स्वावलम्बन
स्वावलम्बन
रामनाथ जी अपने परिवार में बड़े खुश थे। आज के समय के हिसाब से एक आदर्श परिवार था। परिवार में वह खुद उनका बेटा सुयश बहू सुरभी और एक कक्षा छह में पढ़ने वाला पोता राजन। बस इन्ही चार जनो का सुखी परिवार था। रामनाथ जी स्वयं एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे और इतना समझ चुके थे कि नौकरी के साथ कमाया जा सकता है खाया जा सकता है किन्तु बचाया नहीं जा सकता।
इसका स्पष्ट प्रमाण यह था कि वह रिटायरमेंट के मिले पैसों से एक अच्छा घर भी नहीं ख़रीद सकते थे। यही कारण था कि उन्होंने अपनी सर्विस के रहते सुयश को कोई छोटा मोटा बिजिनेस करने की सलाह दी थी। सुयश ने भी पिता की सलाह को गंभीरता से लिया और प्लास्टिक के सामान की एक छोटी सी दुकान खोल ली। आज दस साल बाद सुयश प्लास्टिक इस क्षेत्र की जानी मानी दुकान बन चुकी है। इससे लाख डेढ़ लाख रुपये महीने की आमदनी हो जाती है। बहू भी आज्ञाकारी व सुशील है।
पोता राजन अपने दादा के साथ ही सोता है। रोज रात को उसको कहानियां सुनने की आदत ही। रामनाथ जी भी उसे ऐसी कहानियां सुनाते हैं जो मनोरंजन के साथ साथ शिक्षा व संस्कार भी देती थी। यही कारण था कि राजन किसी भी विषय पर पर्याप्त गहराई से जानता था। चाहे वह रामायण का पात्र हो या महाभारत का या टाटा, बिरला या अम्बानी सभी के विषय व संघर्ष के बारे में राजन उसकी उम्र के हिसाब से पर्याप्त जानकारी रखता था।
ऐसे ही एक रात रामनाथ जी राजन को एक विदेशी कहानी सुना रहे थे जिसका सारांश यह था कि उस देश में बच्चे समझने की उम्र से कुछ ना कुछ ऐसा करना प्रारम्भ कर देते है जिससे उनके माता पिता को आर्थिक मदद हो सके। यहां पर प्रश्न यह नहीं उठता की बच्चा कितने सम्पन्न परिवार से सम्बन्ध रखता है बल्कि बच्चा स्वयं अपने को स्थापित करने की कोशिश करता है। और यही कारण है कि वहां के लोग पारिवारिक या सरकारी सहायता के बिना अपना अस्तित्व बनाते है। अपनी पढ़ाई लिखाई का ख़र्चा भी खुद उठाते है।
यह कहानी राजन के मन पर गहरा प्रभाव डाल रही थी। वह भी ऐसा ही कुछ करने की सोच रहा था। उसने अपने दादाजी से पूछा "तब हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं होता।"
"हमारे संस्कारों में ममता का प्रतिशत बहुत अधिक होता है। इसी कारण हम किसी बच्चे को यह सोच कर काम नहीं करने देते की अभी उसकी उम्र नहीं है यह काम करने की। और कई बार यही सोच बच्चे को निष्क्रिय बना देती है। और यही कारण है कि अवसर आने पर ऐसे बच्चे अपनी क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं तथा दूसरे देशों की तुलना में पिछड़ जाते हैं।" दादाजी ने समझाया।
"क्या मैं अभी से काम कर सकता हूं" राजन ने उत्सुकता से पूछा।
"हां,हां बिलकुल कर सकते हो।" दादाजी बोले।
"मैं क्या करुं?" राजन ने दादाजी से पूछा।
"तुम अपने आस पास देखो और सोचो की तुम क्या कर सकते हो। "रामनाथ जी ने कहा।
राजन सो गया। किन्तु उसके दिमाग में रामनाथ जी की बातें घूम रही थी। विदेशों में बच्चे छोटी उम्र से काम करना प्रारम्भ कर देते है तो उनकी झिझक टूट जाती है। उनके लिये कोई सा भी काम छोटा नहीं होता। यही आदत आगे चल कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में मदद करती है। किन्तु इसका उलटा हमारे यहां होता है माता पिता अपनी प्रतिष्ठा की ख़ातिर बच्चों को कोई काम नहीं करने देते तथा मात्र शिक्षा पर ध्यान देने को कहते है। किन्तु तक जब वह बच्चा शिक्षित होता है तब तक उसमें झिझक नाम का पौधा अंकुरित हो चुका होता है और वह छोटे मोटे काम करने में झिझक ने लगता है और युवा बेरोजगारी का एक कारण इस तरह की झिझक भी है। राजन अभी से कुछ करना चाहता था।
राजन रोज शाम को अपने दादाजी के साथ पार्क जाया करता था। जो की घर से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर था। पार्क के पास चौराहे पर ही एक अण्डे की दुकान थी जहां काफी सारे अण्डे रखे रहते थे। उसने दादाजी से पूछा "दादाजी यहां इतने अण्डे क्यों रखे रहते हैं ?"
"यहां अण्डों का थोक व्यापार होता है। मतलब यहां से ख़रीद कर छोटे बेचने वाले बाज़ार में अण्डे बेचते है। उन्हें यहां से अण्डे कम दाम में मिल जाते है। "दादाजी ने उसे समझाया।
"तब तो हमें घर के लिये भी यहीं से लेने चाहिये। "राजन बोला।
"परन्तु वह एक निर्धारित मात्रा से कम अण्डे नहीं दे सकता। "रामनाथ जी ने उसे समझाया।
"उससे पूछिए ना वह कम से कम कितने अण्डे दे सकता है?" राजन ने कहा।
राजन के आग्रह पर रामनाथ जी उस दुकान पर चले गये। दुकानदार ने बताया की वह कम से कम एक ट्रे अर्थात छत्तीस अण्डे खरीदने पर ही थोक के भाव अण्डे दे सकता है।
राजन ने हिसाब लगाया तो पाया की अगर यहां से अण्डे ख़रीदे जाये तो प्रति अण्डे पर साठ पैसे बच जायेंगे। क्यों ना अण्डो का व्यवसाय ही किया जाय। उसने दादाजी से अपने दिमाग की बात शेयर की। और कहा मैं आप लोगों को बाजार भाव से अण्डे घर पर दूँगा।
दादाजी ने कहा "चूंकि तुम स्वावलम्बी बनना चाहते हो इसलिये मैं तुम्हारी मदद करुंगा। मैं तुम्हें एक ट्रे अण्डे ले कर दूँगा। "रामनाथ जी मन ही मन सोच रहे थे जैसे ही राजन का शौक पूरा होगा वह खुद ही यह काम बन्द कर देगा।
किन्तु राजन ने दादाजी से मदद लेने से इंकार कर दिया। र घर आकर अपने पिग्गी बैंक (गुल्लक ) को खोल कर पैसे निकाले। इतने पैसे थे कि वह आसानी से एक ट्रे अण्डे ख़रीद सकता था। दूसरे दिन दादाजी के साथ जा कर एक ट्रे अण्डे ले आया। और अपनी मम्मी से बोला "अब आप बाजार से अण्डे न लाया करो। मैं आपको बाजार भाव से अण्डे घर पर ही दूंगा। "
सुरभी उसकी तरफ आश्चर्य से देखने लगी। उसे दादा पोते के बीच हुई बात का कुछ अनुमान ही नहीं था। फिर वह हलके से मुस्कुरा दी।
यही बात राजन ने सुयश से भी कही तो राजन उसे प्रोत्साहित करते हुए बोला "बधाई राजन, हम तुम्हारे इस बिजनेस में पूरी मदद करेंगे। हम तुमसे प्रत्येक अण्डा एक रूपया अधिक दे कर खरीदेंगे। "
"यह सब क्या चल रहा है? इतना छोटा बच्चा और इस तरह की बातें। कहीं वह पैसों के चक्कर में अपनी शिक्षा में ना पिछड़ जाय। "सुरभी चिंतित स्वर में बोली। "सुरभी, इंसान की शिक्षा का अंतिम लक्ष्य पैसा कमाना ही है और यदि राजन अपने लक्ष्य की तरफ अभी से कदम बढ़ा रहा है तो उसमे बुराई क्या है। "सुयश सुरभी को समझाता हुआ बोला।
सुयश अपने पिताजी को अच्छे से जानता था। यह भी जानता था कि पिताजी कभी भी कोई गलत शिक्षा नहीं देंगे। उसे पता था पिता जी की यह शिक्षा अगर असर कर गई तो राजन जीवन भर पीछे मुड़ कर नहीं देखेगा। अन्यथा हम तो है ही उसे संभालने के लिये।
धीरे धीरे राजन ने अपने साथियों को अपने बिजनेस के बारे में बताया। कई साथियों ने उसकी हंसी उड़ाई परन्तु कईयों ने उससे अण्डे लेना प्रारम्भ कर दिया। उसकी पहली ट्रे चार दिनों में बिकी। किन्तु धीरे धीरे उसकी रफ़्तार बढ़ने लगी। कक्षा आठ तक आते आते वह लगभग एक ट्रे रोज बेचने लगा था। लगभग सात आठ सौ रुपये प्रतिमाह कमाने लगा था।
राजन चाहता था कक्षा नौ से अपनी फ़ीस व किताबों का खर्चा यूनिफार्म का ख़र्चा खुद उठाए परन्तु उस में पैसों की कमी पड़ सकती थी। अतः उसने दादाजी से बात की, की उसे अपनी आय बढ़ाने के लिये क्या करना चाहिये।
"अब तुम्हें अपने व्यापार को विस्तार देना चाहिये। "दादाजी गंभीरता से बोले क्योंकि वह उसकी लगन व धुन को जान चुके थे।
"मतलब मुझे अण्डों की दुकान खोलनी चाहिये?" राजन ने पूछा।
"नहीं तुम्हे अब इसके साथ कुछ दूसरा काम भी करना चाहिये ताकि प्रतिस्पर्द्धा की स्थिति में तुम कम से कम सामने वाले को टक्कर देने की स्थिति में रहो। एक ही प्रोडक्ट से चिपके रहोगे तो कभी भी मुश्किल में पड़ सकते हो। "दादाजी ने मार्केट का फंडा समझाया।
"दूसरा काम कौन सा दादाजी?"राजन ने उत्सुकता से पूछा।
"ऐसा काम जो तुम्हें औरों से अलग बनाऐं। "दादाजी ने कहा।
"जैसे ?" राजन ने उत्सुकता से पूछा।
"अच्छा बताओ तुम्हारी कक्षा में कितने बच्चे है?"दादाजी ने पूछा।
"चालीस"। राजन बोला।
"और प्रतिदिन कितने छात्र अनुपस्थित रहते हैं?"
"यहीं कोई पांच सात। "राजन ने उत्तर दिया।
"जो छात्र अनुपस्थित रहते है क्या उन्हें नोट्स आसानी से मिल जाते है?"दादाजी ने फिर पूछा।
"नहीं,नहीं मिल पाते हैं। कई कारणों से उन्हें नोट्स नहीं मिल पाते है। "राजन बोला।
"तब एक काम करो। अपने आस पास रहने वाले बच्चों से बात करो। उनसे उनकी पुरानी किताबें और नोट्स खरीद लो और उन्हें व्यवस्थित ढंग से करके रखो तथा जो बच्चे अनुपस्थित रहें उनसे साधारण कीमत ले कर यह नोट्स उन्हें दे सकते हो। यह बात तुम वर्तमान कक्षा और पिछली कक्षा के पूर्व विद्यार्थियों के नोट्स आसानी से ले कर कर सकते हो। इससे किसी बच्चे का नुकसान भी नहीं होगा और बच्चों को कम्पेरेटिव स्टडी के लिये अच्छे नोट्स भी मिलेंगे। तुम चाहो तो अपनी प्रिंसिपल से भी इस सन्दर्भ में बात कर सकते हो। " दादाजी ने योजना बताई।
राजन को दादाजी की बात जम गई। उसने अपने आस पास के सभी साथियों से बात करके नोट्स व किताबें ले ली। कुछ ने मुफ्त में तो कुछ ने साधारण सी कीमत ली।
राजन ने सभी नोट्स को दादाजी के निर्देशानुसार जमाया। धीरे धीरे राजन का यह बिजनेस भी अच्छा चल पड़ा। अण्डों का तो वह कर ही रहा था।
कॉलेज में आते आते उसने प्रोजेक्ट वर्क्स की भी लाइब्रेरी बना ली थी।
स्नातक होते होते उसने दादाजी के निर्देश पर लोन ले कर एक ऑफसेट प्रिंटिंग प्रेस डाल दी। और आज वह शहर के बड़े व्यवसायियों में गिना जाता है।
