RAJESH KUMAR

Inspirational

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RAJESH KUMAR

Inspirational

सर्विस के 25 वर्ष

सर्विस के 25 वर्ष

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(किसी की भावनाओं को आहत करने का कोई भी मंतव्य नहींं। अगर जाने अनजाने से किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचे तो क्षमा प्रार्थी। लेकिन कुछ बातों को यदि ना लिखा जाए, तो कार्य स्थल के अनुभवों की अपूर्णता ही होगी, जो कि न्याय संगत नहीं होगी)

जन्म तिथि 14, जनवरी 1971, पढाई पूरी होने के बाद, पढ़ाई में सामान्य छात्र रहा था। सन 1993-94 मे नौकरी के लिये जगह जगह एग्जाम दे रहा था, जिसमे सबसे ज्यादा रेलवे की परीक्षा दी थी। लोको पायलट, परमानेंट वे मिस्री, जो भी वैकेंसी  मिलती थी अप्लाई कर देता था।

उस समय इलेक्ट्रॉनिक फील्ड ले कर गलती हुई, ये अब पता चला, इलेक्ट्रॉनिक्स ट्रेड का क्षत्र सीमित था, बेल( BEL), BARC, डील फैक्ट्री, ऑप्टो इलेक्ट्रॉनिक गिनी चुनी क्षेत्र थे। रेलवे मे तो यह स्थिति थी, एग्जाम दे कर भूल जाओ, 1 साल बहुत जल्दी समझीये।

कुछ जगह पर इंटरव्यू में बाहर हुवा, कुछ का एग्जाम क्लियर नहीं हुआ। समय भी ज्यादा नहीं हुआ था, परन्तु जॉब जरूर करना था, घर मे सबसे बड़ा भी था।

मेरे पूरे परिवार मे चाचा, ताऊ व ननिहाल रिश्तेदारी मे, कोई एक दो ही सरकारी नोकरी मे होंगे। नहीं तो सब  निम्न मध्यम वर्ग मे आते है, ज्यादातर खेतीबाड़ी का काम ही देखते है। अब ऐसा नहीं है, ज्यादातर युवा नौकरी सरकारी या प्राइवेट सिडकुल क्षत्र में काम करते है(ये बदलाव 20-25 सालों मे)। 

एक गलती जो मुझे समय गुजरने के बाद, अब लगती है कि मुझे प्रॉपर गाइडेंस नहींं मिला। नहींं तो मुझे एक 2 वर्ष तैयारी करके दूसरी जगह जाना था। संगठन को ज्वाइन नहींं करना था, पहले कहीं और प्रयास करने के बाद, यदि कहीं नहींं होता तब केंद्रीय विद्यालय संगठन की नौकरी ज्वाइन करनी थी। क्योंकि इस योग्यता के मेरे कुछ दोस्त इंजीनियर या अच्छे पदों पर है। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो कुछ भी नहीं बन पाए।

लेकिन ऐसा कभी नहींं होता कोई चीज अच्छी या बुरी होने के बाद ही पता चलती है। आज जो मेरी पहचान,   मेरा सम्मान है वह भी केंद्रीय विद्यालय संगठन की ही देन है।

बहुत से मेरे मित्र संगठन में मेरे साथ के प्राचार्य व असिस्टेंट कमिश्नर तक पहुंच गए हैं। लेकिन मेरी चॉइस ही गलत थी, गाइडेंस, मार्गदर्शन हमें पहले से होना चाहिए था।

एक छोटा भाई, उससे छोटी बहन। माता पिता, पाप भेल BHEL हरिद्वार मैं सुपरवाइज़र थे।  टर्बो जनरेटर वाइंडिंग सेक्शन मे, तकनीकी काम था।

 पिताजी बहुत मेहनती  थे,   पर वह ज्यादा ध्यान नहींं देते की बच्चे क्या कर रहे हैं। अपना फैक्ट्री में 8 घंटे जाना और फिर अपना गांव में खेती बाड़ी का काम देखना। मां चिंतित होती थी कि बेटा इतनी जगह एग्जाम देता है, कहीं उसका सिलेक्शन नहींं हो रहा है। आखिर मां है ना, , वह अब इस दुनिया में नहींं है।

स्कूल कॉलेज का सुनहरा दौर एकदम खत्म हो गया। बी एच ई एल  में इलेक्ट्रॉनिक्स फील्ड में डिप्लोमा होल्डर्स के लिए कोई स्थान नहींं था। वहां इंजिनियर्स ही भर्ती हो सकते थे। कुछ वर्षों बाद डिप्लोमा होल्डर्स के लिए वैकेंसी आई भी तो मै ओवर ऐज हो गया।

शादी के बाद कि जिमेदारी के बाद तो उस ओर सोचना ही छोड़ दिया, जो करना है, केवीएस मे रहकर करना है। लेकिन ऐसी परिस्थिति आज तक बनी नहीं, प्रमोशन का रास्ता आज तक नहीं खोला गया।

यह वह दौर था 1993 का समय उस समय प्राइवेट सेक्टर की शुरुआत कुछ-कुछ हो रही थी। अन्यथा सरकारी सेवाओं में ही अवसर थे। और एक यह मानसिकता बड़ी सुदृढ़ थी, कि अगर आप पढ़ रहे हैं तो किसी सरकारी सेवा में ही काम करेंगे। उसको उस समय मान सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इस समय भी कुछ ना कुछ स्थितियां ऐसी ही हैं। लेकिन बहुत सारी चीजें बदली भी है। इलेक्ट्रॉनिक्स में डिप्लोमा करना 92-93 में एक बहुत चैलेंजिंग काम था, क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक्स का उस समय शुरुआत हो रही थी। भले इस समय छोटी बात लगे। कंप्यूटर की शुरुआत भी उसी टाइम होना शुरू हुआ था नए कंप्यूटर आना शुरू हुए थे।  सुना जा रहा था कि कंप्यूटर में  तेजी से काम हो रहा है, और सब लोगों का रोजगार खा जाएगा। ये उस समय बड़ी बहस का विषय होता था।

खैर बहुत जगह प्रयास करने के बाद काफी जगह असफल रहने के बाद जल्दी सरकारी नौकरी प्राप्त करने की इच्छा। परिवार का दबाव के कारण जहां भी वैकेंसी निकलती थी, मैं भर देता था।

केंद्रीय विद्यालय संगठन में भी (एस यू पी डब्ल्यू )SUPW करके एक पद आया, जिसकी वैकेंसी काफी ज्यादा थी (53 जगह थी)। उस समय  मैंने दो जगह अप्लाई किया असाम रीजन में और देहरादून रीजन में।

दोनों जगह सिलेक्शन हुआ  लिखित परीक्षा, एग्जाम नहींं था मेरिट बेस से कॉल करना और फिर इंटरव्यू के नंबर मिलाकर कैंडिडेट को शॉर्टलिस्ट करना क्राइटेरिया था।  इस पद के लिए इंजीनियरिंग 4 वर्ष या डिप्लोमा 12 वीं के बाद व एक साल का एक्सपीरियंस या बीएसई electronics एक वर्ष अनुभव  होना आवश्यक होता है।

पांच छह महीने बाद जैसे ही कॉल लेटर आता है। तब जाकर जानने की कोशिश हुई कि जिसमे मेरा सलेक्शन हुआ वहां मेरा क्या काम है, मैं क्या करूंगा?

क्योंकि मेरी छोटी बहन भी सेंट्रल स्कूल में पढ़ती थी, मैंने उससे पूछा तो उसने बताया कि (एस यू पी डब्ल्यू) में सर प्रोजेक्ट कार्य कराते हैं, लड़कों से। इस सब्जेक्ट में महिला टीचर लड़कियों को, सिलाई, बुनाई, कढ़ाई या कुकिंग का काम सिखाती है। और जो जेंट्स टीचर हैं, वह लड़कों को बिजली का सर्किट बनाना बोर्ड बनाना और इससे संबंधित काम, मोमबत्ती, फिनाइल बनाना सिखाते हैं।

अब मेरा फिल्ड इलेक्ट्रॉनिक्स था तो मेरा वहां पर क्या काम होगा। फिर मैं के वी के कुछ टीचर से मिला।   उन सब ने, सबसे पहले बधाई दी और कहा कि सबसे आराम का पद आपका है। कुछ भी ज्यादा काम नहींं करना, आपके पास तो रेगुलर क्लासेस भी नहींं होंगी। विद्यालय की बिल्डिंग मेंटेनेंस से संबंधित काम आपकी देखरेख में होगा।

बस हां आपका इसमें आगे प्रमोशन नहींं होगा, आप ताउम्र इसी पद पर रहेंगे।

कुछ अनमने मन  से केंद्रीय विद्यालय मसूरी में 24 वर्ष की उम्र में ज्वाइन किया 16 अगस्त 1995 में। वहां से केवीएस की यात्रा शुरू हुई।

मेरे पहले प्रिंसिपल श्री डबराल जी, जो डोईवाला के रहने वाले थे बहुत ही सज्जन और इमानदार प्राचार्य में से थे। उन्होंने मुझे केवीएस में आपको कैसे रहना होगा, कुछ कुछ चीजें बताएं समझाएं।

क्योंकि मेरा मन बच्चों के बीच में ज्यादा लग नहींं रहा था और मेरे फील्ड का काम वहां पर नहींं था। मैंने उस समय दूसरी जगह भी प्रयास रखें लेकिन मेरे जो ट्रेड था, उसके अनुसार वैकेंसी बहुत कम आती थी। बीएचईएल में मेरे पिताजी होने के कारण भी मुझे भी वेटेज  मिलता, परंतु वहां इलेक्ट्रॉनिक्स का स्कोप नहींं था।

 जबकि इलेक्ट्रॉनिक्स ट्रेड के लिए सबसे हाईएस्ट  रैंक  के बच्चों को वह ट्रेड मिलती थी।

विद्यालय में पहला दिन क्योंकि मैं B.Ed नहींं था बच्चों के बीच में जाने का अनुभव नहींं था। और मैं सीधा अपना पढ़ाई के बाद नौकरी में आ गया था।

पहले दिन मुझे टाइम टेबल पकड़ा गया जिसमें कुछ नंबर्स 1 2 3 और क्लासेस लिखी थी। मैं  लंच के समय तक ऐसे ही बैठा रहा, फिर प्राचार्य जी ने बोला है कि आप कक्षा में नहींं गए, तो मैंने उनको बताया कि सर मुझे किसने बताया नहींं कि मुझे क्लास में जाना है। सर ने कहा आपको एक पर्ची दिया होगा, उसमें लिखा था। मैं सर इसमें मुझे समझ नहींं आया कि यह क्या है। 1 2 3   का मतलब क्या है, 1-2 का मतलब क्या है, तो जोर-जोर से हंसने लगे फिर उन्होंने, उनको बुलाया जिसने मुझे टाइम टेबल दिया था। उनको समझाया कि आपने उनको बताना चाहिए था, कि कैसे-कैसे कक्षा में जाना है।

 इन सब बातों के साथ में खट्टी मीठी यादों के सहारे  दिन, समय, महीने साल आगे बढ़ते रहे। मसूरी एक  बेहदखूब सूरत जगह है। धीरे-धीरे वहां पर मन रमने लगा, बच्चों से बातें हुई तो अच्छा लगने लगा।

श्रीमती सुशीला टीजीटी संस्कृत, श्री अरुण बिष्ट यूडीसी आर ओ देहरादून जी, श्री हरकेश यादव यूडीसी हेड क्वार्टर दिल्ली जी आदि आदि कुछ, अभी भी संपर्क में है।

और उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगता है।

वहां पर मेरे प्रिंसिपल पी सिंह प्राचार्य एक बहुत ही  प्रतिभाशाली प्रिंसिपल में से रहे, जो अभी भी हैं। सिंह साहब का हिंदी अंग्रेजी व बांग्ला भाषा में  बहुत अच्छा कमांड था । उनको कभी मैंने ऊंची आवाज में बात करते नहींं देखा। उन्होंने ही सबसे पहले मुझे स्टेज बोलने के लिए प्रोत्साहित किया था, सर तो मेरी शादी में हरिद्वार भी स्टाफ के साथ आये थे। मिस्टर अवस्थी, श्री अशोक शर्मा, श्री मेहरोत्रा जी कुछ समय प्रिंसिपल रहे। छोटा स्कूल होने के कारण जो कि आईटीबीपी परिसर में उस समय था। श्री मेहरोत्रा जी  प्रिंसिपल से मेरे संबंध शुरू में बहुत खराब रहे। और जब बाद में ठीक हुए तो सबसे अच्छे संबंध भी इन सर से ही रहे। जिन्होंने मुझे मेरे मेडिकल बिलों के लिए बताया, कि कैसे अपने बिलों को क्लेम करना है। क्योंकि उस समय मेरी पत्नी का इलाज देहरादून से चल रहा था। जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से रूचि लेकर मेरे हजारों रुपए का बिलों को पास कराया।

देखते ही देखते समय 6 साल गुजर गए और मेरा स्थानांतरण केंद्रीय विद्यालय मुरादाबाद कर दिया गया। और मुझे मुरादाबाद पोस्टिंग दिया गया। श्री एस डी अरोड़ा एक बहुत ही तेज तर्रार प्रिंसिपल्स में जाने जाते थे। और बहुत ही गुस्से वाले भी, उनका व्यवहार था। उन्होंने मुझे कसौटी पर परखा, कई बार डाटा भी, लेकिन एक उम्र का प्रभाव होता है। हम भी बहुत उस समय बातों को पलट कर तुरंत बोल देते थे। लेकिन सर ने दो-तीन महीने में देख लिया व्यवहार में जैसा भी हो, लेकिन अपने काम में हंड्रेड परसेंट राजेश जी देते हैं। वैं इस बात की प्रशंसा सबके सामने करते थे। वहां भी पहले विद्यालय रेलवे परिसर  में (डी आर एम ) आफिस जे पास, सिंगल सेक्शन स्कूल था। कुछ समय बाद वह विद्यालय तीन सेक्शन का हरथला रेलवे कॉलोनी में, केवीएस की अपने बिल्डिंग में मेरे सामने शिफ्ट हो गया। जहां पर मैंने अपना सरकारी आवास लिया, क्योंकि विद्यालय नया बना था, आवस खाली थे। और वहां से एक नए तरह का वर्क कल्चर शुरू हुआ।

क्योंकि मेरा पद एक सेक्सन स्कूल में भी एक है और 3-4 सेक्शन के स्कूल में भी एक ही है। और तीन सेक्शन स्कूल में काम बहुत ज्यादा था 50  कमरों की बिल्डिंग व पूरे परिसर का मेंटेनेंस बिजली पानी आदि रख रखाव और कक्षाएं तो अलग है ही। उन्ही सब कार्यों में पूरा समय व्यतीत हो जाता था।

 वहां का स्टाफ मैं कुछ अलग तरह की विशेषताएं थी। क्योंकि मुरादाबाद एक महानगर शहर है, जहां से में ट्रांसफर होकर आया था, मसूरी से वहां का परिवेश और वहां के परिवेश में जमीन आसमान का अंतर है। पहाड़ों में लोगों के पास समय रहता है, लेकिन महानगरों जैसे शहर में समय नहींं होता। आपको अपने तरीके से  समझना, रहना पड़ता है। श्री पहल सिंह जी पीआरटी टीचर, श्री ओम प्रकाश जी, मैडम नाहिद जमाल, गुप्ता जी (जो अब इनकम टैक्स ऑफिसर है) खान सर लाइब्रेरियन, श्री मित्तल जी, के एल किशोर जी से अच्छा दोस्ती रही और संपर्क में भी अभी तक है।

2007 में मुरादाबाद से मेरा स्थानांतरण गोचर के लिए डिस्प्लेसमेंट आधार पर कर दिया गया। अपने घर हरिद्वार के आसपास वहां मुझे जगह नहींं मिला अभी तक भी नहींं मिला, लेकिन नौकरी करनी है तो कुछ फायदे नुकसान तो होते ही हैं।

गोचर में जाकर फिर वही प्रवेश मुझे मसूरी वाला याद आया पहाड़ों का जो परिवेश होता है, वहां किसी तरह की आपाधापी नहींं होती। 

गोचर में स्थानांतरण के समय मेरी बड़ी बेटी उस समय 6 वर्ष की रही होगी एक छोटी बेटी 3 वर्ष की थी। मेरे गृह जनपद हरिद्वार से गोचर 200 किलोमीटर के आसपास है, लेकिन रास्ता ठीक नहींं होने के कारण समस्याएं होती थी। वहां पर कोई मेडिकल सुविधा नहींं थी। एक छोटा सा कस्बा है गोचर, चमोली जिले में।

वहां पर कहीं अच्छी मेरे मित्र बने जो संपर्क में है मुकेश, सोनाली, श्रुति, शशिकला यादव, विनोद भाई।  सब अब तो परिवार वाले, 1, 2 बच्चे सब के है।       

गोचर में कई कार्यवाहक प्राचार्य के अंडर में काम किया, जिनसे ज्यादातर संबंध अच्छे रहे और बीच-बीच में बिगड़े भी रहे।

एक प्रिंसिपल, , , से सम्बन्ध इतने खराब हुवे की उनके व मेरे बीच व आर ओ देहरादून तक पत्राचार होने लगा, मैंने वहां से पत्र को ड्राफ्ट करना सीखा, जी समय समय पर काम आता है।

 लेकिन उम्र व अनुभव ज्यादा होने के कारण कार्य व सामंजस्य  बनता रहा।

नई उम्र के शिक्षक शिक्षिकाएं जिन्होंने कार्यभार केवी गोचर में ग्रहण किया, उम्र कम  लेकिन अलग तरह की सोच ने उनसे बहुत कुछ सीखा, वे लोग आसपास की जगहों पर घूमना फिरना, बातचीत करना, मेल मिलाप, साथ खाना पीना पसंद करते थे। जिससे पहाड़ की नीरसता हावी नहीं हुई।

मैं और मेरा परिवार भी उन सब का हिस्सा बन गया, जिस कारण से वहां पर 8 साल से ज्यादा कैसे गुजरा, पता भी नहींं चला।

मुकेश जी(संगीत टीचर मेरठ, अब) ने इंटरनेट व कम्प्यूटर की बारीकियां सिखाया, जो अब तक काम आ रही है।

 व्यक्तिगत रूप से वे सब  मेरा बहुत सम्मान करते थे, जिनका मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूं।

डॉ सुकृति रायवानी जो कि गौचर के अंतिमवर्ष में गोचर में मेरी प्रिंसिपल थी। एक बहुत ही प्रतिभावान प्रिंसिपल में रही, जो कम बोलने और काम ज्यादा करने में विश्वास करती हैं।

2 वर्ष  पश्चात ही अपनी मेहनत के दम पर, मैडम असिस्टेंट कमिश्नर बन गई जो कि आजकल देहरादून में कार्यरत हैं। सबसे ज्यादा नंबर भी मैडम ने ही ए सी आर मे अब तक का दिया था।

2012 मे हमे एक पुत्र की प्राप्ति हुई, कुछ हिचकिचाहट के साथ प्रिंसिपल मैडम को मिठाई दी, डॉ सुकृती मैडम बहुत खुश हुई, की परिवार बडा ही होना चाहिये, शायद मेरा हौसला बढ़ाने को बोला।

मैंने इन गौचर के 8 सालों में वहां पर इग्नू से बीएड व पीजीडीसीए, एमए हिंदी की परीक्षाएं पास की।

 आखिरकार मेरा स्थानांतरण देहरादून 2015 में हो गया। हरिद्वार, ऋषिकेश रायवाला आसपास में जगह खाली ना होने के कारण देहरादून में एक दूसरे शिक्षक को डिस्प्लेस करने के बाद वह स्थान मुझे मिला, केंद्रीय विद्यालय बीरपुर में।

केंद्रीय विद्यालय बीरपुर में प्रथम दिन, मेरा परिचय यूडीसी  दीपिका बंसल मैम व प्रिंसिपल एच् एस शर्मा जी से हुआ। सर ने मुझे उस दिन ज्वाइन करने से मना कर दिया। अगले दिन मैंने स्कूल में अपनी ड्यूटी ज्वाइन किया। मेरी जगह कार्य कर रहे शिक्षक श्री मित्तल जी मेरे सामने रजिस्टर स्टॉक, हैंड ओवर टेक ओवर, के लिए ले आए।

राजधानी देहरादून में क्षेत्रीय कार्यालय के पास जितने भी केंद्रीय विद्यालय हैं, वहां पर कमोबेश कार्यानुभव शिक्षक की कुछ ऐसी ही स्थिति है। हैंड ओवर टेक ओवर करने में पूरा 1 दिन लग गया कुछ चीजें मिली कुछ नहींं मिली, कुछ एडजस्ट की गई। प्रिंसिपल सर ने उन रजिस्टर्स में साइन नहींं किए। और मित्तल जी को रिलीव कर दिया। 20 सालों में यह पहला मौका था, कि हैंड ओवर रजिस्टर के समय रजिस्टर में साइन ना किए गए हो। वो साइन बाद में ऑडिट से पहले हुवे। सर एक हस्ताक्षर के लिए घण्टों लगा देते थे, अपना तरीका था काम करने का। दूसरा क्या सोचता है, ये सोचना उनका काम नहीं था।

कुछ कुछ चीजें स्टाफ से धीरे-धीरे मालूम होने लगी, अपना अनुभव भी काम आया। मैं शांत रहकर सब चीजें, डांट खाते हुए भी करता रहा। मिस्टर शर्मा मेरे प्रिंसिपल, मेरे ऊपर हमेशा दबाव बनाकर काम कराते थे, मेंटेनेंस के कार्यों को लेकर।

2-3 शिक्षक शिक्षिकाएं  ? उनका नाम मैं नहींं बताऊंगा। विशेष रूप से इन 5-6 वर्षों में अलग तरह से इस विद्यालय में रहते थे, प्रिंसिपल के प्रभाव के कारण। मैं  कई बार  इस बात को इंगित कर चुका था, लेकिन कुछ भी बदलाव नहीं हुआ। वह इसलिए क्योंकि मेरे पास बहुत ज्यादा काम दिया हुआ है। ताकि कुछ कार्य उन टीचर्स को दिया जाय।

पता नहींं उनको मेरे बारे में क्या फीडबैक कहीं से मिला या उन्होंने  लिया। लेकिन यह बात आज मैं विश्वास से कह सकता हूं कि, मैंने उस समय समझदारी से परिपक्वता दिखाई। मैं उन सर से भिड़ा नहींं, कोई उल्टा सीधा पत्राचार क्षेत्रीय कार्यालय या अन्य जगह नहींं किया। शर्मा सर का प्रभाव भी क्षेत्रीय कार्यालय व संगठन में बहुत अच्छा था।

 8 साल दुर्गम स्थान में रहने के बाद मैं, घर आते ही कुछ ऐसा कर बैठता, तो मेरे परिवार के लिए मुश्किलें होने वाली थी।

व्यक्ति की परीक्षाएं कैसे-कैसे होती हैं यह भी जाना।

कुछ दोस्तों ने मुझे कहा भी कि यहां आकर आप भीगी बिल्ली बन गए? ये उन दोस्तों में से थे, जिन्होंने मेरे बारे में सारा फीडबैक प्रिंसिपल को पहले से ही दे दिया था, नकारात्मक रूप से।

Interpersonal relationships (पारस्परिक सम्बन्ध)  सम्बन्ध क्या सिर्फ कर्मचारियों की जिम्मेदारी है? मैंने एक बात और महसूस की, ज्यादा अच्छे सम्बन्ध होने पर ओर ज्यादा काम मिलता था। जबकि प्रिंसिपल से दूरी होने पर, कोई जबरदस्ती का काम नहीं मिल पाता था। क्योंकि वहाँ नियम की बात शुरू हो जाती है। ये बात केवल उन प्रिंसिपल के परिपेक्ष मे कह रहा हूँ, जो अपनी जिम्मेदारी भी दूसरे को दे देते है।

 समय बहुत कुछ सिखाता है? जब देश में ईमानदार आईएएस अफसर को नहींं बख्शा जाता तो, मैं इस पिक्चर में कहीं भी नहींं हूं। अतः मुझे अपना और अपने परिवार का हित भी देखना है। लेकिन मौन रह जाना भी उचित नहीं, बस तरीका बदलने की जरूरत होती है।

हो सकता हूँ मैं अभी भी गलत हूं, लेकिन अगर आप स्कूल हित में काम कर रहे ही, तो उस कर्मचारी को, कम से कम दो प्यार भरे शब्द, उसकी प्रंशसा जरूर होनी चाहिए। दिल मे रखने से कुछ नहीं होगा। जो लोग स्कूल हित में काम नहींं करते है, उनके लिए भी मैसेज दिया जाना जरूरी है।

ज्यादतर ऐसा ही करते हैं, जो नहीं करते अपने अधीनस्थ के साथ न्याय नहीं करते।

हो सकता है, प्रिंसीपल के पद की कुछ मजबूरी हो, लेकिन ये मजबूरी आप खराब व्यवहार से दुसरों को परेशान नहीं करना चाहिए।

केंद्रीय विद्यालय संगठन ने  मुझे संभागीय प्रोत्साहन पुरस्कार 2019 के लिए सम्मानित किया। जिसमें कुछ ना कुछ योगदान श्री एच एस शर्मा जी पूर्व  प्राचार्य वीरपुर व श्रीमती उमा एस चंद्रा प्राचार्य केवी बीरपुर, जो अभी कार्यरत हैं उनका रहा।

संभागीय पुरस्कार के लिए मैंने इससे पूर्व में कभी सोचा भी नहींं था। क्योंकि यह परंपरा बहुत वर्षों से जारी है, लेकिन मैंने इसको कभी भरा नहीं, ना ही कोशिश की।

सबसे पहले मेरे दिमाग में यह बात तब आई। जब मुझे प्रिंसिपल सर  ने कुछ अन्य  अध्यापक अध्यापिका  व प्रिंसिपल सर की इंसेंटिव अवार्ड की फाइल चेयरमैन सर के पास काउंटर साइन होने के लिए ले जाने को कहा।

तब सबसे पहले मैंने उसका प्रारूप देखा। उसमें क्या-क्या चीजें  भरनी होती। क्या-क्या चीजें मांगी गई हैं ? तो मुझे लगा कि मैं तो इन सबसे ज्यादा काम करता हूं, तो मैं क्यों नहींं? तब से मैं इसको 3 वर्षों से भरता रहा। जो मुझे 2019 में यह पुरस्कार नगद धनराशि ₹10000 व प्रशस्ति पत्र दिया गया।

अब तक की सबसे बड़ी सीख  मेरे नाना जी (स्वर्गीय मई दयाल) ने, नौकरी के संदर्भ में दी थी, कि अपने कार्यस्थल पर समय से जाना है, और समय से ही आना है, जबकि वह अनपढ़ थे।

जो इस क्षेत्र से जुड़े हुए लोग नहींं है।

मेरे इन सब लिखे हुए अनुभवों को कसौटी पर कसने के लिए, आपको केंद्रीय विद्यालय में (कार्यनुभव शिक्षक) के काम को और उनकी स्थिति को समझना होगा।


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