मेरा वचन
मेरा वचन
समय आज भी वही गति से बीत रहा है जैसे हज़ारों वर्षों पूर्व होता था। विकास भी आ रहा है, प्रगति भी हो ही रही है परंतु इन सभी बातों में एक अहम बात है कि समय के बढ़ते चक्र में हम अपने शुद्ध विचार, संस्कृति और सभ्यता को खोते जा रहे हैं। शब्दों की कोई खास गरिमा नहीं है और 'वचन' का कोई महत्व नहीं। "रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई....", पर प्रभु यह तो कलयुग है, यहां क्या वचन और क्या भाषा? चलिए इन महान विचारों से आपका समय व्यर्थ नहीं करूँगा, आइए एक किस्सा बताता हूं।
पंतनगर में ठंड काफ़ी थी। दिसंबर की एक सुबह नाश्ता करने के बाद मैं क्लास के लिए निकल गया। वैसे तो सभी इंजीनियर पांच मिनट में तैयार होकर क्लास पहुंच जाते हैं पर हम कुछ लोग सुबह उठ जाना ही पसंद करते हैं। पंतनगर के पेड़ों पर चहचहाते पक्षी, धीमी धुंध में से झांकती रवि की धवल किरणें जो पत्तों पर ओस की बूंदों को हीरे सा चमका रही थी, ठंडी हवाओं में खेतों की भीनी महक और कुछ कूदते उछलते बंदरों के बीच हम सब 'मैकेनिकल इंजीनिअर्स' ज्ञान की बातें सुनते और सुनाते जा रहे थे। सड़क पर साइकिल और अन्य वाहनों का आना जाना शुरू हो चुका था। चलते चलते मैं अपने दोस्तों से थोड़ा पीछे रह गया। प्राकृतिक सौंदर्य के मनमोहन ने मुझे सम्मोहित कर लिया था। दोस्तों की व्यर्थ चर्चा में खास आनंद नहीं था जो उस सौंदर्यबोध में था। अपनी ही दुनिया में खोया हुआ था मैं कि अचानक किसी ने मुझे पुकारा...
"भैया....", मैंने आसपास उस ध्वनि का अनुसरण करते हुए नज़रें दौड़ाई और उस ध्वनि ने खुद को दोहराया। मधुर, तोतली और मीठी सी आवाज़। एक छोटा, मिट्टी में सना हुआ, पुराने फटे सिले कपड़ों में प्यारा सा बालक नंगे पाँव मेरे पास भाग कर आया और बोला, "भैया, बिस्कूल"।
मुझे कुछ समझ न आया पर थोड़ा दिमाग लगाया और लगा शायद स्कूल के बारे में पूछ रहा है।
मैं बोला, "स्कूल नहीं, मैं कॉलेज जाता हूं..."
नन्हा बालक मुझे दोबारा समझाने लगा, "नहीं भैया। बिसकूत। मेरे लिए बिस्कूत ले आओगे आते हुए.."
"अच्छा बिस्कुट?"
"हाँ, बिस्कुत ले आना। थीक है..."
"ठीक है, ले आऊंगा बिस्कुट..."
मैंने एक मुस्कान के साथ उसको 'बाय' किया और चल दिया। उसकी वह खुशी और उत्साह देखकर मेरा मन प्रफुल्लित हो गया। तभी उसने दोबारा आवाज़ लगाई।
"भैया, इसके लिए भी ले आना..."
अपने दोस्त की तरफ इशारा करते हुए उसने आशावादी नज़रों से मुझे देखा और मैंने भी हाँ में गर्दन हिला दी। दोनों दोस्त खेलते खेलते नज़रों से धूमिल हो गए। मैं कॉलेज की तरफ बढ़ा और विचारों की जुगाली करने लगा। एक खयाल आया, कि ना तो मैंने उस बच्चे से पूछा कि वो कहां मिलेगा और बिस्कुट का वादा भी कर दिया। मेरा वादा खोखला था। मेरे शब्दों में कोई वज़न नहीं था। मेरा वादा बिल्कुल किसी चुनावी जुमले की तरह था, जैसे चुनाव से पहले जाल बिछाकर मासूम जनता को फंसाते हैं बाद में महंगाई और भ्रष्टाचार के चलते उन्हें पिसना पड़ता है। विषैली राजनीति करने वालो के कुकर्मों का हलाहाल इन्हीं गरीबों को पीना पड़ता है जिन्हे आज भी पूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध नहीं होती। सरकार कुछ नीतियाँ लाती तो है पर उन्हें जरूरतमंदों तक कुछ भ्रष्ट लोग पहुंचने ही देते। इसी प्रकार मेरा वादा भी खोखला था, यह विचार मेरे अंतरमन को खसोटता रहा।
अगले दिन सुबह मैं उसी जगह से गुज़रा जहां वो बालक मिला था। विचारों ने मेरे मस्तिष्क की हर कोशिका पर जैसे कब्ज़ा कर लिया था। काश वो बच्चा दोबारा मिलता। मैं बिस्कुट लाता और उसे वहीं रुकने के लिए कहता। उसकी आवाज़, "भैया, भैया" मेरे अंदर ही अंदर गूंजने लगी। तभी प्रतीत हुआ कि आवाज़ पास से ही आ रही है। मुड़कर देखा तो वो बच्चा हाथ में एक पैकेट लेकर मेरी तरफ़ दौड़ा आया।
"लो भैया बिस्कूूत। मुजे दूसरे भैया ने लाकर दिया। मैंने एक आपके लिए भी ले लिया..."
मैं निशब्द रह गया। एक अंजान बच्चे ने मेरे लिए बिस्कुट लेकर रखा जिससे मेरा कोई नाता नहीं। कितने मासूम होते हैं बच्चे। मैंने तो बिस्कुट ही नहीं ख़रीदा था क्योंकि उससे दोबारा मुलाकात की कोई उम्मीद नहीं थी। तब लगा कि शायद बड़ा तो हो गया हूं पर बचपन के साथ उत्साह, आशा और विश्वास की कमी हो चुकी है। अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है। एक नन्हा सा बालक ज़िन्दगी की बड़ी सीख दे गया।
कहानी ज्यादा बड़ी नहीं है। विचारों की जुगाली करते-करते लगा कि दुनिया में कुछ झूठे वादे करने वाले हैं तो अच्छे लोगो की भी कमी नहीं है। 'दूसरे भैया' जिसने बिस्कुट लाकर दिया, ऐसे भी लोग होते हैं। वैसे तो यह कलयुग है। सत्ता भ्रष्ट करती है और परम सत्ता परम भ्रष्ट करती है लेकिन भ्रष्टाचार और असत्य कभी भी सदाचार और सत्य को पराजित नहीं कर सकते। चाहे वो गिने-चुने ही बचे हों, पर वो सभ्यता और विचारों का सम्मान बचा ही लेंगे। मैं भी उनके साथ हूं।
