वड़वानल - 71
वड़वानल - 71
‘‘मुझे कुछ कहना है। मैं कहूँगा।’’ प्रतिनिधियों को हाथ से दूर हटाते हुए और आगे जाने के लिए राह बनाते हुए चट्टोपाध्याय चिल्लाया, ‘‘हम संघर्ष क्यों वापस ले रहे हैं ? क्योंकि सरदार पटेल ऐसा कह रहे हैं ! कौन है ये पटेल ? हमें जो विद्रोह के प्रारम्भ से सलाह दे रहे थे कि बिना शर्त समर्पण करो, कम्युनिस्ट पार्टी ने लोगों से बन्द और हड़ताल की अपील की थी तब लोगों से बन्द और हड़ताल में शामिल न होने की अपील करने वाले सरदार ! आज अंग्रेज़ों ने जो फायरिंग की और जिसमें सैकड़ों जानें गईं उसके लिए सरदार भी सरकार जितने ही ज़िम्मेदार हैं ! क्योंकि उनकी अपील ने ही सरकार को फ़ायरिंग करने के लिए नैतिक बल प्रदान किया। बारडोली के सत्याग्रह में जिस तरह ऊँची आवाज़ में सरदार ने पुलिस के अत्याचारों का निषेध किया था क्या उसी क्रोध से उन्होंने कल या आज अंग्रेज़ों द्वारा की गई गोलीबारी की थोड़ी–सी भी निन्दा की ? खुद आकर परिस्थिति का मुआयना करना तो दूर की बात है, उल्टे उन्होंने कांग्रेस के स्वयं सेवकों को ‘पीस-पार्टी’ के नाम से भेज दिया। मेरा सवाल है, जिन्हें हमारे साथ सहानुभूति नहीं, उन पटेल की हम क्यों सुनें ? दोस्तों ! सिर्फ एक ही पक्ष से विचार न करो। यदि पटेल के कहने पर हमने आत्मसमर्पण कर दिया तो कल क्या होगा ? ये नीच अंग्रेज़ हममें से हरेक को गिन–गिनकर निकालेंगे, हम पर अमानवीय अत्याचार करेंगे, शायद साम्राज्य द्रोही कहकर हमें गोलियाँ भी मार दें, या दीर्घ काल तक यातनाएँ सहकर हमें मृत्यु का आलिंगन करना पड़े। दोस्तों ! कल जब स्वतन्त्रता का सूरज क्षितिज पर उदित होगा, तब हमारा अन्त हो चुका होगा। मुझे यकीन है कि हममें से हर कोई मौत को गले लगाने के लिए तैयार है। जिसने जन्म लिया है उसे एक न एक दिन मरना ही है; मगर यह मौत कैसी होनी चाहिए ? मृत्यु और मरने वाले के लिए गौरवपूर्ण मृत्य होनी चाहिए। मौत भी वैसी ही शानदार हो, जैसी ज़िन्दगी थी। जिस उद्देश्य के लिए जिये उसी उद्देश्य के लिए मौत का सामना करें। लड़ते–लड़ते मौत को गले लगाएँ।’’
चट्टोपाध्याय भावुक हो गया था। उसे काफ़ी कुछ कहना था, मगर दत्त ने उसे बीच ही में रोक दिया और खान से बोलने के लिए कहा। खान के हाथ में एक कागज़ था। खान के चेहरे की उदासी कुछ कम हो गई थी। मन का तूफ़ान धीरे–धीरे शान्त हो रहा था। खान बोलने के लिए खड़ा हुआ। सैनिकों ने उसके भीतर के परिवर्तन को महसूस किया।
‘‘दोस्तों ! फ्री प्रेस जर्नल के पास आया हुआ एक सन्देश अभी–अभी मुझे मिला है। यह सन्देश जिन्ना ने हमें कलकत्ते से भेजा है।’’ खान ने जिन्ना का सन्देश पढ़ना शुरू किया, ‘‘मुम्बई, कराची, कलकत्ता और हिन्दुस्तान के अन्य बन्दरगाहों पर परिस्थिति गम्भीर हो गई है। अख़बारों में छपी ख़बरों से ज्ञात होता है कि नौसेना के सैनिकों की कुछ न्यायोचित शिकायतें हैं और वे सही हैं। इन शिकायतों का निवारण करवाने के लिए नौसैनिकों ने हड़ताल कर दी है।’’
‘‘अरे, उस जिन्ना से कोई कहे कि हम हड़ताल पर नहीं हैं, हमने विद्रोह कर दिया है, विद्रोह ! और यह विद्रोह मुट्ठीभर ज़्यादा अनाज के लिए नहीं है, न ही यह वेतन वृद्धि के लिए है। हमारा विद्रोह सिर्फ स्वतन्त्रता के लिए है।’’ चट्टोपाध्याय चीखा ।
एक बार फिर हंगामा होने लगा। सैनिक ज़ोर–ज़ोर से आपस में बातें कर रहे थे, झगड़ रहे थे। दत्त और मदन उन्हें शान्त करने की कोशिश कर रहे थे।
‘‘दोस्तों ! हमारे पास समय बहुत कम है और सुबह छह बजे से पहले हमें फ़ैसला कर लेना है, ’’ दत्त तिलमिलाकर कह रहा था। मदन ने खान से आगे पढ़ने को कहा। खान फिर से खड़ा हुआ और जिन्ना का सन्देश पढ़ने लगा। हंगामा धीरे–धीरे कम होने लगा।
‘‘मुस्लिम सैनिकों से मैं अपील करता हूँ कि वे यह सब रोकें और परिस्थिति को और बिगड़ने न दें...।’’
सन्देश में निहित इस वाक्य ने आग में घी डालने का काम किया। आज़ाद हिन्द सेना के शाहनवाज़ खान को भेजे गए तार में उन्होंने जिस तरह से जातीयता का आह्वान किया था, वैसा ही नौसैनिकों को भेजे गए सन्देश में भी किया था। आगे बैठे हुए कुछ सैनिकों ने, जो हंगामे के बीच भी ध्यान देकर सुन रहे थे, इसे भाँप लिया और उनमें से एक सैनिक उठकर चिल्लाया, ‘‘ये गद्दारी है। ये धर्म के आधार पर सैनिकों में फूट डालने की कोशिश है। आज हमें इसका निषेध करना ही चाहिए ! अब मैं समझ रहा हूँ कि खान पीछे हटने के लिए क्यों कह रहा है। उसे मुसलमानों को बचाना है, क्योंकि वह ख़ुद ...’’
दत्त से यह आरोप बर्दाश्त नहीं हुआ। वह तड़ाक् से उठा। ‘‘मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि हम इतने निचले स्तर पर गिर जाएँगे। आज तक हम जाति, धर्म भूलकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ते रहे और आज एक जातीयवादी नेता द्वारा भेजे गए सन्देश में जाति का ज़िक्र सुनते ही हम अपनी एकता भूल गए। क्या इतनी कमज़ोर थी हमारी एकता ? नहीं, दोस्तो ! अगर हम एक रहेंगे तभी हमारी स्वतन्त्रता को कोई अर्थ प्राप्त होगा, वरना स्वतन्त्रता पाकर भी हम जातिभेद के जुए में फँसे रहेंगे और हमारी स्वतन्त्रता के कोई मायने ही नहीं रह जाएँगे।‘’ बेचैन दत्त नीचे बैठ गया।
‘‘दोस्तो !’’ खान शान्त था, ‘‘मैं न तो मुसलमान हूँ और न ही हिन्दू । मैं एक हिन्दुस्तानी हूँ। पूरी तरह हिन्दुस्तानी हूँ, इसीलिए तुम सबका - हिन्दुओं का, मुसलमानों का, सिखों का नेतृत्व मैंने किया और एक सच्चा हिन्दुस्तानी होने के कारण ही तुम लोगों ने मेरा साथ दिया। आज मेरे एक मित्र ने मुझ पर जातीयवाद का आरोप किया, मगर विश्वास रखिए, मैंने जो निर्णय लिया है, पूरी तरह से सोच–समझकर ही लिया है, वह हम सबके हित में है। मैं अपने निर्णय पर अभी भी कायम हूँ। देश के दो प्रमुख राष्ट्रीय पक्षों के नेताओं ने हथियार डालने की अपील की है। ये दोनों पक्ष और उनके नेता हमारी समस्याएँ सुलझाने का आश्वासन दे रहे हैं। इसलिए मैं सुझाव देता हूँ कि बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दें। आप सब इस निर्णय को मान्यता दें ऐसी गुज़ारिश है।’’
खान के शब्दों में विनती थी। खान की बातों के सच ने अनेकों के दिल को छू लिया था। खान की सलाह उनकी समझ में आ गई थी, मगर अभी भी कुछ लोग संघर्ष जारी रखने के पक्ष में थे ।
‘‘खान के ऊपर जो आरोप लगाया गया, वह भावावेश में किया गया था। हममें से किसी को भी उसकी धर्मनिरपेक्षता पर सन्देह नहीं है। हम में से हरेक का उस पर पूरा विश्वास है। वह एक सच्चा हिन्दुस्तानी है। यह सब सच होते हुए पीछे हटना हमें मंज़ूर नहीं है। संघर्ष जारी रहे।’’
‘‘खान का सुझाव हमें मंज़ूर है। जान–माल की भीषण हानि को टालने का यही एक उपाय है।’’
‘‘हमें अपने–अपने जहाज़ों के सहकारियों से चर्चा करनी होगी। हम इसके बाद ही कोई निर्णय ले सकेंगे।’’
‘‘जहाज़ों पर जाकर चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि उन्होंने हमें सभी अधिकार दिए हैं। हम यह निर्णय अपने किसी स्वार्थ की ख़ातिर नहीं ले रहे हैं, पूरी तरह विचार करने के बाद सबके हित में यह निर्णय ले रहे हैं। इसलिए जहाज़ों के सहकारियों के विरोध का सवाल ही पैदा नहीं होता !’’
पिछले चार दिनों से एकजुट होकर लड़ रहे सैनिक आज पीछे हटने के निर्णय के कारण और मन में पैदा हुए धार्मिकता के ज़हरीले पौधे के कारण बँट गए थे। बड़ी देर तक कोई निर्णय हो ही नहीं पा रहा था। ‘कैसल बैरेक्स’, ‘फोर्ट बैरेक्स’ और ‘डॉकयार्ड’ के सामने के रास्तों से ब्रिटिश पलटनों की अनुशासनबद्ध परेड की आवाजें आ रही थीं। बीच में ही टैंक्स की खड़खड़ाहट शान्ति को भंग कर रही थी। कर्फ्यू ऑर्डर की परवाह न करते हुए रास्तों पर जमा हुए लोगों पर की जा रही गोलीबारी की आवाज़ें भी बीच–बीच में सुनाई दे रही थीं। सैनिकों ने यदि आत्मसमर्पण नहीं किया तो 23 तारीख को कठोर कार्रवाई करने का निर्णय गॉडफ्रे, लॉकहर्ट और अन्य अंग्रेज़ अधिकारियों ने ले लिया था, और प्राप्त समयावधि का वे पूरा–पूरा उपयोग कर रहे थे। चर्चा और वाद–विवाद में व्यस्त सैनिकों को इस वास्तविकता का ज़रा भी गुमान नहीं था।
‘‘दोस्तों ! ज़रा कान देकर सुनो और बाहर जाकर देखो। रास्तों पर ब्रिटिश सैनिकों की संख्या बढ़ गई है, टैंकों की संख्या बढ़ गई है। मुझे यकीन है कि अगर सुबह छह बजे तक हमने संघर्ष पीछे लेने के निर्णय के बारे में गॉडफ्रे को सूचित नहीं किया तो पूरा मुम्बई शहर रणभूमि बन जाएगा। अपने पाशविक सैन्यबल पर अंग्रेज़ मुम्बई को श्मशान बना देंगे, और सिर्फ हमें ही नहीं बल्कि पूरे देश को जिस मुम्बई पर गर्व है उस मुम्बई पर कल गिद्धों का साम्राज्य होगा। हम यह नहीं चाहते। अपनी ज़िद की ख़ातिर हमें मुम्बई की, मुम्बई के निरपराध नागरिकों की बलि नहीं देनी है। इसलिए हम, ‘तलवार’ के सैनिक, इस विद्रोह से पीछे हट रहे हैं। ‘तलवार’ के सैनिक बिना शर्त आत्मसमर्पण कर रहे हैं।’’
वहाँ एकत्रित विभिन्न जहाज़ों के प्रतिनिधियों के लिए खान का निर्णय अनपेक्षित था। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि खान इस संघर्ष से इस तरह अपने आप को निकाल लेगा।
‘‘यह गद्दारी है। ‘तलवार’ लड़ाई छोड़कर इस तरह भाग नहीं सकता... हमने साथ रहने की, अपनी एकता को अभेद्य रखने की कसम खाई है।’’ कुट्टी हाथ नचाते हुए चिल्ला रहा था।
खान से यह सब बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। वह पास बैठे मदन के गले लगकर सिसक–सिसककर रो पड़ा, ‘‘ऐसा होना नहीं चाहिए था, ऐसा नहीं होना चाहिए था। हम हार गए हैं। मैं इनके भीतर के सैनिकों को परिपूर्ण नेतृत्व नहीं दे सका...।’’ खान ज़ोर से बड़बड़ा रहा था।
दत्त शान्त था। उसने खान की पीठ पर हाथ रखा। दत्त का वह स्पर्श खान से बहुत कुछ कह गया, ‘हम तुम्हारे साथ हैं।’
‘‘अरे, यह तो लड़ाई है ! एकाध बार हार तो हो ही जाती है ! अन्याय के विरुद्ध जो भड़क नहीं उठता, नामर्दों के समान चुपचाप अन्याय सहन करता रहता है उसी की असल में हार होती है। लड़ने वाले देखने में हार भी जाएँ फिर भी यह उनकी जीत ही होती है। हमने सरकार को दिखा दिया है कि अन्याय के विरुद्ध सैनिक एक हो सकते हैं - यह क्या छोटी बात है ? हमारी सामर्थ्य के अनुसार हम स्वतन्त्रता युद्ध में सहभागी हुए। चार ही दिन सही, अपने सर्वस्व की बाज़ी लगाकर लड़े - यह यश कोई छोटा नहीं है। सामान्य जनता ने जिस तरह हमारा साथ दिया उसी तरह यदि राष्ट्रीय पक्षों ने तथा उनके नेताओं ने दिया होता तो हम निश्चय ही स्वतन्त्रता के अपने उद्देश्य तक पहुँच जाते। यह हार हमारी नहीं हुई। यह हार हुई है उन दरिद्री राष्ट्रीय नेताओं की नीतियों की। हमने काफ़ी कुछ पाया है: लोगों का समर्थन, सैनिकों की एकता और सबसे महत्त्वपूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य को हमने ज़बर्दस्त धक्का दिया है। हमारे विद्रोह से उन्हें इस बात का एहसास हो गया है कि हिन्दुस्तान में उनकी हुकूमत की नींव ही डगमगा रही है। हिन्दुस्तान की स्वतन्त्रता के इतिहास का यह शायद अन्तिम युद्ध हो। हमने अब तक क्या पाया और क्या खोया, इसका अगर हिसाब करने बैठें, तो हमने पाया ही बहुत है। जो कुछ हमने पाया है उसके लिए अगर कुछ और भी खोना पड़े तो कोई हर्ज़ नहीं।’’
हंगामा हो ही रहा था। आज तक अनुशासन में रहे सैनिक क्षणिक पराजय के कारण अनुशासन को भूल गए थे। दत्त के समझाने पर खान का ढाढ़स बँधा था, उसका आत्मविश्वास बढ़ गया था। उसने अपनी आँखें पोंछीं और वह आत्मविश्वास से खड़ा हो गया।
‘‘सायलेन्स, प्लीज़।’’ खान की आवाज़ में आत्मविश्वास था, ‘‘मेरा ख़याल है कि पर्याप्त चर्चा हो चुकी है, अब हमें निर्णय लेना चाहिए। सुबह छह बजे से पहले हमें अपने निर्णय की सूचना गॉडफ्रे को देनी है। मैं दत्त को अपना प्रस्ताव पेश करने की इजाज़त देता हूँ।’’
दत्त ने मदन तथा अन्य सहकारियों की सहायता से तैयार किया गया प्रस्ताव पेश किया।
‘‘सरदार वल्लभभाई पटेल की सलाह के अनुसार, हम, विद्रोह में शामिल सभी सैनिक हिन्दुस्तानी जनता के सामने आत्मसमर्पण करने का निर्णय ले रहे हैं।
‘‘सरदार पटेल ने हमें यकीन दिलाया है कि विद्रोह में शामिल किसी भी सैनिक की बलि नहीं दी जाएगी।
‘‘जिस दृढ़ता और एकता से मुम्बई की जनता, विशेषत: मराठा रेजिमेंट के सैनिकों, डॉकयार्ड, कारख़ानों और मिलों में काम करने वाले मज़दूरों ने और विद्यार्थियों ने हमारा साथ दिया और हमारी मदद की उसके लिए हम उनके ऋणी हैं ।
‘‘अब तक हुई चर्चा से उभरी परिस्थिति पर ध्यान देते हुए इस प्रस्ताव का सभी सैनिक समर्थन करें, ऐसी मैं प्रार्थना करता हूँ।’’
दत्त द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव का दास और मदन ने अनुमोदन किया।
कुछ सैनिक इस प्रस्ताव पर कुछ और चर्चा करना चाहते थे, मगर खान ने इसकी इजाज़त नहीं दी और कहा, ‘‘समय कम है, चर्चा काफ़ी हो चुकी है। अब बहुमत से जो निर्णय लिया जाएगा उसे हम स्वीकार करेंगे।’’
प्रस्ताव पर मतदान किया गया। उपस्थित छत्तीस प्रतिनिधियों में से तीस ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिये। ‘पंजाब’, ‘जमुना’, ‘आसाम’, ‘खैबर’ और माइन स्वीपर स्क्वाड्रन्स के प्रतिनिधियों ने आत्मसमर्पण का विरोध किया।
आत्मसमर्पण का प्रस्ताव पारित होते ही ‘नर्मदा’ का वातावरण बदल गया। पिछले चार दिनों से असीमित धैर्य से संघर्ष कर रहे सैनिक भरभराकर गिर गए, अपना आत्मविश्वास खो बैठे। पिछले पाँच दिनों से चल रहा संघर्ष इतने आनन–फ़ानन में बिना कुछ पल्ले पड़े वापस ले लिया गया। जिस आज़ादी के लिए संघर्ष शुरू किया था वह मृगजल ही साबित हुई इसका अफ़सोस था। पिछले पाँच दिनों की दौड़–धूप, रात–रातभर जागना, अचानक बन्द कर दिया गया संघर्ष - इस सबके कारण अनेकों ने अपना आपा खो दिया था। कुछ लोग एक–दूसरे के गले लगकर रो रहे थे, कुछ लोग संघर्ष के पक्ष में खड़े न रहने वाले नेताओं के नाम से उँगलियाँ मोड़ रहे थे, उन्हें गालियाँ दे रहे थे।
‘‘सरदार ने हमसे कहा है कि संघर्ष में शामिल किसी की भी बलि नहीं ली जाएगी इसका ध्यान कांग्रेस रखेगी। क्या वे अपने वचन का पालन करेंगे ?’’ एक सैनिक ने अपना सन्देह व्यक्त किया।
‘‘मैं नहीं सोचता। क्या तुम ऐसा सोचते हो कि कांग्रेस और सरदार अपना वचन निभा पाएँगे ? अरे, कल आत्मसमर्पण करने के बाद वे हमें पकड़कर हमारा क्या हाल बनाएँगे इसका कोई भरोसा नहीं। शायद पूछताछ किए बगैर विद्रोही करार देकर गोली मार दें, कालेपानी भेज दें या फिर कोर्टमार्शल करके फाँसी दे दें और पूछताछ करने वाले नेताओं से कहेंगे, ‘‘सेना में अनुशासन बनाए रखने के लिए सरकार उचित कार्रवाई कर रही है।’’ दूसरे ने जवाब दिया।
अनेकों के मन में सन्देह थे। वे मौत से नहीं डरते थे, मगर जेल में सड़ना उन्हें मंज़ूर न था।
