तलवार की धार
तलवार की धार
सुरेश को नौकरी लगते समय पता चला कि स्टेट बैंक की नौकरी में यात्रा अवकाश सुविधा के अंतर्गत हर दो या चार साल में एक बार भारत में तय दूरी तक कहीं भी घोषित स्थान पर घूमने के लिए जाने-आने का रेल किराया मिलता है। सुरेश को किताब पढ़ने और पर्यटन का शौक़ बचपन से था। उसने जब होश सम्भाला तो बुजुर्गों को रामायण, गीता, महाभारत पढ़ते देखकर सोचता था कि यदि इन्होंने बचपन या जवानी में इन शास्त्रों को पढ़ा होता तो इनके जीवन में काम आते। उसने राममंदिर के पंडित जी से रामायण, गीता, महाभारत लेकर पढ़ी तो उसे हिंदू धर्म की आस्तिक अवधारणा और भक्ति साधना के ज्ञान से अधिक उनकी कहानियों की रोचकता और दार्शनिकता से पैदा होती आध्यात्मिकता पसंद आई।
उसने तय किया कि यात्रा अवकाश सुविधा का उपयोग भक्ति-ज्ञान, योग-साधना और ध्यान की जानकारी वर्तमान सिद्ध संस्थाओं से सीधे प्राप्त करने में करेगा। उसने पहले योग विद्यालय मुंगेर
जाकर पंद्रह द्विवसीय पतंजलि योग शिविर में योग सीखा उसके बाद सात दिवसीय शिविर हेतु पांडीचेरी स्थित स्वामी अरविंद के दार्शनिक आश्रम में गया।
अंत में ध्यान के दस दिवसीय शिविर हेतु विश्व विपसना केंद्र इगतपुरी गया।
अरविंद आश्रम पांडीचेरी में उसे एक विलक्षण व्यक्ति के दर्शन हुए। वे सुबह पाँच बजे उठकर दो कमरों की सफ़ाई करते, व्यायाम करते, ध्यान करते और किताबों का अध्ययन करके छः बजे समुन्दर किनारे घूमने निकल जाते। उनके चेहरे की चमक और विद्वता से प्रभावित होकर सुरेश उनके पीछे हो लिया। उन्होंने एक बार मुड़कर देखा कि कोई पीछा कर रहा है। वे थोड़े आगे चलकर रुक गए। सुरेश से पूछा क्या चाहते हो। सुरेश उस समय आश्रम द्वारा अहंकार विषय पर एक छोटी पुस्तक पढ़ रहा था। उसने कहा, अहंकार के विषय में जानना चाहता हूँ। उन्होंने पूछा तुम अहंकार के बारे में क्या जानते हो।
सुरेश ने कहा, “अहंकार दूसरों से श्रेष्ठ होने का दृढ़ भाव है।”
उन्होंने कहा “स्थूल उत्तर है, परन्तु ठीक है, यहीं से आगे बढ़ते हैं। जब बच्चे को बताया जाता है कि वह दूसरों से अधिक ज्ञानी है, सुंदर है, बलवान है, गोरा है, ऊँचा है, ताकतवर है, धनी है, विद्वान है, इसलिए दूसरों से श्रेष्ठ है। यहीं अहंकार का बीज व्यक्तित्व के धरातल पर अंकुरित होता है। आदमी के मस्तिष्क में रोपित श्रेष्ठताओं का अहम प्रत्येक सफलता से पुष्ट होता जाता है। अहंकार श्रेष्ठता के ऐसे कई अहमों का समुच्चय है। अहंकार स्थायी भाव एवं अकड़ संचारी भाव है। जब अकारण श्रेष्ठता के कीड़े दिमाग़ में घनघनाते हैं तब जो बाहर प्रकट होता है, वह घमंड होता है, क्रोध उसका प्रकटिकरण है।”
<
/p>
उन्होंने कहा “अहंकार व्यक्ति के निर्माण के लिए आवश्यक होता है। अहंकार को शासक का आभूषण कहा गया है। उम्र के चौथे दौर में निर्माण से निर्वाण की यात्रा में अहंकार भाव का तिरोहित होना अनिवार्य है। तब तक आसमान का सूर्य दमक कर सर पर चढ़ने लगा था। वे आश्रम लौट आए।
सुरेश उस दिन शाम को भी समुंदर किनारे पहुँचा कि शायद वे सज्जन मिल जाएँ तो कुछ और ज्ञान मिले, लेकिन वे नहीं दिखे। वह पश्चिम में डूबते सूर्य के मंद पड़ते प्रतिबिम्ब को सागर की लहरों पर झिलमिलाता देखता हुआ सोच रहा था।
अहंकार आभूषण कब है? राम का विवेक सम्मत परिमित अहंकार जब वे इसी समुंदर को सूखा डालने की चेतावनी देते हैं:-
“विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत,
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीत।”
दूसरी तरफ़ रावण का अविवेकी अपरिमित अहंकार है, जो दूसरे की पत्नी को बलात उठा लाकर भोग हेतु प्रपंच रचता है। वहाँ अहंकार और वासना मिल गए हैं, जो मनुष्य को अविवेकी क्रोधाग्नि में बदलकर मूढ़ता की स्थिति में पहुँचा उसका यश, धन, यौवन, जीवन सबकुछ हर लेता हैं।
सोचते-सोचते सुरेश को पता ही न चला, तब तक समुंदर की लहरों पर साँझ अपना साया फैला चुकी थी। साँझ की लहरों का मधुर स्वर रात के डरावने कोलाहल में बदलने लगा था। वह आश्रम लौट आया।
अगले दिन सुरेश फिर उनके पीछे हो लिया। उन्होंने सुरेश से परिचय पूछा। सुरेश ने गर्व से कहा की वह स्टेट बैंक में क्लर्क है। उन्होंने उसे ध्यान से देखा। सुरेश ने उनसे उनका नाम पूछा तो वे ख़ामोश रहे। फिर अहंकार के तिरोहित करने पर उन्होंने कहा:- “आपका व्यक्तित्व मकान की तरह सफलता की एक-एक ईंट से खड़ा होता है। एक बार मकान बन गया फिर ईंटों की ज़रूरत नहीं रहती। क्या बने हुए भव्य भवन पर ईंटों का ढेर लगाना विवेक सम्मत है। यदि आपको अहंकार भाव से मुक्त होना है तो विद्वता, अमीरी, जाति, धर्म, रंग, पद, प्रतिष्ठा की ईंटों को सजगता पूर्वक ध्यान क्रिया से निकालना होगा। यही निर्माण से निर्वाण की यात्रा है।” सुरेश ने उनसे परिचय जानना चाहा परंतु वे फिर मौन रहे।
सात दिन का शिविर पूरा होने पर आठवें दिन सुरेश को ग्रांड ट्रंक एक्सप्रेस पकड़ने हेतु पांडीचेरी से बस द्वारा चेन्नई पहुँचना था। वह आश्रम के गेट पर बैग लेकर खड़ा था तभी वे सज्जन वहाँ आए, सुरेश से कहा “मैं आर.के.तलवार हूँ।” सुरेश भौंचक होकर उन्हें नम आँखों से अवाक देखता रहा। काँपते हाथों से उनके चरण छूकर प्रणाम किया, तब तक आटो आ गया, सुरेश उस चेहरे को जहाँ तक दिखा, देखता रहा। अंत में वह चेहरा धुँधला होकर क्षितिज में विलीन हो गया।