वह एक किताब जिसने बदल दी महात्मा गांधी की जिंदगी
वह एक किताब जिसने बदल दी महात्मा गांधी की जिंदगी
गांधी जी ने 29 नवंबर, 1925 को इस किताब को लिखना शुरू किया था और 3 फरवरी, 1929 को यह किताब पूरी हुई थी. गांधी-अध्ययन को समझने में 'सत्य के प्रयोग' को एक प्रमुख दस्तावेज का दर्जा हासिल है, जिसे स्वयं गांधी जी ने कलमबद्ध किया था. पर यह कितनों को पता है कि पांच भागों में बंटी इस किताब के चौथे भाग के 18वें अध्याय में खुद गांधी जी ने उस किताब का जिक्र किया है, जिसने उन्हें गहरे तक प्रभावित किया। जिस तरह वेस्ट से मेरी जान पहचान निरामिषहारी भोजनगृह में हुई, उसी तरह पोलाक के विषय में हुआ. एक दिन जिस मेज पर मैं बैठा था, उससे दूसरी मेज पर एक नौजवान भोजन कर रहे थे. उन्होंने मिलने की इच्छा से मुझे अपने नाम का कार्ड भेजा. मैंने उन्हें मेज पर आने के लिए निमंत्रित किया. मि. पोलाक की शुद्ध भावना से मैं उनकी ओर आकर्षित हुआ. पहली ही रात में हम एक दूसरे को पहचानने लगे और जीवन विषयक अपने विचारों में हमें बहुत साम्य दिखायी पड़ा. उन्हें सादा जीवन पसंद था. एक बार जिस वस्तु को उनकी बुद्धि कबूल कर लेती, उस पर अमल करने की उनकी शक्ति मुझे आश्चर्यजनक मालूम हुई. उन्होंने अपने जीवन में कई परिवर्तन तो एकदम कर लिये.
'इंडियन ओपीनियन' का खर्च बढ़ता जाता था. वेस्ट की पहली ही रिपोर्ट मुझे चौंकानेवाली थी. उन्होंने लिखा, 'आपने जैसा कहा था वैसा मुनाफा मैं इस काम में नहीं देखता. मुझे तो नुकसान ही नजर आता है. बही-खातों की अव्यवस्था है. उगाही बहुत है, पर वह बिना सिर पैर की है. बहुत से फेरफार करने होंगे. पर इस रिपोर्ट से आप घबराइये नहीं. मैं सारी बातों को व्यवस्थित बनाने की भरसक कोशिश करूंगा. मुनाफा नहीं है, इसके लिए मैं इस काम को छोडूंगा नहीं.'
वेस्ट का ऐसा पत्र आने से मैं नेटाल के लिए रवाना हुआ. पोलाक तो मेरी सब बातें जानने लगे ही थे. वे मुझे छोड़ने स्टेशन तक आये और यह कहकर कि 'यह रास्ते में पढ़ने योग्य है, आप इसे पढ़ जाइये, आपको पसन्द आयेगी,' उन्होंने रस्किन की 'अनटू दिस लास्ट' पुस्तक मेरे हाथ में रख दी.
इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद मैं छोड़ ही न सका. इसने मुझे पकड़ लिया. जोहांसबर्ग से नेटाल का रास्ता लगभग चौबीस घंटो का था. ट्रेन शाम को डरबन पहुंचती थी. वहां पहुंचने के बाद मुझे सारी रात नींद न आयी. मैंने पुस्तक में सूचित विचारों को अमल में लाने को इरादा किया.
मेरा यह विश्वास है कि जो चीज मेरे अन्दर गहराई में छिपी पड़ी थी, रस्किन के ग्रंथरत्न में मैंने उनका प्रतिबिम्ब देखा, और इस कारण उसने मुझ पर अपना साम्राज्य जमाया और मुझसे उसमें अमल करवाया. जो मनुष्य हममें सोयी हुई उत्तम भावनाओं को जाग्रत करने की शक्ति रखता है, वह कवि है. सब कवियों का सब लोगोँ पर समान प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि सबके अन्दर सारी सद्भावनाएं समान मात्रा में नहीं होती.
मैं 'सर्वोदय' के सिद्धान्तों को इस प्रकार समझा हूं:
1. सब की भलाई में हमारी भलाई निहित है
2. वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक सी होनी चाहिये, क्योंकि आजीविका का अधिकार सबको एक समान है.
3. सादा मेहनत-मजदूरी का, किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है पहली चीज मैं जानता था. दूसरी को धुँधले रुप में देखता था. तीसरी का मैंने कभी विचार ही नहीं किया था. 'सर्वोदय' ने मुझे दीये की तरह दिखा दिया कि पहली चीज में दूसरी चीजें समायी हुई हैं. सवेरा हुआ और मैं इन सिद्धान्तों पर अमल करने के प्रयत्न में लगा रहा।
