सलोना जहां सपनों वाला !

सलोना जहां सपनों वाला !

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सपने... देखा जाये तो छोटा - सा लफ्ज़ है, लेकिन इसकी ताकत तो ढाई अक्षर प्रेम के जितने ही, या मैं तो कहूंगा उससे भी बढ़कर है।

सपनों के पीछे पागल हुआ इंसान कुछ भी कर सकता है। सपने इन्सान को मेंटली स्ट्रॉन्ग बना सकते हैं और स्ट्रॉन्गली मेंटल भी। हर नियम के अपवाद होते ही हैं। कई नमूने भी इस दुनिया में हैं, जिन्हे सिर्फ सोते हुए देखने वाले सपनों के अलावा और कुछ पता नहीं। ठीक है, अपवादों से ही नियम साबित होते हैं।

देखा जाये तो सपना वो नहीं जो सिर्फ नींद में देखा जाये, सपना तो वो होना चाहिए जो नींदें उड़ा दे।

अपने सपनों के लिए जान की बाज़ी लगाने वाले, वक़्त आने पर जान कुर्बान करने वाले कई रथी-महारथी इस दुनिया में हो चुके हैं।

सिर्फ अपने भारत को ही देखा जाये, तो हमारे देश का गुलामी में रहने का लम्बा इतिहास उपलब्ध है। फिर चाहे वो मुगलों के खिलाफ लड़ने वाले राणा प्रताप - शिवाजी महाराज हों, या अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने वाले क्रांतिकारी। आज़ादी के लिए घर परिवार सब छोड़कर ये लोग लड़ाई में उतरे, ये आज कहना - सुनना बड़ा आसान है, लेकिन ऐसा जीवन खुद व्यतीत करना, कल्पना करने पर भी रूह काँप उठती है !

कितनी मुश्किल से मिलता है ये इन्सानी जीवन, लेकिन कुछ लोग इसको राख की तरह कुर्बान कर देते हैं, सिर्फ अपने सपने को पूरा करने के लिए। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और क्रांतिवीर राजगुरू, इन दोनों में तो लड़ाई चलती थी, कि कौन पहले फांसी पर चढ़ेगा, तू या मैं ? लाहौर में भगत सिंह को गिरफ्तार करने के कुछ महीनों बाद पूना में राजगुरु को पकड़ा गया और वो भगत के पास जाके बोले,

"देखा, कहा था न तुझे पहले मरने नहीं दूंगा। फ़ांंसी तो मेरे ही नाम लिखी है।"

इस बात से हैरान होकर चंद्रशेखर आज़ाद ने एकबार पूछा था, कि

"तू मरने के लिए हर वक्त इतना उतावला क्यों रहता है ?"

इसपर राजगुरू ने बड़ा खूबसूरत जवाब दिया कि

"पंडित जी, एकबार आज़ादी के लिए जान कुर्बान कर दूंं, उसके बाद ही चैन की सांस लूंगा मैं !"

वाह - वाह !

इन सब लोगों ने अपने सपने को पूरा करने के लिए जान की बाज़ी लगा दी, और वो सपना था आज़ादी का।

ऐसा ही सपना और एक व्यक्ति ने देखा, पूरी दुनिया को अँधेरे से आज़ाद करने का सपना। हम उन्हें थॉमस अल्वा एडिसन के नाम से जानते हैं। बिजली के निर्माण करने की कोशिश में वे एक-दो बार नहीं, बल्कि २० हज़ार बार असफल रहे। उनकी हर कोशिश विफल हो गयी। लेकिन फिर भी वे हटे नहीं। इसी दौरान उनकी लैब में आग लग गयी, और सालों से की हुई रिसर्च जलकर ख़ाक हो गयी। कोई और उनकी जगह होता तो ज़ोरदार झटका बैठकर पागल हो जाता, या दिल का दौरा पड़कर मर भी सकता था। लेकिन एडिसन ने कहा,

"मेरी आजतक की सारी गलतियाँँ जलकर ख़ाक हो गयी। ये मौका मुझे भगवान ने दिया है। अब मैं कल से फिर से नयी शुरूआत करूँगा।"

इतना कहने के सिर्फ दो हफ्तों बाद उन्होंने बिजली का निर्माण करके दिखाया।

इसे कहते हैं ज़िद, इसे कहते हैं सपनों के पीछे पागल होकर भागना !

आज का ज़माना अगर देखा जाये तो सपनो के पीछे भागे, सपनो का जूनून लिए घरबार, परिवार, मित्र सबको छोड़कर निकल पड़े मैदान में, ऐसा कुछ है ही नहीं। वो नौजवान कहाँ जो अपनी आवाज़ सरकार तक पहुंचाने के लिए साहसी कृत्य करते थे, जान पर खेल जाते थे, और आज फेसबुक पर "मोदी अच्छा है" या "मोदी बुरा है" ये बहस करनेवाले सोशल नौजवान कहाँ ? युवाओ को एक ही तरीका दिखता है, पढ़ाई खत्म करके छह-सात लाख के पैकेज वाली नौकरी पकड़ लो, किसी अच्छी - सी लड़की के साथ शादी कर लो, सेविंग करके पूना के आसपास आधा एकड़ ज़मीं खरीद लो, और कम्पनी के ज़रिये काम के लिए अमेरिका जाओ, और फिर वहीं पे सेटल हो जाओ। फिर टीवी पर न्यूज़ देखते हुए -

"छी, इंडिया इज़ सच अ डर्टी कंट्री !"

ऐसी बाते बोलते रहो। क्या यही है हमारे जीवन का ध्येय ? क्या हम समाज का कुछ ऋण चुकता करना आवश्यक नहीं समझते ?

ऐसी संकुचित विचारधारा के लिए जैसे बदला हुआ ज़माना और सामाजिक-राजनैतिक बदल ज़िम्मेदार है, उसी तरह प्रमुख तरह से ज़िम्मेदार है - डर। हम बदलाव से डरते हैं। हम नया कुछ करने से डरते हैं। नए सपनो की दुनिया में प्रवेश करने से डर लगता है, इसलिए पुरानी जिंदगी को हम झेलते रहते है। हम सपने देखने से डरते है क्यूंकि अगर वो सपने पूरे नहीं हो सके तो हम टूट जायेंगे, ऐसा हमको समझाया गया होता है। किसी और ने नहीं, हम खुद ने ही। और इसीलिए हम बहुत बदकिस्मत है।

अब डर है तो इसका सामना कैसे किया जाये ? मै तो कहता हूँ घुस जाओ सीधा सपनो की दुनिया में। सपने देखना सीखो, पूरे करना अपने आप सीख जाओगे। कोई इस बात को ध्यान में नहीं लेता कि, जो चीज़ होने वाली है, वो कुछ भी हो जाये होकर ही रहेगी। फिर तुम्हे अच्छी लगे या ना लगे। फिर हमारे हाथ में क्या बचता है ? कोशिश करना। खुद को दिलासा तो दे सके, कि कुछ ना हुआ तो हमने कोशिश तो की...।

आजकल के बच्चो को पाठशाला से ही पूरा भविष्य तय करने की आदत लगी है। बीस की उम्र में ये, पच्चीस की उम्र में ये, ऐसा पूरा फ्यूचर प्लान डिसाइड करके रखते है।

लेकिन किस्मत कब कहाँँ कैसी पलट जाए, कैसी घूम जाये, इट इज़ ओके टू नॉट हैव अ प्लान !

किसी प्लान के बिना जिंदगी गुजरना कुछ गुनाह नहीं है। पड़ जाओ न अपने सपनो के पीछे। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ? आप नाकमयाब होंगे, गलतियां होंगी, ठीक है न कोई बात नहीं। क्योंकि उस वक़्त तुम खुद से खुश रहोगे कि मैंने कोशिश तो की। जिंदगी बहुत छोटी है। जब आखिरी समय बिस्तर पर लेटे हुए पूरी जिंदगी का हिसाब लगा रहे होगे, तब अगर ये ख़याल आया कि "काश पैसो के पीछे भागने से अच्छा अपने सपने के पीछे भागा होता..." तब कुछ नहीं कर पाओगे। ये ख़याल ही बहुत खतरनाक है। उससे अच्छा आज से ही अपने तैयारी शुरू कर दो।

और एक व्यक्ति था, जिसने एक सपना देखा था, साल २०२० तक भारत को विश्वगुरु बनता देखने का सपना। आज डॉ. कलाम हमारे बीच मौजूद नहीं है, लेकिन उनका सपना हिंदुस्तान के बच्चे बच्चे की जुबान पर है। और अगर उस सपने की तरफ कल हमें पहुंचना है, तो आज से ख़ुद को सपने देखना शुरू करना होगा। और उन्हें पूरा करने की कोशिशे भी !


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