सफर ए नवाबी लखनऊ

सफर ए नवाबी लखनऊ

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बचपन में जब भी नाम सुना तो बस प्रदेश की राजधानी के तौर पर।

एक जोरदार दिल को दहला देने वाली आवाज़ फिर चारो तरफ रात के अंधेरे में खून की बारिश और सब कुछ खत्म।

खत्म हुआ एक नवाबी सफर और ऐसा खत्म हुआ कि उसकी याद आने पर भी रो जाते हैं ।

सबसे सुखद सफर व सबसे दुखद सफर ।

एक ही सफर को सिक्के के दोनों पहलुओं से पूरा किया है।

कहते हैं न कि शुरुआत जितनी अच्छी होती है उसके बाद अंत पीड़ादायक होने पर हम दुखों के उफान को जिंदगी भर रोक नही पाते।

14 सितम्बर 2018 रात्रि 9 बजे अलीगढ़ स्टेशन पर 3 भाई मित्र मुझे छोड़ने के लिए आये हुए थे, एक मित्र को टिकटोक वीडियो बनाने का शौक था, तब उसने मेरे अब तक के जीवन की पहली और अंतिम वीडियो बनाई थी। 

आज ब्रज और दिल्ली के बीच में पला और बड़ा हुआ लड़का पहली बार पूर्वांचल जा रहा था। सच कहूं तो पहले बहुत नफरत थी उनके नाम से खानपान से जैसा उनके बारे में किसी अभिनज्ञ से सुना था वैसा ही मान बैठे थे, 

प्लेटफॉर्म नंबर 2 पर रात्रि 9 बजकर 40 मिनट पर कैफियात एक्सप्रेस का आगमन हुआ, शयनयान में बैठकर यात्रा प्रारम्भ हुई।

अनजान सफर था आंखों में नींद लगभग गायब ही हो चली थी, खिड़की पर कोहनी का सहारा लेकर बस एकाएक गुजरने वाले स्टेशनों को निहारता जा रहा था। 

ब्रांच मैनेजर के रूप में अगली सुबह आफिस जॉइन करना था, अनजान शहर था।

 सुबह 4 बजे जैसे ही ट्रेन ने लखनऊ स्टेशन पर उतारा मानो दिल तो तभी पूर्वांचल को दे बैठे थे, वहाँ की हवा भी तहजीब के रूप में शरीर को स्पर्श करके जा रही थी। किसी मित्र के द्वारा जानकारी निकली तब जाकर अपना सामान रखने की जगह मिली, उस एक घर में लगभग 30 से 35 लेबर कर्मचारी रह रहे थे, उनकी बातें तो बिल्कुल समझ से बाहर हो रही थी, बस यही सोच रहा था अब ऐसे माहौल में नेतृत्व कैसे कर पाऊंगा ?

आफिस लंच में बाहर निकला तो अलीगढ़ की कचोड़ी दिल्ली की पूड़ी कहीं नही थी, चारो तरफ चौखा बाटी के ठेले थे।

बुझी हुई राख के अंदर पड़ी हुई (बाटी, लिट्टी) को देखते ही नफरत हो रही थी।

वास्तविकता एक सामान्य व्यक्ति शायद वापस अपनी गली में लौट जाता, लेकिन जब जिम्मेदारियां और जुनून एक जगह मिल जाते हैं तो हर मांझी पहाड़ काटने को मजबूर हो जाता है।

सबसे पहली मुलाकात अपनी कंपनी के साथी कर्मचारी अनिल से हुई थी। शांत स्वभाव, बेहद ईमानदार, सुलझा हुआ चरित्र, यहां तक मेरे लिए फ्लैट की व्यवस्था, गैस सिलेंडर, बर्तन सब कुछ प्रबन्ध किया हुआ था, मानो मेरे लिए एक गृहस्थी जैसा अहसास था।

दूसरी मुलाकात रत्नाकर दुबे से हुई, अक्सर मैं उसको बाबा कहकर पुकारा करता था। रत्नाकर दुबे वो पतझड़ वृक्ष था जिसको फल देना मैंने सिखाया था, ट्रांसपोर्ट के पहले ट से आखिरी ट तक सिखाया था उसको, यूँ तो मुझे कई प्रतिभाओं को निखारने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था जिनमे से एक पंकज कश्यप अहम था ।

वह अपनी लोकेशन पर जाने से पहले 30 किलोमीटर दूर सिर्फ मार्गदर्शन लेने आया करता था, मुझे आज भी याद आता है जब वो मेरे पैर छूता था तब मैं उसको पहले से ही रोक देता था, फिर उसकी तरफ से एक ही जवाब आता था आप गुरुजी हैं हमारे, अब जब कोई गुरुजी कहकर पुकारता है सहसा पंकज की याद दिमाग में घर कर जाती है, मैं हमेशा उसे प्यार से बच्चा कहकर पुकारा करता था ।

रत्नाकर मेरी क्यारी का वह पौधा था जो अपनी मेहनत और जुझारुता के दम पर महज 3 महीने में सामान्य कर्मचारी से ब्रांच का मैनेजर तक बना था।

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था, कुछ दिनों पहले ही देखने में बेकार लगने वाले बाटी चौखा का स्वाद जीभ पर अपना कब्जा कर चुका था, आज जब भी कभी दिल्ली में बाटी चौखा खाकर आता हूँ तब मुँह से बस गाली निकलती है, 'क्या यार तुमने बाटी चौखा का मजाक बना रखा है कभी पूर्वांचल चलना हमारे साथ तब तुम्हे खिलाएंगे।

दिल्ली, गुड़गांव की ऊंची, ऊंची इमारतों से ज्यादा अब लखनऊ की सड़को के किनारे लाल पत्थरों वाली दीवारें सुकून दे रही थीं।

दिल्ली के जाम, आधुनिकता, वेस्टर्न कल्चर के नाम पर थोपे जा रहे अश्लीलपन से कहीं ज्यादा जेनेश्वर मिश्र पार्क का सुकून, हज़रत गंज की तहजीब दिल में अपना स्थान बना रही थी । 

6 महीने में लगभग 11000 हजार किलोमीटर घूमना बहुत साधारण सी बात थी, कभी कभी घरवाले भी इस बात से नाराज़ हुआ करते थे। 

जब घरवालों से रात्रि के समय बात होती थी तब लखनऊ स्थित अपने आवास पर होता लेकिन सुबह जब बात होती तो गोरखपुर पहुंच चुका होता था।

बनारस, गोरखपुर, सीतापुर, मिर्जापुर, रायबरेली, बलिया, बस्ती, इलाहबाद(प्रयागराज), पटना, मुज्जफरपुर तब ये सारे नाम मानो अपने से लगने लगे थे। रात को स्वप्न भी अब पूर्वांचली भाषा में आने लगे थे।

सम्भवतः सामान्य कर्मचारी अपने सहायक कर्मचारी से दोस्ती आफिस तक सीमित रखता है, लेकिन शाम को मेरे डायरी के आखिरी में एक आधे फ़टे हुए पन्ने पर मेरी ब्रांच के प्रत्येक कर्मचारी की समस्या लिखी हुई होती थी, मुझे यह तक ज्ञात होता था कि आज महीने के अंत में किस कर्मचारी के घर गैस खत्म हो गयी है किसको अब धन की आवश्यकता है। सम्भवतः मैं रात को सोने से पहले किसी एक व्यक्ति द्वारा पूरे आफिस के कर्मचारियों की निजी जिंदगी का विवरण लिया करता था।

दिन की हर शाम अनिल से चाय पर चर्चा लगभग होनी ही थी, वह आफिस में रात्रि का कार्य सम्भलता था। 

शाम को निजी जिंदगी से जुड़ी बातों पर 2 या 3 घण्टे प्रतिदिन चर्चा होती थी।

हम प्रितिदिन इसी बात पर मंथन करते कि किस तरह अपने कार्य को बड़ा करके गांव देहात के लोगों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार दे सके । 

किस तरह हम आवासीय विद्यालय खोलकर गरीब, पिछड़े घर के बच्चों को मुफ्त शिक्षा दे सके, किस तरह मुफ्त चिकित्सा दे सकें, कैसे अपने गाँव वाले खेतों पर एक वृद्धाश्रम खुलवा सकें। 

यकीनन हम इसके लिए कार्य भी करते थे, और अनिल ने तो स्कूल को सम्भालने के लिए किसको जिम्मेदारी देनी है, वृद्धाश्रम की जिम्मेदारी किसको देनी है अपने ऑफिस के चुनिंदा कर्मचारियों में से वो तय भी कर लिए थे।

गजब का सेवाभाव था अनिल के अंदर एक असीम ऊर्जा, ईमानदारी और बहुत कुछ।

उन्ही दिनों मैंने लखनऊ में जाकर फिर से दोबारा लिखना शुरू किया वहां के अखबारों ने मेरे लेख को प्रमुखता दी, इन सबके पीछे मोहित का विशेष योगदान था। मोहित बिज़नेस में हमारा कस्टमर कंपनी में मैनेजर था, लेकिन हम दोनों एक ही फ्लैट में रहते थे, वो रात भर मेरी कहानियां और मेरी कविताएं सुनता था, कभी कभी हम दोनों जिंदगी की परेशानियों से परेशान होते थे तब एक दूसरे के गले लगकर ऐसे रोते थे जैसे कोई बच्चा चोट लगने के बाद अपने अभिभावक से लिपटकर रोटा है।

मोहित मुझे कभी हारने नही देता था। मेरे मित्र मेरे लिए ऊर्जा का स्रोत बन  चुके थे।

डॉक्टर फिक्सइट वाला अमित हो या कोई और सबके साथ जिंदगी बहुत संतुलित चल रही थी। जब पहली बार मुझे रहने के लिए पीजी मिला तब वो ट्रैन के एक बर्थ जितना बड़ा था उसमें मैं और अमित रहा करते थे, अमित पेशे से इंजीनयर था, उसने मुझे जीवन को संतुलित करना सिखाया, और कभी कभी ऐसा भी होता था जब हमको पता लग जाये कि आज इसके पास पैसे कम हैं तो पहले से खाने वाले को पैसे देने को जिद खुद करते थे। पीजी छोड़कर रूम लेना, खाना खुद से बनाना, सच में बहुत कुछ संतुलित और संयमित रहना सिखाता था अमित ।

6 अप्रैल शाम 7 बजे आफिस के कार्य से मैं और अनिल गोंडा(बस्ती) के लिए निकले, सुबह पता चला कि जिससे मिलना है वो शाम को मिलेगा, तभी नजदीक रत्नाकर जो कि इस समय गोरखपुर ब्रांच मैनेजर पद पर तैनात था उसको फ़ोन किया और घूमने निकले।

तीन मित्र, एक कार, पहली विदेश यात्रा ।

हम बस्ती से नेपाल के लिए निकल गए जो काफी पास था, पूरे रास्ते वहां के वातावरण को स्पर्श करते हुए गए थे । 

सभी यादों को अपने अपने कैमरों में सजोये हुए थे, राप्ती नदी के उद्गम स्थल पर नहाना हो या हिमालय की उचाईयों से फोटो खींचना सब कुछ एक आनंद के साथ और एक प्रण के साथ कर रहे थे, यदि अब अगली बार आएंगे तो कुछ बड़ा और अच्छा करके आएंगे। वहाँ से लौटने में अनिल अपनी पसंद बता रहा था कि सर आप फार्च्यूनर गाड़ी में ही अच्छे लगेंगे, या सर हम गरीब बच्चों के लिए विद्यालय, बुजुर्गों के वृद्धाश्रम खोलने के बाद मैं उसमे लग जाऊंगा आप युवाओं के रोजगार के लिए एक प्रोजेक्ट खोलना ।

रात्रि करीब 10 बजे,नेपाल की सीमा पार करके भारत में लगभग 40 किलोमीटर अंदर प्रवेश कर चुके थे, पीछे सीट पर बैठे हुए मेरी आँख लग गयी थी, और अनिल का प्रोजेक्ट अभी बंद नही हुआ था, लग रहा था मानो अपने कार्य की मुझे वो प्रेजेंटेशन दे रहा हो। 

तभी एक दिल दहलादेने वाली आवाज़ होती है, जो आज भी मेरे स्वप्नों में आती है।

गाड़ी का शीशा तोड़कर में किसी तरह बाहर आता हूँ देखता हूँ मेरा आधा शरीर टूटा हुआ है, कार उल्टी पड़ी है, चारो तरफ खून ही खून लगा हुआ है। 

हिम्मत जुटा कर कैसे भी बाकी साथियों को कार से बाहर निकालने की कोशिश की।

सभी का सहायक बनने वाला आज खुद सहायता के लिए रो रहा था, सड़क पर चिल्ला रहा था, बस सब व्यस्त थे तो गाड़ी का मुआयना और वीडियो बनाने में।

अभी कुछ देर पहले तक गरीबों की सहायता की बात करने वाले अनिल के शरीर को खुद सहायता की जरूरत थी। गांव के युवाओं को उनके पैरों पर खड़ा करने की सोचने वाला सहायक अपने पैरों पर खड़ा नही हो पा रहा था।

बस सड़क के किनारे एम्बुलेंस के इंतजार में एक टूटे हुए पैर पर अनिल के सर को रखकर और दूसरे पैर पर रत्नाकर के सर को रखकर खुद रो रहा था और उनको दिलासा दे रहा था। एक ऐसी दिलासा जिसको वो क्या मैं खुद नही सुन पा रहा था। हॉस्पिटल में एक बार कानों ने सुनना शुरू किया और हल्की सी आवाज़ आयी कि अनिल नही रहा।

वो जो दूसरों का सहारा बनने वाला था । आज खुद अपना सपना पूरा नही कर पाया । वो आवासीय विद्यालय, अनाथाश्रम, गांव में फैक्टरी, बनाने के ख्वाब जो हमने चाय की टपरी पर बैठके साथ देखे थे, वो आज चाय के कुल्हड़ के समान टूट चुके थे,

और सपनों के साथ टूटा था मेरा आत्मविश्वास।

6 महीने हो गए आज भी पूर्ण स्वस्थ नही हूँ, लेकिन अब ये दोबारा से ठाना है, अब लड़ूंगा और फिर लड़ूंगा अपने लिए नही तो किसी दूसरे के सपनो के लिए।

वो लखनऊ की आखिरी शाम थी, आज जब भी लखनऊ की बात होती है, तब वो अपना केबिन जिसमे कोने पर स्वामी विवेकानंद जी की तश्वीर थी, वो आफिस जिसने मुझे अनुशासित रहना सिखाया, वो चारबाग की भीड़ जिसने मुझे ठोकरों से चलना सिखाया, वो बड़े बड़े पार्कों का एकांत जिसने मुझे खुद से मिलाया ये सब एक सुखद याद आती है, लेकिन अगले ही पल वो कानो में दर्दनाक आवाज़ सामने मेरा सबसे चहेता चेहरा मेरा हृदयांश रोने को मजबूर कर देता है।


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