स्वजातिदुर्तिक्रमा
स्वजातिदुर्तिक्रमा
कहानी पंचतंत्र की है लेकिन मैं इसे हास्य-व्यंग्य में प्रस्तुत कर रहा हूं। उम्मीद है कि आपको यह कहानी पसंद आएगी।
बहुत पुराने जमाने की बात है। एक बहुत बड़े ऋषि रहते थे। वैसे एक राज की बात बताऊं, अब ऋषि नहीं "बाबा" रहते हैं जैसे आशाराम, राम रहीम वगैरह। लेकिन पहले ऋषि हुआ करते थे। वे सत्संगी थे, ज्ञानी थे, चरित्रवान थे और सबसे बड़ी बात कि उनका कनैक्शन सीधा भगवान से था। वे जब चाहते किसी भी भगवान को याद करते और भगवान को हाजिर होना पड़ता था। जैसे आजकल कोई छोटी से छोटी कोर्ट भी मुख्य सचिव या पुलिस महानिदेशक को याद करती है और उन "बेचारों" को दौड़े दौड़े आना पड़ता है।
उसी प्रकार यहां ऋषि याज्ञवल्क्य थे। बहुत विद्वान और बहुत बड़े ऋषि। यहां पर बड़े ऋषि का मतलब है ऐसे ऋषि कि वे जिनको बुलाएं वे तुरंत उसी अवस्था में दौड़े चले आयें। जो जितनी जल्दी बुला सकता था वह उतना ही बड़ा ऋषि कहलाता था। महर्षि याज्ञवल्क्य भी उसी श्रेणी के ऋषि थे।
वे एक दिन एक नदी में स्नान कर अपने आराध्य सूर्य देव को "अर्क" दे रहे थे। रोजाना देवताओं की पूजा अर्चना इसलिए करनी पड़ती होगी कि जो जो शक्तियां उन्होंने हासिल कर ली थीं वे कम से कम बरकरार रहें। यदि हो सके तो उनमें इजाफा भी हो।
तो वे अर्क दे रहे थे कि इतने में उनके ऊपर से एक बाज जा रहा था। उसने अपने पंजों में एक चुहिया को ऐसे दबा रखा था जैसे किसी बड़े इंजीनियर ने किसी छोटे से ठेकेदार को दबा रखा होता है। अचानक बाज की पकड़ कुछ ढीली हुई और वह चुहिया सीधे ऋषि याज्ञवल्क्य जी के खुले हुए हाथों में आकर गिरी। ऋषि चौंके और ऊपर देखा। वे समझ गए कि बाज के हाथों से शिकार छूट गया है। वे समझ गए कि शिकारी मात खा गया और शिकार बच निकला। उन्होंने उस नन्हीं सी चुहिया को देखा। छोटे बच्चे सब अच्छे लगते हैं वे चाहे किसी के भी हों। यहां तक कि सूअर के बच्चे भी अच्छे लगते हैं।
ऋषि चूंकि बहुत बड़े थे और उनका दिल भी बहुत बड़ा था इसलिए उन्होंने उस चुहिया का "उद्धार" करने का सोचा। उनके ध्यान में आया कि उनके कोई बच्चा नहीं है इसलिए यदि इस चुहिया को लड़की बना दिया जाए तो इसका उद्धार भी हो जाएगा और उन्हें एक "कन्या" भी मिल जाएगी। एक बार तो वे वहीं पर ही उसे कन्या बना रहे थे लेकिन उन्हें याद आया कि जब पत्नी पूछेंगी कि यह किसकी पुत्री है तो वे क्या जवाब देंगे ?
एक बात तो सिद्ध हो गई कि आदमी अपनी बीवी से अब कलयुग में ही नहीं डरता है अपितु "सतयुग" से डरता आ रहा है। उन्होंने सोचा कि अगर मैं इसको यहीं पर लड़की बना दूंगा तो बीवी अनावश्यक "शक" करेगी कि मेरे "तार" कहां कहां तक "भिड़े" हुए हैं ? इस शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था इसलिए यह रिस्क लेना ठीक नहीं है।
अतः वे चुहिया को अपने साथ ले आए। घर पर स्वभावतः पत्नी ने चुहिया के बारे में पूछा तो उन्होंने सारा वृत्तांत कह सुनाया और पूछा "अगर आप सहमति दो तो मैं इसे कन्या बना सकता हूं। फिर तुम पाल पोस लेना"।
अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें ? उनकी पत्नी को सुझाव पसंद आया और अपनी सहमति दे दी। ऋषि ने अपनी तपस्या के बल पर ऐसा कर दिया। काश कि मेरे पास ऐसी कोई शक्ति होती तो मैं छोटी बच्चियों को इतना ताकतवर कर देता कि कोई दुष्कर्मी उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखता।
अब वह कन्या ऋषि आश्रम में बड़ी होने लगी। चूंकि तपस्या से वह कन्या बनी थी तो जिस तरह "तपस्या का परिणाम" खूबसूरत होता है, तो वह कन्या चूंकि तपस्या से कन्या बनी थी इसलिए बहुत खूबसूरत थी।
उस जमाने में कन्या के विवाह की आयु अधिकतम "रजोदर्शन" से पूर्व होती थी। अर्थात "मासिक" आने से पूर्व कन्या का विवाह "आवश्यक" रूप से हो जाना चाहिए अन्यथा "बड़ा भारी पाप" लगता था। शायद उन दिनों में "नारीवाद आंदोलन" चला नहीं था वरना इसे बाल विवाह करार देकर ऋषि याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी को जेल में डाल दिया जाता।
जब वह कन्या बड़ी हो गई और उस समय की प्रथा के अनुसार विवाह योग्य हो गई तो ऋषि पत्नी ने ऋषि को "आदेश" सुनाया कि कोई उत्तम वर खोजकर इसके हाथ "पीले" कर दो। आजकल की लड़कियां तो बराबरी की बात करतीं हैं। उनका कहना है कि बेटा बेटी एक समान हैं। इसलिए जो "भाव" बेटे को दिया जा रहा है, वही "भाव" उसे भी दिया जाये। यानी कि अगर उसके हाथ "पीले" किए जा रहे हैं तो वर के भी हाथ पीले किए जाएं।
आजकल नारीवादी संगठन एक योजना पर काम कर रहे हैं कि हमेशा लड़की के पैर ही "भारी" क्यों होते हैं ? यह तो पुरुष वादी मानसिकता है। नारीवादी संगठनों को पुरुषवादी सोच से भयंकर नफरत है इसलिए वे मांग उठाने की तैयारी कर रहे हैं कि ऐसा कानून बनना चाहिए कि एक बार स्त्री के और एक बार पुरुष के पैर "भारी" होने चाहिए।
इधर इस बात की भनक "भगवान" को लग गई कि भारत में नारीवादी संगठन ऐसी कोई मांग उठाने की तैयारी कर रहे हैं, तब से ही वे परेशान हैं कि इसकी व्यवस्था कैसे करेंगे ? उनको सबसे बड़ी समस्या इस देश की न्यायपालिका से है जो हर किसी जनहित याचिका के नाम पर मनमाना आदेश पारित कर देती है चाहे उसकी पालना किया जाना संभव हो या नहीं। इससे न्यायपालिका को कोई मतलब नहीं है कि वह आदेश ऐसा है कि स्वयं भगवान भी आ जाएं तो भी उस आदेश की पालना संभव नहीं है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ऐसा आदेश पारित किया था जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की थी कि कम से कम आदेश तो ऐसे दो जिनकी पालना संभव हो सके। उनका यह मानना है कि अब धरती पर वे ही "भगवान" हैं इसलिए वे जो भी चाहेंगे, आदेश दे सकते हैं। रही बात सरकार की। तो उसे जनता ने ही तो चुना है ? और जनता की परवाह कौन करता है ? जनता को सालों साल इन्साफ नहीं मिलता। किसे परवाह है ? जनता है ही पिसने के लिए। लेकिन अगर कोई एक भी आतंकवादी या देशद्रोही एक दिन भी जेल में बंद रह जाए तो न्यायपालिका का सिंहासन ऐसे डोल जाता है जैसे कभी इन्द्र का डोला करता था।
तो घर से आदेश हुआ "वर" की तलाश का तो ऋषि को सबसे पहले सूर्य देव ही नजर आए। सुनहरा रंग। तेजस्वी। दैदीप्यमान। और क्या चाहिए ? इनसे बढ़कर और कौन होगा ! उन्होंने सूर्यदेव का आह्वान किया।
एक बार कोर्ट के सम्मन को इग्नोर किया जा सकता है क्योंकि वहां बचाने के लिए वकील हैं। लेकिन यहां कोई नहीं है। इसलिए सूर्यदेव नंगे पांव दौड़े चले आये।
"क्या आज्ञा है प्रभु" ?
"ऋषि ने देखा कि सूर्यदेव नंगे पांव ही दौड़े चले आये हैं। उनके अहं को भरपूर संतुष्टि मिली। उनका अभी तक सिक्का चलता है। यह सोचकर मन ही मन फूले नहीं समाए। बोले
"मेरी इस पुत्री से विवाह कर लो"
सीधा आदेश। यह भी नहीं देखा कि सूर्यदेव पहले से विवाहित हैं या नहीं ? यदि विवाहित हैं तो यह विवाह कैसे मान्य होगा ? सूर्यदेव को भी कन्या पसंद है अथवा नहीं ? कुछ नहीं। आदेश हो गया सो हो गया।
सूर्यदेव असमंजस में पड़ गए। इतने बड़े ऋषि का आदेश सर्वोच्च न्यायालय के समकक्ष था। पालना नहीं करते तो मान हानि में जेल जाते। उन्होंने अपनी बुद्धि का प्रयोग किया।
"भगवन। आपके आदेश की पालना होगी। मगर एक बार "देवी जी" से भी पूछ लेते कि मैं उन्हें पसंद हूं या नहीं" ? और वे सिर झुका कर खड़े हो गए।
एक बार तो ऋषि ने सोचा कि कन्या क्या कहेगी ? मगर फिर भी पूछने में हर्ज ही क्या है ? पूछा तो कन्या ने कहा
"पिताजी, वैसे लड़का तो ठीक लग रहा है मगर "गर्म स्वभाव" का है। हमारी तो रोज ही लड़ाई हुआ करेगी इस कारण ? कौन आएगा वहां पर झगड़ा सुलझाने ? आपको तो तपस्या से ही फुर्सत नहीं है। बेचारी मां क्या क्या करेगी ? कोई और अच्छा सा लड़का देखिए ना।"
सूर्यदेव ने ऐसे सांसें लीं जैसे "जान बची तो लाखों पाए। लौट के बुद्धू घर को आए।"
ऋषि सोच में पड़ गए कि अब किसको बुलाएं ? जब कुछ समझ नहीं आया तो सूर्यदेव से ही सलाह ले ली
"तुमसे बड़ा और कौन है" ?
आज सूर्यदेव को मौका मिल गया अपनी दुश्मनी निकालने का। उन्होंने सोचा कि उनका दुश्मन नंबर एक "बादल" बहुत आवारा घूमता है। जब देखो मुझे छुपा लेता है अपने अंदर। आज उसका कल्याण करता हूं मैं।
जिस तरह ऑफिस में जब बॉस किसी सहकर्मी का नाम किसी काम के लिए पूछता है तो हम अक्सर उसका नाम बताते हैं जिसे "सबक" सिखाना होता है, उसी तरह सूर्यदेव ने "मेघ" का नाम ले दिया कि वह उससे भी अधिक शक्तिशाली है।
सूर्यदेव को "मुक्ति" मिल गई। अब बारी "मेघराज" की थी। मेघराज चंचला चपला "बिजली" के साथ "आंख मिचौली" खेलने में व्यस्त थे और मस्ती में डूबे हुए थे। अचानक ऋषि याज्ञवल्क्य का फरमान आया। "बिजली" की "कंपनी" कभी कभार तो मिलती है उसे कैसे छोड़ें ? ये दुनिया भी कितनी जालिम है। प्यार के बीच हमेशा दीवार बनकर खड़ी हो जाती है। लेकिन फरमान की अवज्ञा करने पर पता नहीं क्या दंड मिल जाए इसलिए "इश्क की पींगे" वहीं छोड़कर मेघराज दौड़े चले आए।
"आज्ञा मुनिवर" ?
"मेघराज, ये मेरी "जारज" कन्या है। आपको इसके साथ विवाह करना है" ? ( जारज का अर्थ है जो पत्नी की कोख से उत्पन्न नहीं हो )
मेघराज की आंखों के आगे अचानक अंधेरा छा गया। वह तो बिजली से पींगें बढ़ा रहा था। उनका इश्क परवान चढ़ रहा था। ये "कन्या" बीच में कहां आ गई ? सारा प्लान चौपट हो जाएगा ऐसे तो ? अब मैं "बिजली" को कैसे मुंह दिखाऊंगा" ? मन ही मन सोचने लगा। उसे भी एक उपाय सूझा। बोला
"आपकी आज्ञा शिरोधार्य है मुनिवर। मगर एक बार अपनी कन्या से भी पूछ लेते तो ठीक रहता ? वो क्या है कि आजकल मीडिया बहुत प्रभावशाली हो गया है। वह ऊल-जलूल रिपोर्ट चला देता है। कहीं ऐसा ना हो कि आप पर "पितृसत्तात्मक " होने का आरोप मढ़ दे और मुझ पर बलात विवाह करने का आरोप मढ़ दे। अतः कन्या की रजामंदी जान लेना सही होगा, मुनिवर"।
ऋषि को मेघराज की यह सलाह पसंद आ गई। उन्हें पता था कि आजकल मीडिया सभी "बाबाओं" को दुष्कर्मी, डकैत, लुटेरा बता रही है बिना उनका पक्ष सुने तो हो सकता है कि उनकी अब तक की सारी तपस्या पर एक मिनट में पानी फिर जाए। इसलिए उन्होंने कन्या से राय मांगी।
कन्या बहुत ही पिछड़ी सोच वाली और "रंगभेद में आस्था" रखने वाली निकली। भारत में अभी "रंगभेद" पर कानून नहीं बना वरना वह सीधे जेल जाती। कहने लगी
"छि : यह काला कलूटा मेरा पति बनेगा ? मैं इतनी गोरी चिट्टी और ये काजल जैसा काला ? आपको इसे बुलवाना ही नहीं चाहिए पिता श्री" ?
याज्ञवल्क्य ऋषि को अब महसूस हो रहा था कि वक्त कितना बदल गया है। अब तो "बच्चे" अपने मां बाप को आंखें दिखाने लगे हैं। हमारे जमाने में तो चूं तक करने की हिम्मत नहीं थी किसी की। पर क्या करें, समय के साथ चलना ही पड़ेगा।
उन्होंने मेघराज से पूछा कि तुमसे बड़ा और कौन है ?
मेघराज की बांछें खिल गई। मन ही मन सोचा "बिजली, हम बच गए। वरना हम सारी जिंदगी छुप छुप कर मिलते। लेकिन अब छुपने की कोई जरूरत नहीं होगी। मेघराज ने अपने भावों पर एक अभिनेता की तरह नियंत्रण करते हुए अपने दुश्मन "पवन देव" का नाम सुझा दिया।
ऋषि ने पवन देव को बुलवाया। पवन देव सिंगापुर में "मसाज" करा रहे थे। वे कहीं भी चले जाते बिना बताए। ये उनकी आदत थी। कभी कहीं तो कभी कहीं। कभी कभी नानी के घर भी चले जाते थे लेकिन छुप छुप कर। ये आज तक समझ नहीं आया कि वे छुप कर क्यों जाते हैं ? एक बार तो पवन देव को चीनी दूतावास में भी देखा गया था। बहुत बवाल मचा था पर पवन देव ने आज तक किसी सवाल का जवाब नहीं दिया लेकिन वे हर दूसरे दिन ट्विटर के माध्यम से सवाल जरूर पूछ लेते थे।
फरमान आने पर मसाज छोड़ छाड़ कर भागे चले आए। सामने कन्या देखकर बहुत खुश हुए। रंगीले स्वभाव के तो थे ही। उन्होंने अपनी एक आंख चला दी, जैसी की उनकी आदत थी।
कन्या बिदक गई। बोली
"पिता श्री। थोड़ा सा तो देखा करो। ये बूढ़ा आदमी आपको "युवा" कहां से लग रहा है। इसके चेले चपाटे इसको खुश रखने के लिए इसे "युवा" कहते हैं लेकिन है तो एकदम बूढ़ा। और चंचल कितना है ? आते ही आंखें चलाने लगा। कोई और बुलाइए"
याज्ञवल्क्य ऋषि ने पवन देव से पूछा तो पवन देव ने हिमाचल पर्वत का नाम ले दिया। हिमालय को बुलाया गया।
हिमालय को देखकर वह कन्या बोली
"पिता श्री। एक तो पुरुष वैसे ही कठोर हृदय के निर्दयी, निष्ठुर, अत्याचारी होते हैं और ये तो पूरे के पूरे पाषाण हैं। मेरा कोमल हृदय तो वैसे ही कुचल जाएगा। कोई और"
अब ऋषि भी अपनी "औलाद" की फरमाइशों से तंग आ गए थे। धनाढ्य, प्रतिष्ठित और सत्तासीन लोगों की संतानें ऐसी जिद्दी, अवज्ञाकारी और घमंडी होती हैं कि मां बाप भी उससे तंग आकर पीछा छुड़ाने की सोचते हैं। अब ऋषि ने भी यही सोचा कि इससे कैसे पीछा छूटे ?
उन्होंने हिमालय से और श्रेष्ठ वर पूछा तो हिमालय ने कहा
"मुनिवर, चूहा मुझसे भी अधिक ताकतवर है। वह मुझ जैसे पाषाण हृदय में भी "बिल" बना लेता है इसलिए वह मुझसे श्रेष्ठ है"।
मुनिवर ने चूहे का आह्वान किया। चूहा "चूं चूं" करता तुरंत आ गया। उसे देखकर ऋषि चौंक गए। अरे, जब एक से बढ़कर एक वर इसे पसंद नहीं आए तो यह चूहा इसे कैसे पसंद आएगा ? वे मन ही मन सोचने लगे।
लेकिन एक देसी कहावत है कि "सुंगाड़ भैंस खाबड़ा में लोटै"। मतलब वो भैंस जो ज्यादा सूंघ सूंघ कर पानी पीती है और बहुत नखरे करती है उसे "कीचड़ वाला पानी का गड्ढा" जिसे "खाबड़ा" कहते हैं, मैं घंटों लोट लगाती है। ये कन्या भी वैसी ही "सुंगाड़" निकली। वह उस चूहे पर "लट्टू" हो गई। तब ऋषि याज्ञवल्क्य को ध्यान आया कि यह कन्या असल में तो एक "चुहिया" ही थी इसलिए इसे तो चूहा ही पसंद आना था।
अब ऋषि को विश्वास हो गया कि लोग अपनी "प्रकृति और प्रवृत्ति" के हिसाब से ही व्यवहार करते हैं। उस प्रकृति और प्रवृत्ति को छोड़ नहीं सकते, चाहे कुछ भी हो।
इस प्रकार ऋषि याज्ञवल्क्य ने उस कन्या को फिर से चुहिया बना दिया और दोनों का विवाह कर दिया।
