Arjun Prasad Author & Writer along with Central Govt. Service

Drama

2.5  

Arjun Prasad Author & Writer along with Central Govt. Service

Drama

उद्धार

उद्धार

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श्याम सिंह भदौरिया रंगपुर में माध्यमिक स्कूल में हेडमास्टर थे। आंखों में शील और चित्त में बड़ी उदारता थी। बहुत ही शिक्षित और बड़े उदार पुरूष थे। दो पुत्र थे अजय और विजय। उनकी मंझली संतान पुत्री थी। जिसका नाम उन्होंने रखा था शालिनी। पति-पत्नी ने लाडली बेटी को बेटे-बेटी में बिना किसी भेदभाव के शालिनी को खूब पढ़ा-लिखाकर शिक्षित और काबिल बनाया।

धीरे-धीरे वह सयानी और विवाह योग्य हो गई। भदौरिया जी और उनकी धर्मपत्नी शांता देवी को रात-दिन उसके व्याह की फिक्र सताने लगी। घर-वर तलाशते-तलाशते श्याम बाबू काफी परेशान हो उठे। पर, उनकी सारी भाग-दौड़ व्यर्थ गई। काफी प्रयास करने पर भी बात कहीं न बनी। वह बार-बार यही सोचते कि बेटी अब बड़ी हो गई है। आहिस्ता-आहिस्ता मेरे रिटायरमेंट का समय भी निकट आता जा रहा है। कहीं घर मिलता है तो ढंग का वर नहीं और वर मिलता है तो अच्छा घर नहीं। मैं क्या करूं, कहां जाऊं? जो भी जहां बताता है, फौरन चले जाते हैं। यह सोचकर पति-पत्नी चिंतित रहने लगे।

साईंगंज के जाने-माने धनाढ्य जमींदार राघव तोमर का बड़ा बेटा विशाल एक नामी-गिरामी कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर था। छोटा पुत्र विवेक अभी कालेज में पढ़ता था। तोमर जी बड़े ही विवेकशील और विद्वान पुरूष थे। उनके आंखों में शील और चित्त में बड़ी उदारता थी। मुख कमल हमेशा खिला हुआ ही रहता। माथे पर केसर का तिलक सुशोभित होता रहता। स्वभाव में गजब की कोमलता और हृदय में सत्यता थी। कितने आदर्शवादी थे तोमर जी ! छल और कपट तो उन्हें छू भी न गया था। बड़े परोपकारी और दयालु व्यक्ति थे तोमर जी।

श्याम बाबू के एक बड़े ही घनिष्ठ मित्र थे बाबू उदयराज। उनकी सलाह से भदौरिया जी एक दिन लड़के की तलाश में तोमर जी के घर जा पहुंचे। वहां जाकर वह उनसे हाथ जोड़कर बोले- तोमर जी, मैं आपके पास बड़ी उम्मीद लेकर आया हूं। आशा है, आप हमें ना-उम्मीद न करेंगे। मेरे पास एक बेटी है शालिनी। साइंस गेजुएट और गृहकार्य में निपुण है। आपका घर संभाल लेगी। आपका बड़ा बेटा उसके योग्य है। अगर आपको कोई ऐतराज न हो तो यह रिश्ता हंसी-खुशी मंजर करके हमारा उद्धार कीजिए। मैं अपनी लाडली के लिए वर खोजते-खाजते एकदम थक चुका हूं। मेरी मानिए, दोनों की शादी हो जाने दीजिए। बड़ी अच्छी जोड़ी रहेगी। इस विवाह से वे भी खुश रहेंगे और हम-आप भी। हालांकि मैं आपके बराबरी नहीं हूं। फिर भी पूरी कोशिश करूंगा कि आपको कभी किसी शिकायत का अवसर न मिले। हो सकता है, ईश्वर की भी यही इच्छा हो। वरना, मैं आपके दरवाजे पर आता ही नहीं।

यह सुनकर राघव बाबू मुस्कराकर बोले-ठीक है लेकिन, विशाल को पहले लड़की दिखा दीजिए। यदि दोनों एक-दूसरे को पसंद कर लेते हैं तो हमें कोई दिक्कत न होगी। कहीं न कहीं बेटे का विवाह तो करना ही है, आपकी बेटी से ही कर लेंगे। अब रही बात आगे की तो किस्मत और भविष्य को किसी ने नहीं देखा है। होगा वही जो उनके नसीब में लिखा होगा। हम और आप लाख यत्न करने पर भी उसे टाल नहीं सकते। बाद की बातें बाद में ही देखेंगे। उस पर अपना कोई जोर थोड़े ही है। क्योंकि जो लोग ऐसी बातों को लेकर कुछ ज्यादे ही चिंतित रहते हैं, वे सदैव दुखी ही रहते हैं। मैं जीते जी ऐसा हरगिज नहीं कर सकता।

राघव बाबू के हां करते ही श्याम बाबू बड़े प्रसन्न हो गए। वह भावविह्वल होकर बोले- भाई साहब, आपने तो मेरे मन की मुराद पूरी कर दी। आज मैं कितना खुश हूं? बता नहीं सकता। अगर आप चाहें तो विशाल को कल ही हमारे घर शालिनी को देखने के लिए भेज दीजिए।

विशाल ने शालिनी को देखा तो एक नजर में ही वह उसे मन भा गई। फिर कुछ समय बाद बड़ी धूमधाम से भदौरिया जी ने उनका विवाह कर दिया। शालिनी अपनी ससुराल चली गई।

शादी के बाद श्याम बाबू सोचने लगे-इतने बड़े घर में लाडली बेटी का विवाह करके मैंने बहुत बड़ा मैदान मार लिया। नहीं तो आज के समय में इतना अच्छा रिश्ता चिराग लेकर ढूंढ़ने पर भी न मिलेगा। बेटियों के मां-बाप की तो रातों की नींद ही उड़ जाती है। मैं बड़ा सौभाग्यशाली हूं कि राघव बाबू बिना किसी ना-नुकर के झट आसानी से मान गए। वह भी दान-दहेज की कोई खास मांग के बगैर ही हमारा बड़ा उपकार किए। वरना, घर-वर तलाशने के चक्कर में लोगों के जूते तक घिस जाते हैं।

उधर राघवेंद्र बाबू भी समधी के रूप में भदौरिया जी को पाकर फूले न समाते थे। श्याम बाबू जैसे सुशिक्षित, विनयशील और परोपकारी संबंधी मिलने से उन्हें बड़े गर्व का अहसास होता। एक दिन वह अपनी पत्नी सुकन्या से बोले-देखो, जब लड़की के माता-पिता इतने शिक्षित और कुलीन हैं तो हमारी पुत्र-वधू भी योग्य और संस्कारवान ही होगी। यह बात अलग है कि इक्के-दुक्के बच्चे आधुनिक चकाचौंध में फंसकर संस्कारहीन और मर्यादाविहीन बनकर जीवन भर इधर-उधर भटकते फिर रहे हैं। इसलिए शालिनी जब श्याम बाबू की ही बेटी है तो मेरे ख्याल से वह भी अपने मां-बाप के समान कुलीन और संस्कारशील रहेगी। हम दोनों की भरपूर सेवा करेगी। तुम देख लेना। कुछ ही दिनों में वह सबका दिल जीत लेगी। एक विद्वान और शिक्षक पिता की पुत्री है।

यह सुनकर सुकन्या ने कहा-अजी, आप अपनी यह सोच अपने तक ही रखिए। फूलकर इतने कुप्पा न होइए। क्योंकि चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात। आज की औलाद का कोई भरोसा नहीं। न जाने कब क्या कर गुजरे। अभी शालिनी को यहां आए दिन ही कितने हुए हैं? जुम्मा-जुम्मा दो-चार दिन हुए हैं। चिंता न कीजिए। शांत मन से चुपचाप वक्त गुजरने का इंतजार कीजिए। फिर धीरे-धीरे तेल भी देखिए और तेल की धार भी। सब ढोल की पोल खुल जाएगी। जरा पर्दा हटने दीजिए। दूध का दूध और पानी का पानी सब अलग हो जाएगा।

अपनी अर्धांगिनी के तर्क से तोमर जी तनिक भी सहमत न हुए। वह उनका कथन सुनकर एकदम जल-भुन गए। फिर गुर्राकर बोले-तुम औरतों में बस यही कमी है। वक्त-बे-वक्त नाहक ही अंट-शंट बकने लगती हैं। अरे, हमने किसी का कुछ बिगाड़ा थोड़े ही है कि हमारी पुत्र-वधू कोई उलूल-जलूल हरकत करेगी। अरे, जरा सोचो। वह पढ़ी-लिखी और समझदार है। तुम उसकी सासु हो। पर, उस पर तुम्हें लेशमात्र भी यकीन नहीं। क्या मैं इसकी वजह जान सकता हूं ? कि आखिर, ऐसा क्यों?

तब सुकन्या ने पति से बे-झिझक कहा-सच मानिए। अतिविश्वास कभी-कभी टूट जाता है। क्योंकि दुनिया का यह दस्तूर है कि जिस पर अधिक भरोसा होता है, वही सबसे बड़ा विश्वासघात भी करता है। फिर आज के बच्चों के क्या कहने? मैं तो बस इसलिए कह रही हूं कि आगे चलकर कभी कुछ गड़बड़ होने पर आपको अचानक कोइ्र सदमा न पहुंचे। आप इतने भावुक न बनें। अपने दिल और दिमाग को दुरूस्त रखिए। आने वाले दिनों में भला-बुरा सब झेलने के लिए सामर्थ्यवान बने रहिए।

यह सुनते ही तोमर बाबू का माथा ठनकने लगा। वह अपनी पत्नी से कहने लगे-तुम ठीक कहती हो सुकन्या। ज्यादे भावुक व्यक्ति मुसीबत पड़ते ही बहुत जल्दी टूटकर बिखर जाता है। तनावग्रस्त होते ही मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है। उसका विवेक मर जाता है। उसकी बुद्धि मानो घास चरने चली जाती है। अतएव आइंदा से मैं बिल्कुल सामान्य जीवन ही जीने का प्रयास करूंगा। लेना एक न देना दो। अनायास झंझट पालने से क्या फायदा? आज तुमने मेरे मन की बात कहकर मेरी आंखें खोल दी।

विशाल और शालिनी को विवाह बंधन में बंधे हुए आहिस्ता-आहिस्ता दो साल गुजर गए। कुछ दिनों तक तो सब कुछ ठीक-ठाक चला। समय चक्र तीव्र गति से चलता रहा। शालिनी भी कुछ गिनी-चुनी बहुओं की भांति सासु-ससुर से मुंह मोड़ने लगी। वह तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर विशाल को उनके खिलाफ उसकाने लगी। एक दिन रात को शालिनी ने विशाल से कहा-चलिए, कहीं अलग चलकर रहते हैं। यहां आए दिन रोज-रोज की किचकिच से मेरा मन ऊब गया है। आपके माता-पिता बात-बात पर टोका-टाकी करते रहते हैं।

तब विशाल ने पूछा-क्यों,क्या हुआ?आज तुम अचानक यह कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?

इस पर शालिनी मुंह बिचकाकर बोली- मेरी तबीयत को कुछ भी नहीं हुआ। एकदम भली-चंगी है। लेकिन, ये दोनों खूसट बुड्ढे और बुढ़िया हर वक्त हाथ झाड़कर अनायास मेरे पीछे पड़े रहते हैं। इनकी तीमारदारी अब मुझसे हरगिज न होगी। हमारे अभी मौज-मस्ती करने के दिन हैं। इनके बंधन में रहना मेरे वश की बात नहीं। जब होता है तभी दोनों बारी-बारी भाषण देने लगते हैं। कहते हैं-बेटी, ऐसा करो, वैसा करो। ऐसे न करो। यह ठीक न रहेगा। ऐसा रहेगा। रात-दिन इनका उपदेश सुनते-सुनते मैं अब आजिज आ चुकी हूं। मैं एक शिक्षित ओर आधुनिक युवती हूं। अपना अच्छा-बुरा सब भलीभांति पहचानती हूं।

शालिनी की बात सुनते ही विशाल बड़े ताज्जुब में पड़ गया। वह कहने लगा-शालिनी तुम जो कुछ कह रही हो,क्या तुम्हें पता है कि इसका नतीजा क्या निकलेगा?उन्होंने तुम्हें ऐसा क्या कह दिया? कि उनके विरुद्ध तुम इतना जहर उगल रही हो। आज तुमने मुझे आहत कर दिया। जरा सोचो, मम्मी-पापा दोनों अब वृद्ध और लाचार हो गए हैं। उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें हम दोनों की काफी जरूरत है। उनकी सेवा करना हमारा फर्ज भी है। उन्हें बुढापे में असहाय छोड़ देने पर लोग क्या कहेंगे? लोगों को छोड़ भी दो तो हम अपनी ही नजर में गिर जाएंगे। यार-दोस्त फब्तियां कसेंगे। वे हमारे मुंह पर थूकेंगे।

इतने में शालिनी झल्ला उठी और कहने लगी-मैं लोगों की परवाह नहीं करती। उनका काम कहना है। कहते रहें। जब कोई हमारी फिक्र नहीं करता तो मैं किसी किसी की क्यों करूं?

शालिनी की जिद दिनोंदिन बढ़ती ही गई। वह सबके साथ मिलजुल कर रहने को कतई राजी न थी। आखिर, न चाहते हुए भी विशाल को पत्नी के आगे झुकना पड़ा। वह सारी व्यथा अपने बूढ़े माता-पिता को बताने को विवश हो गया। विशाल की आपबीती सुनकर अपनी अर्धांगिनी सुकन्या से मशविरा लेकर राघव बाबू कहने लगे-कोई बात नहीं बेटे। आज सारी दुनिया का यही हाल है। बेटे-बहू अपना कर्तव्य भूलकर बेवश और लाचार वृद्धों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए त्याग दे रहे हैं। मां-बाप के जीवन भर की गाढ़े खून-पसीने की कमाई हथियाकर स्वेच्छाचारी बनते जा रहे हैं। इसलिए बहू की जब यही लालसा है तो उसके साथ तुम हमसे अलग जरूर रहो। हमारी बिल्कुल भी चिंता न करो। कुछ दिन और बचे हैं बुढ़ापे के। जैसे-तैसे वे भी रो-गाकर कट जाएंगे। यह सुनकर विशाल ठकुआ गया। वह कुछ बोल न सका। मानो उसे काठ मार दिया गया हो।

बुझे मन से जब विशाल ने शालिनी को बताया कि अम्मा और बाबू जी मान गए हैं। पर, एक बार फिर सोच लो। कहीं ऐसा न हो कि इनसे अलग रहकर खुशी पाने की चाह में हमें दर-दर की ठोकरे ही खानी पडें। यह सुनकर शालिनी की खुशी का कोई ठिकाना ही न रहा। वह हर्ष के मारे उछल पड़ी और बोली- सच? विशाल बोला- सेंट-परसेंट सच। शालिनी फिर बोली-लेकिन, एक बात और है। मुझे जमीन-जायदाद में अपना हिस्सा भी चाहिए। उसे लिए बगैर मैं यहां से न जाऊंगी। हमें अपना हक चाहिए, हक।

यह सुनते ही सुकन्या देवी और तोमर बाबू की आंखों में आंसू आ गए। उनकी यह दशा विशाल से न देखी गई। वह पछाड़ खाकर गिर पड़ा। परंतु, तोमर जी मानो कलेजे पर पत्थर रख लिए। वह एक लंबी आह भरकर विशाल से बोले-जाओ बेटा, तुम लोग अब खुश रहो। बहू के आने के बाद हमें आज यह दिन भी देखना लिखा था। बेटे, नियति को यही मंजूर था। वरना, भरा-पूरा घर है। कहीं कोई भी कमी नहीं। मैं समझता था कि शालिनी बहू नहीं बल्कि, हमारी बेटी है। फिर भी न जाने क्यों वह हमें ठोकर मारकर हमसे मुंह मोड़ने पर ही तुली हुई है। तुम रोको मत। उसे मनमानी कर लेने दो। फिर देखना, एक न एक दिन उसे अक्ल जरूर आएगी। इधर-उधर की ठोकर खाकर वह लौट आएगी। तुम हमें छोड़ो। जाकर इसके साथ आराम से रहो। हम पर जो कुछ भी गुजरेगी, रो-पीटकर सहन कर लेंगे।

इसके बाद विशाल ने दूसरे मोहल्ले में किराए पर एक मकान ले लिया और शालिनी के साथ वहीं रहने लगा। तोमर बाबू ने उसे दो-चार बर्तनों के सिवा अपनी ओर से और कुछ भी दिया। विशाल और शालिनी अपने साथ बस दहेज में मिला हुआ सामान ही ले जा सके। शालिनी हिस्सा न मिलने पर छटपटाकर रह गई। हिस्से को लेकर पति-पत्नी में कहा-सुनी बढ़ने लगी। धीरे-धीरे उनमें इतनी अनबन हो गई कि शालिनी रूठकर एक रोज मायके चली गई।

अपने मां-बाप के पास जाने के बाद शालिनी पुनः विशाल के पास वापस न आई। उसने विशाल से दो टूक एकदम साफ-साफ कह दिया कि कान खोलकर सुन लीजिए। जब तक मुझे अपना हिस्सा न मिलेगा तब तक कोई बात न बनेगी। पता चलने पर शालिनी के माता-पिता ने उसे समझाने की बड़ी कोशिश किया। पर, वह न मानी। बस, अपनी बात पर अड़ी रही। वह जरा भी टस से मस न हुई। शालिनी के वापस न आने से विशाल को बड़ा दुःख हुआ। हार-थककर वह मायूस हो गया।

विशाल को उदास देखकर एक दिन तोमर जी ने उससे पूछा-विशाल, क्या बात है? बहू अब तक पीहर में ही क्यों है? तब विशाल गर्दन झुकाकर बोला- पापा जी, वह खेती-बाड़ी में हिस्से की बात करती है। वरना,वह कभी न आएगी। आप ही बताइए, अब मैं क्या करूं? यह सुनकर राघव बाबू बोले-बीस बीघा खेत है। वह तुम्हारी मां के नाम है। उसे मैं हरगिज न बेचूंगा। रही बात मकान की तो बिचौलिया बुलाकर दाम लगवा लो। पांच भाग में से जो तुम्हारे हिस्से में आए ले लो। दो तुम हो और दो हम हैं। पांचवा भाग मेरे छोटे बेंटे अनूप का रहेगा। यह सुनते ही विशाल के होश ही उड़ गए। उसका सिर चकराने लगा। बाबू जी, क्षमा कीजिए। मुझसे अनजाने में बडी भूल हो गई। शालिनी आए या न आए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। वह मेरी जीवन संगिनी नहीं बल्कि, गृह विनाशक है।

इसके बाद विशाल फिर कभी अपनी ससुराल न गया। उसका कलेजा मानो पत्थर का हो गया। उसकी बेरुखी देखकर शालिनी तिलमिला उठी। दोनों ओर से समझौते का बड़ा प्रयास हुआ। मामला अदालत तक जा पहुंचा। जज महोदया ममता रानी एक सुघड़ और चतुर महिला थीं। बड़ी समदर्शी ओर न्याय की मूर्ति थीं। उन्होंने भी शालिनी को बहुत समझाने की भरपूर कोशिश किया। पर, शालिनी के अड़ियलपन के चलते सबकी उम्मीदों पर देखते ही देखते पानी फिर गया। जज के पूछने पर विशाल बोला-हम शालिनी को अपने साथ रखने को तैयार हैं। इसलिए कोई खर्चा न दूंगा। काफी हुज्जत और गर्मागर्म बहस के बाद विवश होकर ममता जी ने अपना फैसला सुना दिया। सामाजिक बंधन में बंधे विशाल और शालिनी कचहरी के फैसले से अलग-अलग रहने को मजबूर हो गए।

तभी तोमर बाबू फौरन जज के निकट चले गए। नेत्रों में अश्रुधारा लिए हुए वह उनकी ओर मुखातिब होकर तपाक से बोले- हुजूर, गुस्ताखी के लिए माफी चाहता हूं। मैं इस स्त्री का अभागा ससुर हूं। बहू के छूटने की खुशी में नहीं बल्कि इसलिए कि यह अब तक मेरे घर-परिवार की एक खास सदस्य थी। मैं इसका ऋणी हूं। अब यह हमसे अलग रहने जा रही है। मैं अपनी हस्ती के मुताबिक इसे यह पचास हजार रुपए का बैंक ड्राफ्ट उपहार में देने का इच्छुक हूं। इसे यह अपनी मर्जी से खर्च करने की हकदार है। यह अदालत के फैसले में भी लिख दिया जाए। अब शालिनी मेरी ओर से हर बंधन से मुक्त है। कभी कोई कमी महसूस होने पर मेरे पास किसी भी समय आ सकती है। मैं इसके पिता के समान हूं। इसके लिए मेरे घर का दरवाजा हमेशा खुला रहेगा। यह कहकर राघव बाबू सबके सामने ही फफककर रो पड़े और फिर सिर नीचे करके आंसू पोंछते हुए कमरे से बाहर आ गए।

यह देखकर शालिनी का हृदय द्रवित हो उठा। उसका पाषाणवत कलेजा पिघल गया। वह आत्मग्लानि से भर गई। कलेजा कचोटने लगा। वह बड़ी आहत हो गई। तुरंत श्याम बाबू के कंधे पर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसे बड़ा अपराधबोध का अहसास हुआ। उसका अंतस्तल कमजोर पड़ गया। भूल का अहसास होते ही वह बिलखते हुए राघव बाबू के चरणों पर गिर पड़ी और बोली- बाबू जी, मुझे आज अपनी करनी की सजा मिल गई। अपना ड्राफ्ट अपने पास ही रखिए। बस, क्षमादान देकर मेरा उद्धार कर दीजिए। आज मेरी आंखें खुल गईं। उन पर अब तक पर्दा पड़ा हुआ था।

यह सुनते ही राघव बाबू हंस पड़े और बोले-अरे पगली, तू तो मेरी लाड़ली है। मैंने तुमसे कहा था न, कि एक दिन ऐसा ही होगा। वह आज हो गया। हां, यह तो बता दो कि अब तो कोई गड़बड़ न होगी? शालिनी सिर झुकाकर बोली- बाबू जी, अब फिर कभी भूलकर भी नहीं। ज्ञान का उदय होते ही चिड़िया घोंसले में फिर चहचहाने लगी। तोमर जी की समझदारी से उनका घर उजड़ने से बच गया। यह देखकर श्याम बाबू की बूढ़ी आंखों में चमक आ गई। उनके नेत्रों से प्रसन्नता के आंसू छलकने लगे। वह राघव बाबू के गले लगकर बोले-क्या मुझे क्षमा नही करेंगे ?"भाई साहब, अब इसकी कोई जरूरत नहीं। आप हमारे भाई समान समधी जो ठहरे।"

तब तोमर बाबू बोले-


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