सुरक्षा: समझ और सोंच
सुरक्षा: समझ और सोंच
हम जैसा सोचते और समझते हैं, हमारे भीतर वैसी ही क्षमताएं विकसित हो जाती हैं। हमारे आस-पास भी वैसा ही परिवेश तैयार हो जाता है। जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही बन जाता है। कारण स्पष्ट है कि व्यक्ति के जैसे विचार होंगे शनै-शनै उसका व्यवहार भी वैसा ही हो जाता है।
सुरक्षा के साथ भी यह बात सटीक बैठता है, यानी कि जब तक आप अपने कार्य से संबन्धित खतरों के बारे मे सोंचते है तब तक तो आप सतर्क रहते है, परंतु जैसे ही आपका ध्यान संबन्धित खतरे से हटता है, आप सतर्क नहीं रहते और इन्हीं क्षणों में दुर्घटना घटित हो जाती है।
आपको यह जानकार हैरानी होगी कि, ज़्यादातर गंभीर दुर्घटनाएँ ऐसे क्रियाकलापों से हुई है जिसमे कि तुलनात्मक रूप से ख़तरे कि संभावनाएं कम थी। इस संबंध में एक कहानी प्रचलित है कि:- दक्षिण भारत में एक गुरू थे जो की अपने शिष्यों को नारियल के पेड़ पर चढ़ना सिखाते थे। एक दिन वे एक नये शिष्य को प्रशिक्षित कर रहे थे। जब शिष्य चालीस पचास फीट ऊंचे नारियल पेड़ के शीर्ष से नारियल तोड़कर उतर रहा था और बमुश्किल जमीन से मात्र दस पंद्रह फीट की ऊंचाई पर होगा तभी गुरू ने आवाज़ लगाई, सावधान! ध्यान से उतरना । जब शिष्य नीचे जमीन पर उतर गया तब उसने गुरू से पूछा- गुरुदेव जब मैं पेड़ के शीर्ष पर था तब आपने मुझे सावधान नहीं किया जबकि तुलनात्मक रूप से खतरा ज्यादा थी, आपने तो तब सावधान किया जब मैं लगभग जमीन पर पहुँचने ही वाला था, ऐसा क्यूँ? गुरू बोले: प्रिय शिष्य, मुझे लोगों को प्रशिक्षित करते हुये लगभग पैतीस वर्ष हो गये, आजतक कभी कोई पेड़ के शीर्ष से नहीं गिरा, ज़्यादातर दुर्घटनाए तब हुयी जब लोग जमीन पर पहुँचने ही वाले थे।
कहने का तात्पर्य यह है कि खरतायुक्त कार्य के दौरान जबतक हमें यह पता होता है कि खतरा है तब तक हम जागृत रहते है, और जब तक हम जागृत है दुर्घटना कभी नहीं हो सकती, किन्तु जैसे ही हमे यह आभास होता है की अब खतरा नहीं अथवा कम है, वैसे ही हम सतर्कता खो देते है और दुर्घटना घटित हो जाती है।
औद्योगिक दुर्घटनाओं के बिश्लेषण में भी यह पाया गया है की श्रमिक ज़्यादातर भूलें तब करता है जबकी संबन्धित खतरा की संभावना कम थी। अतः हमें आपने कार्यस्थल पर ऐसे समय ज्यादा चौकन्ना रहने की जरूरत है जबकी ऐसा लगता हो की अब खतरा टल गया है।
