में रहता था जमुनादास। आठ वर्ष की आयु में माता पिता के गुज़र जाने के बाद ग्राम प्रधान ने जमुना को गोद ले लिया। प्रधान जी का दिल बहुत बड़ा था, जिस स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ने भेजा, वहीं जमुना को भेजा। जमुनादास बड़े स्कूल में पढ़ना पसंद नहीं करता था, बहुत बोला उसने प्रधान जी को, लेकिन प्रधान जी उसकी उन्नति और उच्च शिक्षा की अभिलाषा रखते थे। जमुना के जीवन में एक साथी की कमी थी। मस्तिष्क के हर कोने में समुद्री ज्वार सी उठती लहरों का भार वो अकेला कैसे झेलता, इसलिए अपनी पुरानी टूटी झोंपड़ी के पास जाकर माँ बापू से बात करता था। "माँ हमेशा आती है बुलाने पर, माँ हवा के साथ आती है, मेरे गाल पर प्यार कर के चली जाती है। बापू नहीं सुनते, वो अभी भी खेती कर रहे होंगे कहीं...", यूं कहता था, बड़ा पागल था जमुना। जमुना से पूछा गया, "माँ हवा के साथ आती है तो माँ को रोक लिया कर, उनके साथ समय नहीं बिताता तू..."। जमुना बोला, "माँ शुरू से फुर्तीली थी। कभी नहीं थकी, आज भी बहुत तेज़ी से आती है और पता नहीं कब गायब हो जाती है, मैं तो चल भी नहीं पाता, माँ को कैसे पकडूं..."।
जमुना पोलियो का शिकार था, बचपन से सहारा लेकर ही चला। बड़े स्कूल में मंत्रियों और अफसरों के बच्चे आते थे, जो कभी उसके साथ बैठना, पढ़ना, खाना या खेलना पसंद नहीं करते थे। जमुना का कोई दोस्त नहीं था, प्रधान जी के बच्चे भी बात करना पसंद नहीं करते थे। बस माँ बापू उसके साथी थे, अदृश्य, अनदेखे लोग, बस वो ही महसूस करता था। कभी गिर जाता था तो तमाशा बन जाता था, कभी चलता था तो लोग डेढ़ मीटर की दूरी बना लेते थे। "कभी कभी सर्कस के जानवर जैसा महसूस होता है",बहुत धीमी आवाज़ में बोला। पढ़ने में बहुत तेज़ था जमुना, पढ़ाई के दम पे उसने दो चार दोस्त बनाए, जिनकी वो सवाल सुलझाने में मदद करता था। इंटरमीडिएट में स्कूल टॉपर रहा और स्नातक की उपाधि के पश्चात सरकारी अफ़सर भी बन गया।
"मेरे ऑफ़िस के कर्मचारी कभी मेरी मदद के लिए नहीं आते!"
उससे पूछा गया, "ओह, इतना बुरा बर्ताव क्यों? कर्मचारी हैं, साहब की सेवा करनी चाहिए!"
पीछे से एक कर्मचारी बोला, "साहब जी, हमारे बड़े साहब किसी की सहायता के मोहताज नहीं! चट्टान जैसी शक्ति है बड़े साहब में, हमारे पैर ठीक है पर इतना साहस कभी नहीं आया। तभी ये साहब हैं और हम यहां के चपरासी।"
जमुना का कहना है कि पहले उसे लगता था कि वह एक चलता फिरता तमाशा है और आज जब उसने खुद की काबिलियत को पहचाना है, वह कहता है कि तमाशा तो यह दुनिया है, सभी अपनी सोच की कठपुतलियां हैं। अब वो दुनिया का तमाशा देख रहा था।
जमुना का दर्द मैं ज्यादा नहीं समझ सकता, वही उसकी गहराई समझता होगा। मैं सिर्फ समझ पाया हूं कि हम सब कठपुतलियां हैं। वहीं देश के किसी कोने में कोई कुपोषित है, किसी ने हादसे में हाथ पैर गवां दिए, कोई एसिड अटैक का शिकार, कोई नेत्रहीन, कोई श्रवनहीन, कोई वाकहीन, कोई विचित्र बीमारी से पीड़ित और हम क्या हैं? हम थोड़े विवेकहीन हैं शायद, और वो भी नहीं तो हम कठपुतली तो हैं ही। सड़क पर चलते हुए लोग देखे होंगे आपने, ऐसी ही किसी दिव्यंगता को लेकर भी हिम्मत से सबके सामने आते हैं। हम उन्हें देखते हैं सहानुभूति की नज़र से। हमारा दिल ही ऐसा है, लेकिन बंधु, अब इसे विराम दो। वे भी मनुष्य हैं, अपनी सहानुभूति की नज़रों से उन्हें घूरना बंद करो। उनकी मदद के लिए बिना सोचे समझे मत कूद पड़ो, अगर सच में उन्हें बहुत ज़रूरत है, तभी हाथ बढ़ाओ। उन्हें कभी कमज़ोर महसूस न होने दो। यह सब नहीं हो सकता तो उन्हें नज़रअंदाज़ करो, कम से कम उन्हें खुद में एक तमाशा महसूस न हो। वैसे तो खूब साहस होता है इन बंदों में पर कुछ फ़र्ज़ हमारा भी है।
शारीरिक विकलांगता के बावजूद, ऐसे बुलंद हौसले और दृढ़ निश्चय ने मुझे एक बार खुद पर विचार करने पर मजबूर कर दिया। हमारी परिस्थितियाँ हमारी विजय के दम पर हमें हार के हवाले नहीं कर सकतीं। उनसे सीखना होगा, वो शारीरिक रूप से विकलांग हमारी बाहरी नज़रों को दिखते हैं, अंतर्मन की दृष्टि से देखिए, वो वह दीपक हैं जो पानी से जलने की क्षमता रखते हैं।
