संयोग

संयोग

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जहरखुरानों से सावधान, यह आपको बर्बाद कर सकता है। इसलिए किसी पर भरोसा न करें न किसी का दिया कुछ खाए - पीएं... वगैरह - वगैरह।

इलाहाबाद जंक्शन पर लगे इस आशय के बड़े से बोर्ड ने मेरा तनाव बढ़ा दिया

था। क्योंकि अपनी वापसी यात्रा पर मैं बिल्कुल अकेला था। ट्रेन आने वाली थी।

जबकि आरक्षण कराने की मेरी तमाम कोशिशें व्यर्थ साबित हो चुकी थी। जनरल

डिब्बोें में सफर के पुराने अनुभवों की भयावह स्मृतियां मुझमें सिहरन पैदा कर

रही थी..। अब कोई उपाय नहीं। लगता है आज फिर जनरल डिब्बे में सफर के कष्टसाध्य

अनुभव से गुजरना ही पड़ेगा।

दरअसल एक करीबी रिश्तेदार के अचानक निधन से मुझे आनन - फानन अपने पैतृक

गांव प्रतापगढ़ जाना पड़ा था। तैयारी को महज एक घंटे का समय मिला था। इसलिए

इतने कम समय में आपात कोटे से भी रिजर्वेशन मिलना संभव न था। हालांकि बिल्कुल

ट्रेन छूटने से एेन पहले एक मित्र ने पेंटरी कार में यात्रा का प्रबंध करा

दिया था।

अपने एक रिश्तेदार वेंडर को सहेजते हुए उस मित्र ने कहा था... देख सपन ,

दादा इलाहाबाद तक जाएंगे। इनका ख्याल रखना। इन्हें किसी प्रकार की परेशानी न

होने पाए।

हुआ भी बिल्कुल एेसा ही।

पेंट्री कार से लगते डिब्बे में घुसते ही उस नौजवान ने एक बर्थ मेरे लिए

खोलते हुए कहा

"दादा आप आराम से बैठिए। मैं चाय लेकर आता हूँ। "

रात में उसने खाना भी खिलाया। बहुत कहने के बावजूद पैसे नहीं लिए। अपने इस सौभाग्य पर ईश्वर

को धन्यवाद देते हुए मैं इलाहाबाद जंक्शन पर उतरा था।

लेकिन वापसी यात्रा मुझे इतनी ही दुरुह लगने लगी थी,आखिरी उपाय के तौर पर

मैने उसी वेंडर सपन को फोन मिलाया।

हैलो सपन, मुझे लौटना है, क्या तुम कोई मदद कर सकते हो।

जवाब मिला...

" नहीं दादा, मैं इस समय लखनऊ में हूँ । दूसरी ट्रेन के मामले में भला मैं क्या कर सकता हूँ ।"

सपन के इस दो टुक से मेरे हाथ - पांव ठंडे पड़ गए। इस बीच मोबाइल पर आए कुछ

काल्स का मैने झल्लाते हुए जवाब दिया था।

तभी एक आवाज आई

" कहाँ जाना है।"

मैं अचकचा कर उसकी ओर देखने लगा।

अरे यह कौन है, इसे तो मैं पहचानता नहीं। लेकिन उसके सवाल जारी रहे।

"क्या नीलांचल पकड़ना है।"

उसके इस प्रश्न से मेरी घबराहट बढ़ गई।

" कहीं यह कोई जहरखुरान तो नहीं। इसे कैसे पता कि मुझे नीलांचल एक्सप्रेस पकड़नी है।"

उसने फिर पूछा

"कहाँ तक जाना है।"

मैने बेरुखी से जवाब दिया

" खड़़गपुर।"

इस पर वह खुशी से उछल पड़ा

"अरे मैं भी तो वहीं जा रहा हूँ ।"

अब मेरा डर और गहराने लगा, जरूर यह कोई जहरखुरान है। इसीलिए बेरुखी

दिखाने के बावजूद पीछे ही पड़ता जा रहा है।

पीछा छुड़ाने की गरज से मै बैग कंधे से लटकाए हुए कैंटीन की तरफ बढ़ चला।

अरे कहाँ जा रहे हैं। अच्छा चलिए मैं भी कुछ टिफीन कर लेता हूँ ।

अब मेरे सब्र का बांध टूटने लगा था...।

अरे यह तो अजीब आदमी है, पीछे ही पड़ गया है। जरूर कोई जहरखुरान है। मन में

घबराहट के साथ इच्छा हुई कि किसी हेल्पलाइन पर मैसेज ही कर दूं।

बेरुखी दिखाते रहने के बावजूद उसकी बातें जारी रही।

कहने लगा ...

" मैं एयरफोर्स में हूँ , फिलहाल खड़गपुर के कलाईकुंडा में पोस्टेड हूँ ।"

इससे मेरे मन में कौतूहल जगा। क्योंकि पेशे के चलते कुछ एयरफोर्स जवानों व अधिकारियों को मैं जानता था।

अच्छा बच्चू ... फौजी है, अभी क्रास इक्जामिन करता हूँ । पता चल जाएगा कि

सचमुच एयरमैन है या कोई जहरखुरान...।

मैने पूछा...

" विंग कमांडर बत्रा को जानते हैं।"

"अरे, अब तो उनका तबादला हो चुका है इन दिनों वे असम में हैं।"

उसने सटीक जवाब दिया।

मैने फिर पूछा

"आपके एयरफोर्स में कोई शर्माजी थे।"

"हाँ उनका भी ट्रांसफर हो चुका है, उनकी मिसेज भी तो डिफेंस पर्सनल है।"

मेरी सारी आशंकाएं अब निराधार साबित हो चुकी थी। क्योंकि मेरे सारे सवालों

का उसने सटीक जवाब दिया था। फिर मन में ख्याल आया कि कहीं इसे यह तो नहीं लग

रहा है कि मेरा रिजर्वेशन है, और इसी लालच में मेरे पीछे पड़ा है कि यात्रा

में कुछ सहूलियत हो। मन में डर बना हुआ था।

उसने वही सवाल पूछा

"क्या आपका रिजर्वेशन है।"

"अच्छा बच्चू , अब आया औकात पर , सोच रहा है कि मेरा रिजर्वेशन है, इसीलिए इतनी चापलूसी कर रहा हैं। "

मैं मन में बड़बड़ाता जा रहा था।

"नहीं।"

मैने कहा।

"तो ठीक है, आप मेरे साथ फौजी डिब्बे में चलना।"

"लेकिन ?"

"कुछ नहीं होगा, मैं हूँ ना।"

उसके इस प्रस्ताव से वह संदिग्ध अब मुझे जहरखुरान से देवदूत लगने लगा था।

मैने भी उससे दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी।

ट्रेन आई, तो फौजी डिब्बा प्लेटफार्म से काफी दूर इंजन के बिल्कुल बगल लगा

मिला।

शायद उसे फौजी डिब्बों के चलन का अनुभव था। इसलिए उसने मुझे आगे कर पहले

चढ़ने को कहा।

डिब्बें में चढ़ने के लिए मैंने हैंडल पकड़ा ही था कि दो जवानों ने मेरा

रास्ता रोक लिया... । काफी कड़क आवाज में उन्होंने पूछा

"ओ भाई साहब, आप फौजी है क्या ?"

मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा था।

इस पर उन्होंने और कड़ाई दिखाते हुए कहा

"आप फौजी है क्या?"

मेरे पीछे खड़े उस एयरमैन ने जवाब दिया

" ये मेरे साथ हैं।"

जवानों ने फिर सख्ती से सवाल किया

" लेकिन ये फौजी है क्या ?"

"अरे भाई साहब !कैसी बात कर रहे हैं? ये मेरे बड़े भाई हैं। इन्हें क्या एेसे ही जाने दूं?"

इतना कहते हुए उन्होंने पीछे से धक्का देकर मुझे डिब्बे में चढ़ा दिया।

तब तक ट्रेन भी चल पड़ी। इस पर रौब दिखा रहे फौजी भी शांत हो कर अपनी -अपनी सीट पर बैठ गए।

डिब्बे के भीतर आँखों से इशाऱा करते हुए उन्होंने मुझे एक सीट पर लेट जाने

की सलाह दी।

दूसरे दिन सुबह ट्रेन खड़गपुर पहुँच चुकी थी।

मुस्कुरा कर उस एयरमैन से हाथ मिलाते हुए फिर मिलने के वादे के साथ हम अपनी- अपनी राहों पर निकल पड़े। हालांकि ज़िन्दगी की भागदौड़ में एेसे खोए कि

हमारी फिर कभी मुलाकात नहीं हुई।

मैं मन ही मन सोच रहा था। क्या सचमुच कुछ यात्राओं के साथ संयोग जुड़े होते

हैं। वर्ना क्या वजह रही कि अचानक हुई मेरी एक यात्रा दोनों तरफ से

सुविधापूर्ण रही। अप्रत्याशित रूप से मददगार खुद मुझ तक चल कर आए। सामान्य

परिस्थितयों में जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है । इस सवाल का जवाब

मुझे आज तक नहीं मिल पाया है।


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