Saumitra Kumar

Inspirational Others

4.4  

Saumitra Kumar

Inspirational Others

सिर्फ एक बड़ा पाव

सिर्फ एक बड़ा पाव

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जो करे मेरी आस, मैं करूँ उसका सर्वनाश,

गर फिर भी ना छोड़े मेरा साथ.. तो .. मैं बनूँ उसके दास का दास..!!!


सुन ने को तो यह एक पौराणिक हिन्दी श्लोक के जैसा ही लग रहा था, पर मुझे यह नहीं पता था, “कि ,यह श्लोक किसने किस दौरान कहा या लिखा होगा, और इसका अर्थ क्या है..? यह तो, मैं पहेली बार एक “बूढ़ा” आदमी के मुँह से सुना था, “जो मुझे उस दिन “रेलवे स्टेशन” पर, अजीब तरीके से घूरते हुए, धीमी आवाज़ में, अपने में ही “गुन-गुना” रहा था ।


सच कहूँ तो वो एक भिखारी जैसे ही नजर आ रहा था, जो मुझे थोड़े सी पागल भी लगा । मैं, उसे बस देखा और उसकी हरकत कुछ अजीब लगने पर, तुरंत वहां से निकल गया । इतना ध्यान देता कहाँ से, मैं तो अपने में ही परेशान था।


असल में, उस दिन “मुंबई” में मेरा पहला दिन था। “ओड़िसा” के “भूबनश्वर” से “मुंबई” आने वाली “ट्रेन” “कोणार्क एक्सप्रेस” के “लोकल डिब्बे” में, पूरे “३६-घंटे” की सफ़र करते हुए, मैं “मुंबई” के “थाना” “स्टेशन” पर पहुंचा था । “लोकेल डिब्बे” में सफर “मतलब”, “मैं तो पहलि बार जान रहा था, “पर आप लोग तो, समझ ही गये होंगे कि मेरी हालात क्या हुई होगी..! पूरे “३६-घंटे” और “बदकिस्मती” से, ऊपर वाले की इतनी नाराजगी क्यूँ थी मुझसे क्या मालूम, कि “ट्रेन” भी आधी रात को “3” बजे ही ‘थाना’ “स्टेशन” पर पहुँच गई । ऐसा नहीं था, कि यह बात मुझे मालूम ही नहीं थी, पर “Tension” और जल्दबाजी में, “ध्यान” ही नहीं था मेरा।


यकीन मानो, मैं कभी अपना गांव और अपना छोटा सा शहर “बेरहमपुर” के अलावा कहीं और कभी गया ही नहीं था। सोचा भी कुछ ऐसा ही था, “की अपने पापा के पैसों से तो वर्ल्ड टूर कर लूँगा, पर नौकरी के लिए कभी मुझे बाहर जाने की जरूरत ही ना पड़े। पर वो कहते है ना, किस्मत की मात अगर किसी राजा को भी सहनी पड़ जाए तो हालत राज गद्दी से चपरासी बनाकर छोड़ देती है। ठीक उसी तरह मेरे जैसे राज कुमार को भी हालत का शिकार हो कर पेट पालने के लिए मेरी क़िस्मत भी मुझे खींच लाई “मुंबई” । मजबूरी तो थी ही, और उसी मजबूरी के कारण, मैं अपना सब कुछ दाँव पे लगा कर “मुंबई” आ तो गया था। पर आधी रात को जाता कहां….? कोई भी तो नहीं था मेरा यहां..!!!


जिस दोस्त को आखरी सहारा मान कर में आ गया, वो मुझे अपने साथ रखना दूर, मिलने तक नहीं आया, समझ आने पर भी डूबते को तिनके का सहारा की तरह मैं “फोन” बंद होने तक उस को “कॉल ’ लगाते रहा, पर वो नहीं आया। साथ उतरने वाले सारे लोग अपने-अपने साधन से निकलते जा रहे थे, धीरे धीरे पूरा “स्टेशन” खाली हो गया। चारों तरफ आँख बिछा कर देंखा “स्टेशन” को अपना घर बना लिए ग़रीब बे-सहारा लोगो के साथ साथ, और कुछ लावारिस “कुत्ते” के अलावा कोई और नजर ही नहीं आ रहा था। पास मेरे उतने पैसे भी नहीं थे की कोई “होटल रूम’ में रात बिता सकूँ।  


कहाँ जाऊँ क्या करूँ इस उधेड़बुन में बहुत रोना आ रहा था। जानता था, दिल हल्का करने के लिए वो सही जगह नहीं थी, पर दिल बिचारा इतना बोझ सह नहीं पा रहा था। मैं वही पर उन बदनसीब बेघर लोगो के तरह एक कोना पकड़ कर बैठ गया, और बीते हुए दिन के बारे में सोच सोच कर फुट फुट कर रोने लगा।

    

अतीत के बातें और यादें .. 

अपने गांव के राज कुमार की तरहा था मैं। गांव के हर एक आदमी से लेकर बच्चे तक, सब मेरे और मेरे परिवार कि इज़्ज़त करते थे। सिर्फ गांव में ही नहीं, अपने “कॉलेज” में भी, मैं चहिता लड़का था और सब मुझे जानते थे। कभी मन में एक बार भी यह खयाल तक नहीं आया था, कि ये सब मेरे “बाबा” की देन है और वो सब उनके पास रहा पैसा और अच्छी नौकरी की वजह से ही थी।


मेरे “बाबा” “ओड़िसा” के “टॉप मोस्ट’ फाइनैन्स कंपनी ‘मल्टी फाइनैन्स लिमिटेड” में “गंजाम जिला” के लिए “जेनेरल मैनेजर के “पोस्ट” पर कार्यरत थे। “मल्टी फाइनैन्स” मतलब “एलआईसी ” जैसे बीमा “कंपनी” को भी पछाड़ ने वाली वो पहली “बिमा” “कंपनी” थी, जो इस कदर प्रभावित थी उस वक्त वहाँ।आंकड़े के हिसाब से भी देखा जाय तो जैसे “इंडिया” के हर पढ़े लिखे माध्यम वर्गीय परिवार में एक न एक “एलआईसी” के छोटा मोटा “पलिसी” होती है, वैसे ही बात “मल्टी फाइनैन्स” कि हो तो, यह बात का कोई हिसाब ही नहीं। यकींन मानो “ओड़िसा” के हर गरीब से ले कर “करोड़ पति तक ये “कंपनी ” की “पालिसी” में अपना पैसा निवेश कर रखे थे।


 “१९८३” को शुरू हुई यह “कंपनी” “सिर्फ” “ओड़िसा” ही नहीं, आस पास के दूसरे राज्य “आंध्रप्रदेश” “छत्तीसगढ़ ” “बंगाल” और “गुजुरात” और माहाराष्ट्र” जैसे इलाका में भी, अपना अच्छा खासा “धंधा” “जमाया हुआ था । लोगो के भरोसा जीत चुकी ये “कंपनी” ना सिर्फ शुरूआती समय में “निवेशकों के लिए फायदेमंद थी, बल्कि साथ ही साथ “कंपनी” के लिए काम करने वाले “पॉलिसी अजेंट्स” को भी अच्छी खासी मोटी “सैलरी” भी दिया करती थी । सच कहूँ तो उस समय देश में जितेने भी बिमा “कंपनी” थे उनमे से सब से कम समय में ज्यादा “रिटर्न” फायदा देने वाली सिर्फ यही एक “कंपनी” थी, और तो और इस “कंपनी” में “नौकरी” करना हर एक “युवा” के लिए सपना साकार होने जैसा भी था।


ऐसा था की लोग, जल्द से जल्द अपना पैसा दोगुनी करने के आस में, कई तो अपनी “हरा भरा खेत तक बेच दिया करते थे। और “कंपनी ” के लिए काम करने वाले “अजेंट्स ” अपनी “पोस्ट” और “सैलरी ” बढ़ाने चक्कर में अपनी “सैलरी ” में से भी “कई सारे “पॉलिसी ” रिस्तेदारों के नाम कर बैठे थे।

उस समय में “मेरे “बाबा” सब से ज्यादा “पॉलिसी” और सबसे ज्यादा “कंपनी” को “रेविन्यू” देने वाले “अजेंट्स” में से अव्वल नंबर पैर थे। यकीं मानो कुछ ऐसा था की “उस समय मैं “मेरे बाबा के “इर्द-गिर्द कोई ऐसा इन्सान बचा ही नहीं था जिस की “पॉलिसी” हुए बिना छूट गयी हो। “रिश्तेदारों” का तो कोई हिसाब नहीं, “हमारा “नौकर” “भगिया ” का भी “३-३ पॉलिसी ” मेरे बाबा ने बोल-बोल कर, करवा रखे थे। कहा करते थे “अगर “जानवरों” के लिए भी कोई “पॉलिसी” का माध्यम होता, तो वो हमारे “कुत्ता “बिट्टु” का भी “१ -२ ” “पॉलिसी” करवा देते। उसी “सकारात्मक सोच’ के कारण से ही उनकी “पोस्ट” के साथ साथ मार्केट में उन की नाम भी बढ़ने लगा था।


साल “२०१२” आते आते मेरे बाबा सुभाष जी “एजेंट लेवल” से “जेनेरल मैनेजर ” के “पोस्ट” पर पहुँच गये थे, और मैं “स्कूलिंग” पूरा” करके “कॉलेज” में । हमारे घर में सब की तरक्की हो रही थी। “मेरे” बड़ी “बहन” “लिमि” “ग्रॅजुएसन” में “फास्ट” “डिवीजोन” पास हो गयी थी, “मेरे “दादाजी” “शिबराम” जी “दोबारा “आँख” के “ऑपरेशन” करवाने से “न्यूज पेपर” बिन “चश्मा” के साफ पढ़ पा रहे थे, और मेरी दादी माँ “हेमलता” “नया “आर्टिफिसियल” दांत लगवाने से, अच्छे से पान चबा सकती थी, और तो और “लड़की ना मिलने से हमेशा परेशान रहने वाला हमारा नौकर “भगिया” जो एक आँख से “काणा” और बात करने में पूरी तरह हकलाने के बावजूद भी “उसकी शादी हो चुकी थी। 


 “सबकुछ एक दम ठाट से चल रहा था। सिर्फ कुछ ही दिन में “मैं कॉलेज” का एक “मोस्ट पपुलर लड़का ” बन गया था। “सारे दोस्त मेरे लिए जान छिड़कते थे, और “लड़कियों की तो पूछो ही मत। पर मैं कभी किसी लड़की के साथ कभी कोई गलत “रीलैशन” रखा ही नहीं। क्यूँ की मैं सच्चे प्यार में “विश्वास ” रखने वालों में से था, और “वो प्यार मुझे “८-बी क्लास” में ही हो गया था “मेरे “क्लासमेट ” “ड़ल्ली” से, “जो मेरे साथ मेरे “कॉलेज” में ही पढ़ रही थी।


दोस्ती यारी में कभी कभार ऐसे किसी लड़की के और मन घूमना तो दूर, ‘ड़ल्ली’ मेरे हर बर्ताव पर नजर रखा करती थी। ऐसा लगता था की वो मुझे बहुत प्यार करती है, शायद मेरे से भी ज्यादा। फिर भी कभी कबार उसे, और घर वालो से झूठ बोल कर मैं दोस्तों के साथ “बाहर’ या फिर “शादी बारात में “बीयर पार्टी ” कर ही लेता था। पर अगले दिन छूपा कर किया हुआ वो “बीयर पार्टी” की बात “मेरे घर तक” कैसे पहुँचती थी, वो मुझे बहुत देर तक समझ नहीं आती थी । 

वो राज की बात तभी मालूम पड़ी, जब कुछ रिश्ते और भी खुल गये। असल में मेरे ही “दोस्तों में से एक “श्रीकांत” “कबूतर” की तरह “मेरे ही “गर्ल फ्रेंड ” “ड़ल्ली” कि “सहेली” “स्मिता” से गुटुर-गुटुर करते हुए “प्यार में बवला हो कर साड़ी बातें बता दिया करता था, और वही बातें बिना रुके “ड़ल्ली” तक..!!!! उसके लिए “ड़ल्ली” से मुझे जो डांट सुन -ने को पड़ता था वो तो ठीक, पर उसके बाद भी, उसका मन नहीं भरता था, तो वो “पोस्ट वुमन ” बन कर, अपने भाई का प्यार का “चिट्ठी” लेकर जाने के दौरान “मेरी बहन “लिमि” को ये सब कह दिया करती थी, और फिर, मेरे घर वालो का “तगादा” मेरे उप्पर चालू....। 

ऐसे में, “मेरे “बीयर” पिने वाली बात घर तक कैसे पहुँचती थी वो बात तो पता चली ही, साथ ही साथ” ये “बात भी पता चल गयी, की “ड़ल्ली” का भाई “डुरा” मेरे बहन के उपर ना जाने कब से “डोरे” डाल रहा था..!! और “ड़ल्ली” ने भी कभी भूल से भी ये बात मुझे पहले नहीं बताई थी । 

खैर घर वालो ने सोचा अच्छे “खानदान” का “लड़का है, तो वो “डुरा” और “लिमि” के रिश्ते के लिए मान गये, और मेरे लिए तो उसकी बहन “ड़ल्ली” अच्छी थी, इसलिये मैं भी मान गया, लेकिन एक अफ़सोस दिल में रह गया की, साले को मेरा साला बनाने से पहले, साले ने मुझे साला बनाने के लिए “फूल “प्लानिंग कर बैठा था.... ।

    

साल “२०१३” के आखरी महीनों में ही, मेरी बहन “लिमि” का “ड़ल्ली” के भाई “डुरा” के साथ “सगाई” हो गई, पर अच्छा “मोहरत” ना होने के वजह से और “डुरा” के “आई ए एस’ परीक्षा ” की तैयारी के लिए, दोनों परिवार के सहमति से शादी कुछ दिन के लिए रोक दी गयी। लेकिन “ड़ल्ली” और मेरे प्यार में कोई रुकावट नहीं था। हमारा प्यार जोरों शोरों से चल रहा था, सच कहूँ तो इस रिश्ते के वजह से थोड़ा बहुत डर भी मिट गया था। पर मुझे कभी कभी ऐसा लगता था की “ड़ल्ली” के भाई या “मम्मी – पापा” मुझे पसंद नहीं करते है। और जब भी, इस बारे में “ड़ल्ली” के साथ मेरा जिक्र हुआ करता था , “ वो मुझे समझाते हुए अपने पैरो पर खड़ा हो कर उस के घर वालो के नज़रों में काबिल लड़का साबित होने को सलाह देती थी। कहती थी “तू अपने पैरो पर खड़ा हो कर काबिल बन, “अगर उस के बाद भी, मेरे घर वाले राजी ना हुए तो, “ मैं तेरे साथ भाग जाउंगी ”.....!!!

सलाह सुन कर अच्छा तो लगता था, पर मुझे जितना ज्यादा भरोसा मेरे “प्यार के उपर था, उतना ही कम “भरोसा” खुद के उपर। मुझे पता था की “मेरे हाथों कोई काबिल वाला काम ना हो पायेगा , बस किस्मत के उपर भरोसा था की “बहन का रिश्ता जुड़ जाने के बाद “जैसे तैसे “बाबा” के “प्रतिष्ठा” और सम्मान से मेरा भी रिश्ता जुड़ ही जायेगा। 

 “वही “प्रतिष्ठा” के आड़ में ही तो, इतना सब कुछ मिल चूका था मुझे”, “कॉलेज” में ठाट, “दोस्तों का इज़्ज़त “खूबसूरत प्यार” और परिवार, किसी बात की कोई चिंता ही नहीं थी। “काश आखिरी बार ये भी पूरा हो जाता। बाबा के उसी “प्रतिष्ठा” के वजह से ही, मैं ज्यादा बेफिकर रहा था । पर किस को पता था, की साली किस्मत भी ऐसी पलटी खाएगी, की जो दिया था, वो भी “लोन” के तरह सूद समेत वापस ले जाएगी...!!!


साल “२०१४” के “मार्च” महीना था, “डुरा” का “आइ ए स” के इम्तिहान” ख़तम हो चुकी थी, पर “परिणाम” आना अभी बाकी था। बहन “लिमि” “की शादी बाबा के सर पर थी, इसीलिए “पूरा परिवार शादी के ताम-झाम में लगे हुए थे, और मैं खुले “बैल” के तरह शादी के मौके का फायदा उठा ने के फ़िराक में था। घर के सब लोग अपने अपने छोटे मोटे काम कर रहे थे, पर मेरे से तो किसी की, कोई उम्मीद ही नहीं थी, तो किसी ने मुझे कोई काम सौंपा नहीं था। 


उसी दौरान शादी के कुछ ही दिन पहले, एक रोज शाम को, मैं “टांग” उठा कर “सोफा” के उपर लेट कर “टीवी ” देख रहा था। बाबा मेरे किसी काम से कहीं गये हुए थे, वो अचानक बड़े परेशानी से घर पर भागते हुए पहुंचे..! और मेरे हाथ से “टीवी –रिमोट” को छिन कर ले गये..! मुझे लगा “में कोई काम नहीं कर रहा हूँ इसलिये, मेरे उपर बिगड़ रहे होंगे, लेकिन तुरंत पता चला, बात कुछ और थी। बाबा ने “टीवी –चैनल” को बदलते हुए “न्यूज चैनल” को लगाया, “२०१–नो” पर “उड़ीसा का ‘नो.१’ न्यूज चेनल “ओ-टीवी” पैर “ब्रेकिंग न्यूज” दिखायी जा रही थी। क्या कहूँ वो “ब्रेकिंग न्यूज” नहीं “उड़ीसा” के हर एक आदमी के लिए “सकीन्ग न्यूज” थी।


“दिखाया ये जा रहा था की “मल्टी फाइनैन्स” “प्रोजेक्ट मौडुल” के डिटेल्स के बाद “आर बी आई” यानि “भारतीय रिजोर्वे बैंक ऑफ़ इंडिया” ने, इस “कंपनी” की “लिसेंस ” “२०११ ” में ही रद कर दी थी.....!!!! और विशेष सुत्रों से पता चला है की “२०११ ” में ही “आर बी आई ” ने यह “कंपनी” के सारे “पलिसी” को “लीगल” तौर पैर अवैध घोषित कर करने के बावजूद भी, मासूम “जमा कारियों” से अवैध “पैसा जमा लिया जा रहा है। सुत्रों से यह भी पता चला है “बहुत मासूम “लोगों की “पलिसी मट्युर” होने के बाद भी, उनको उनका पैसा वापिस नहीं दिया जा रहा, “स्पेशल-कोर्ट ” ने इस बारे में “सी बी आई ” जाँच के लिए आदेश दे दी है, और इसी कारण “मल्टी फाइनैन्स” के “मुख्य और एमडी ” “दुर्गा प्रशाद मिश्र” के घर पर “सी बी आई ” ने छपा मारी भी की ....!!!!


 न्यूज को देख लेने के बाद मेरे बाबा विचलित हो गये। थोड़ी ही देर में “बाबा के “मोबाईल ” के समेत घर के हर एक “फोन” बजने लगे। घर के सारे लोग समझ नहीं पा रहे थे क्या हो रहा था उस वक़्त। “निमिष मात्र भी “फोन” बजाना बंद नहीं हो रहे थे। एक के बाद एक “जमा करिओं से लेकर बाबा के अधीन काम करने वाले “अजेंट्स और अधिकारियों” तक, “सब की “फोन” आ रहे थे। मेरे बाबा के जैसे होश ही उड़ गये, वो कुछ समझ नहीं पा रहे थे। उतने में बाबा के एक ख़ास आदमी “शरत पंडा” जी के “कल” आया, “जो उन्ही के तरह “कंपनी” के लिए एक दुसरे “जिल्हा के मुख्य थे” । बाबा बिना देरी किये “कॉल रीसीव” किये और “व्याकुल हो कर “आ रही खबरें की “स्तिथि” के बारे में पूछे तो जवाब जो आया वो ना सिर्फ दिल दहला देने वाला था, साथ ही साथ हमारे परिवार को तबाह कर देने वाला था ...!!!


खबर के फैलते ही, चारों तरफ “जमा करियों और “एजेंट” लोगो में हडकंप मच गयी। “कंपनी ” के “एमडी “दुर्गा प्रशाद मिश्र” को “सी बी आई ” ने “गिरफ्तार” किया और कुछ जानकारी मिलने से पहले ही “सी बी आई ” के कब्ज़े से उनका फरार हो जाने की बात जैसे ही फैली “मल्टी फाइनैन्स ” के बड़े उच्च “अधिकारी” सारे अपने अपने रास्ते “परिवारों के साथ “आत्म गोपन करने के लिए भाग निकले। “खबर “जैसे जैसे “फैलता गया “लोगों” के मन में, अपना पैसा डूब जाने का डर उतना ही सताने लगा। “जो जहाँ पर पैसा भरा करता था वही पर जा कर धरना देने लगे। गुस्से में आ कर लोग “मल्टी फाइनैन्स” के कई “ऑफिस” तोड़ दिए। जो “ऑफ़िस” तक जा नहीं सकते थे और सिर्फ “एजेंट” को पहचानते थे, वो “एजेंट” के घरों में जा कर “पैसे” वापस करने की मांग करने लगे। ऐसे में छोटे “एजेंट” हो या बड़े अधिकारी “जो परिवार के साथ भाग निकले भाग निकले, जो समय से पहले निकल ना सके वो और उनके परिवार “लोगो के “गुस्से का शिकार हो गये।


जिस तरह “कंपनी” के लिए “पलिसी ” करने में मेरे बाबा पहले “नंबर पर थे, वैसे ही “कंपनी’ के घोटाला के वजह से “लोगों का “गुस्सा ” का शिकार होने वाले “लिस्ट” में भी मेरे बाबा का नाम पहले आया। “बाबा” के उपर भरोसा करके “हमारे इलाका में जितने भी लोग “कंपनी” में निवेश कर रखे थे, “उनकी लाइन घर के सामने लम्बी होते जा रही थी। कोई भी बात सुनने को तैयार ही नहीं थे। सब के सवालों का जवाब देना “बाबा” के लिए “नामुमकिन था। बात तभी और भी मुश्किल हो गयी, जब उन “जमा करो” के लाइन में से “ड़ल्ली” के बाबा “सरत बाबू ” आगे हो कर आये, और वो भी तीखे शब्द में साफ कह कर चले गये की -“रिश्तेदारी अलग और “उनकी “जिन्दगी भर की कमाई की पूंजी अलग “अगर “रिश्तेदारी के बीच ये सब आया तो “वो ये रिश्ता ही तोड़ देंगे”.......!!!! 

ड़ल्ली” के बाबा के मुहँ से, इतनी बड़ी बात सुन कर “मेरे बाबा “सहना पाए “अचानक इतनी बड़ी धक्का उनसे संभाला नहीं गया, और उन्हें “पहली बार दिल की दौरा पड़ा”। मेरे घर वाले सब उन्हें तुरंत “हस्पताल” लेने की कोशिश की “लेकिन लोगों के इतनी बड़ी “सैलाब” जैसे हमारे घर के सामने उमड़ी पड़ी थी, के हम लोग उसे भेद कर समय रहते, पहुँच ना पाये, और बाबा के वो “पहला दौरा आखिरी में तब्दील हो गयी और मेरे बाबा नहीं रहे ..!!!


जान तो मेरे बाबा की गयी, पर हाल ऐसा था के “मेरे घर में सब लाश बन चुके थे, घर में मातम छाई हुई थी। “मुझे अचानक “ज़िंदगी ” की इतनी बड़ी करवट लेना , “कुछ समझ नहीं आ रहा था। बस गुस्सा आ रहा था “ड़ल्ली” के बाबा के उपर। क्यूँ की वो बाबा को अच्छे तरह जान ने के बावजूद भी पराया के तरह बर्ताव कर रहे थे, और तो और रिश्ता तोड़ देने की धमकी भी दिये, इसलिये मेरे बाबा का ऐसा हुआ। “शायद वो अपने जगह सही थे। वो एक “अवकाश प्राप्त सैनिक” थे और मेरे बाबा के कहने से ही वो अपने सारे “रिटायर के पैसे ” यहाँ निवेश कर दिए थे।


हर किसी को अपना “पैसा प्यारा होता है, उस वक़्त कोई वहां रिश्तेदारी या हम-दर्दी जताने नहीं आया था..! सब आपने पैसा का हिसाब मांग ने आये थे। पर उस वक़्त घर पर मातम होते देख, जैसे तैसे “लोग” बाबा के मौत को सामने रखते हुए निकल तो गये, पर शर्त ये भी रख गए थे की क्रिया करम के “10” बे दिन सुबह उन्हें उनकी जवाब चाहिए की उनके पैसा वापस कब और कैसे मिलेंगे ...!!!  


जिस तरह जोरों शोरो से “घर में ख़ुशियाँ और ठाट पाया था, उसी तरह जैसे झटके से सब कुछ ख़तम हो गया था । सब दोस्त धीरे धीरे मुझे से बात करना बंद कर दिए, क्यूँ की सब के घर वाले “पॉलिसी” से होने वाले नुकसान झेल रहे थे। और उन्हें लगता था की मेरे “बाबा” के वजह से उन्हें ये नुकसान हुआ । दोस्तों ने मेरा साथ छोड़ दिया, वो बात का दुःख तो था ही, लेकिन ज्यादा दुःख तब लगा जब “मेरे घर के “नौकर “भागीया” मेरे “गिरेबान ” पकड़ कर पूरे भरे बाज़ार मैं मुझे पैसे मांग कर बेइज्जत किया ..!!!


उस दिन बाबा के “10 दिन” क्रिया करम के लिए, जरूरी सामान लाने में बाबा के “ बुलेट गाड़ी ” ले कर बाज़ार गया हुआ था। बाज़ार से घर लौटते वक़्त अचानक मेरे गाड़ी सामने “भगिया” आ खड़ा हुआ। उसे देख, में बहुत खुश हुआ, लगा की काम में हाथ बांटने के लिए वो आया होगा । पर ऐसा नहीं था..... “उसे मेरे बाबा के “बुलेट गाड़ी” चाहिये थी। “गाड़ी” के “हँडल” पर हाथ रख कर, “हकलाते हुए कहा की.... “लोग कह रहे है तेरे बाबा के क्रिया करम ख़तम होने के बाद “अगर लोगों पैसा वापस ना कर पाऐ तो वो “घर और ज़मीन हड़प लेंगे और बेच कर मिल बांट कर ले लेंगे”..! मैं तो ग़रीब हूँ “जिन्दगी भर तेरे बाबा की और तुम लोगों की सेवा की है, मेरा क्या औकात है की मैं घर और जमीन पर कब्ज़ा करूँ “इसलिये मुझे ये “बुलेट” चाहिये..!!!! 


मैं ये सुनते ही बोला.. “नहीं मैं “अभी ये “गाड़ी” नहीं दे सकता। “ तो, मेरे मुंह से ना सुनते ही, वो मेरा “शर्ट का कालर ” पकड़ लिया...! ऐसा होते देख मैं चौक गया... देखा की वो अभी हमारा “नौकर “भगीया” नहीं रहा, जो मेरे बाबा के पाँव दबाता था, हम सब की सेवा करता था और हमारे शरण में पड़ा रहता था । 


 उस वक्त उसे बस उस के पैसे वापस पाने से मतलब था। मैं भरे बाज़ार में और बेइज्जत नहीं होना चाहता था, इसलिये में वहीँ पर “गाड़ी” उस के पास छोड़ कर सामान पकड़ कर, रोते रोते मेरे घर के और चला आ रहा था। सामान बहुत भारी था, चलते चलते यही सोच रहा था की “भगीया” “गाड़ी ” लेकर घर जाएगा कैसे..? “उस को तो “गाड़ी” चलाना तक नहीं आता, अगर होता तो थोड़ा सा “लिफ्ट” दे कर घर तक छोड़ भी देता, तो सही रहता। पर बे-शर्म की तहरा क्यूँ उसकी “हेल्प” लू, सोच कर मैं घर के ओर चला जा रहा था, तभी फट–फटाती आवाज़ से, गाड़ी बड़ी तेजी से मेरे बाजु से निकल गयी। तुरंत देखा की “भगीया” पीछे बैठा हुआ था, और चला रहा था “पंचू”...!!! “पंचानन मिस्त्री” जो हमारे गाँव का “राज मिस्त्री” का काम करता है। “वो शाले का नजर पहले से ही मेरे “गाड़ी पर थी। “भीख-मांगे” के तरह कभी कभी एक बार चलने को माँगा करता था। मेरे मना करने पर भी “कुत्ते” की तरह “दूम” हिलाते हुए पीछे पड़ता था। “लेकिन मौके का फायदा उठा के, इस कदर वो “भगीया” को पटा कर उस के जरिए “गाड़ी” को हतिया लेगा, यह सोचा नहीं था। बाद में सुनने को मिला की वो “भगिया” को “मिस्त्री” का काम सिखाएगा बोल कर यह सब करने को कहा था।   


जो भी हो “भगिया” की ये बर्ताव जान कर मेरे घर वाले और भी दुःखी हुए। और तो और “भगिया” के मुंह से सुनि हुई वो “घर ज़मीन पर कब्ज़ा” वाली बात सुन कर मेरी “ “माँ” और भी रोने लगी । उसे रोते देख बाकी सब भी रोने लगे । 

वो तो कम था, थोड़ी देर बाद और एक आफ़त या खड़ी हुई..! “ड़ल्ली” के बाबा अचानक घर पर आ पहुंचे। उन्हें देख कर हम सब रोना धोना को “बंद करते हुए “बंधु चर्चा” के लिए बैठ ने को कहने पर वो बिना बैठे ही “छुपाती हुई नज़रों से बोले की यह रिश्ता वो तोड़ना चाहते है ...! घबराते हुए जब हमने पूछा तो...., बोले की “डुरा” “आई ए एस ” पास कर चुका है, उस के “पोस्टिंग” से पहले कोई “पोलीस” “वेरीफिकेसन ” होगी, तब अगर पता चला की, उसके ससुराल वाले, ऐसे कोई “चिट फंड घोटाले ” में जडित है, तो उस के नौकरी को खतरा हो सकता है, तो, इसलिए यह शादी नहीं हो सकती ..!!!


 “मेरे घर वालो के लाख समझा ने पर भी वो नहीं माने, और गाँव वाले के गुस्से से “सही तरह बच के रहने का सलाह दे कर चले गये। यह सुन कर मेरी बहन “लिमि” एक दम टूट सी गयी, पर ना जाने क्यूँ..? “वो रोई नहीं.....!!! जैसे यह सब, “उसे पहले से पता चल गया हो...!!!! मेरी बहन “लिमि” अपना शादी का रिश्ता टूट जाने से कैसा महसूस करती थी, ये मैं अच्छी तरह समझ पा रहा था। पर मेरे प्यार को पाने का जो सपना मैं देखा था, उस पर खतरे का वो शंका पाते ही मैं एक दम हिल गया..!!! “ड़ल्ली” को खोने का डर मैं साफ़ महसूस कर रहा था । इसलिए बिना वक़्त गवाए मैं “ड़ल्ली” को फ़ोन कर के मिलने को कहा, पर जो जवाब आया वो मुझे चूर चूर कर देने वाला था और वो जवाब मुझे कही का नहीं छोड़ा । “बहुत बार फ़ोन कट करने के बाद आखरी बार, ना चाहते हुए भी, वो फ़ोन उठा कर, “हमारा मिलना अभी “संभव ” नहीं कह कर” फ़ोन रख दी। अपने बाबा की तरह “ड़ल्ली” अपनी बात भले ही साफ तरीके से कह ना सकी हो , पर मैं अच्छी तरह समझ गया.... की मेरे प्यार की कहानी मैं अब विराम चिन्ह लग चुका है..!!!!        

 

मेरे बाबा के जाने का दुःख कम नहीं था, जो यह चिंता और भी सताने लगी। लोगों की दिए हुई वो “10 दिन पूरे हो गये। अगले दिन क्या होगा सोच कर मेरी माँ “पागल सी हो रही थी। अचानक इतनी सारी “समस्या” किस घर में भला होती होगी। जैसे दुनिया भर के सारे “दुःख – दर्द” को कोई अपने ही घर का पता बता दिया हो । सब के रोने की आवाज़ से घर गूंज रही थी, बहुत रात हो चुकी थी, और मैं “ड़ल्ली” का इतना बड़ा बदलाव देख कर सदमे में था, तो मैं अपने “कमरे” मैं पड़े पड़े ग़म में डूब गया था। 

   

“अचानक मेरी माँ रोना बंद कर दी, और जैसे तैसे सब को समझाते हुए खाना खा कर सोने को कही। यह देख कर मेरी बहन भी अपनी रोना छोड़ कर माँ की बात मान गयी, क्यूँ की मेरी माँ का एक ही उसूल था , की कितनी भी “ग़म और परेशानी” क्यूँ न हो, रात को कभी भूखा नहीं सोना चाहिये….! और मेरे घर में, मेरे बूढे “दादा- दादी” जो थे, उनका ख्याल रखना भी ज़रुरी था।

मुझे लगा माँ और “दादा – दादी” का मन रखने के लिए, “लिमि” ना चाहते हुए भी उन के साथ, “दो मुठ भात खा ली हो। हमेशा की तरह “मेरी बहन “लिमि” और मेरी माँ, सब के साथ खाना खाने के लिए मुझे बुलाया करती थी, पर उस दिन मेरे एक बार मना कर देने पर, मुझे कोई दोबारा बुलाया ही नहीं। यह देख कर मुझे ताजूब नहीं हुआ, क्यूँ की इतनी परेशानी मैं कोई पना उसूल को कैसे याद रखता भला ...? 


 सब मिल कर खाना खा लेने के बाद, मेरी माँ और मेरी बहन “लिमि” अपने रूम में जाकर साथ सो गये। मैं हमेशा अपने कमरे में अकेला सोया करता था, पर ना जाने क्यूँ उस वक़्त मुझे बहुत अकेला महसूस हो रहा था, तो मैं “ उसी रोज ” “हॉल” में “दादा – दादी” का साथ सोने को सोचा और उठ कर “हॉल” में जा कर देखा सब खाना खा कर सो गए थे ।  

 उस रात मैं, सोये हुए मेरे “दादा – दादी” को देखा, की कितने मासूम हैं वो दोनों, और उपर वाले ने कितनी दर्द इस बुढ़ापे में उन्हें दे दिया। पहली बार मैं उन्हे बहुत ध्यान और आदर से देख रहा था। ना जाने क्यूँ मुझे उस वक़्त उन्हें बहुत प्यार जताने का दिल कर रहा था, मन कर रहा था की दिल खोल के बोलू... की मैं आप लोगो को बहुत प्यार करता हूँ, और वो मज़ा अकेले सोने मैं नहीं है जो आप लोगो के बगल मैं सोने से आता है। पर मैं उन्हें नींद से उठा कर और परेशान नहीं करना चाहता था । इसलिये मैं, बिना आवाज़ किये उनके बगल मैं जा कर लेट गया । 


लेटते हुए मैं अपने मन में रही सब के उपर गुस्से की बातें सोचने लगा “की इस हालत में ना जाने सब कैसे बदल जाते है। “वो मिस्त्री “पंचू , भगिया, डुरा, उस के घरवाले, “ मेरे सारे दोस्त” अचानक कैसे बदल गये। और “ड़ल्ली” भी आज मुझे इस हालत मैं धोखा दे गयी। यह सब से मेरा दिल में क्रोध और आँखों आंसूओं से भर जा रहा था.... तभी “ मेरे दादा जी मुझे समझाते हुए बोले की, गुस्सा करने से कोई मतलब नहीं। ये दुनिया ही ऐसी है, हर कोई अपने अपने मतलब से है और यही दुनिया का खेल है। दादा जी की बात सुन कर दिल को ठंडक तो नहीं पहुँच रही थी, पर कुछ करने के लिए कोई चारा नहीं बचा था मेरे पास। 


जैसे तैसे रात गुजरी सुबह हुई, और मेरी नींद उस दिन जल्दी खुल गयी। “नींद” खुल ने के बाद पता चला की मुझे दादा जी, जो सब समझा रह थे, वो सब सपना था, मेरे मन में रहा गुस्सा को सोचते, सोचते मैं सो गया था इसीलिए वो बात सपने में या गई थी। 

 उठ कर देखा घर ना जाने क्यूँ सुनसान लग रहा था। अक्सर ऐसे हमारे घर में कभी होता नहीं। कुछ भी हो जाये, मेरी माँ सूरज उगने से पहले उठ जाया करती थी। शायद उठ कर कहीं गयी होंगी, यह सोच कर, मैं कुछ देर और बिस्तर पर लेटा रहा। तभ , मैं अपने “दादा – दादी” को भी सोते हुए देखा, जबकि वे भी कभी इतने देर तक नहीं सोया करते थे। ऐसा लगा की सुबह के ठंडक से गहरी नींद लग गयी होगी। 

 तभी मैं उठ कर उन लोगो के लिए चाय लाने को, बहन “लिमि” को पुकारा। पर कई बार आवाज़ देने पर भी कोई जवाब नहीं आ रहा था, और ना हीं मेरे आवाज़ से पास में सोये हुए मेरे “दादा-दादी” की कोई प्रतिक्रिया मिल रही थी ..!!! “दादा-दादी” का इस कदर गहरी नींद में जाना, मुझे समझ नहीं आया, अजीब लग ने पर मैं हाथ लगा कर उन्हें उठा ने की कोशिश की, पर वो उठे नहीं.....!!! मैं घबरा गया.. !! भाग कर लिमी और माँ सोये हुए “कमरे” के ओर गया तो देखा की, मेरी माँ भी दादा दादी के तरह ग़हरी नींद मैं सोई हुई थी, बिलकुल भी हिल डुल नहीं रही थी..!!! तुरंत मुड़ कर “लिमि” को देखा की वो भी धीरे धीरे साँस लेना बंद कर रही थी...!!! यह सब देख कर मेरी दिमाग सुन्न पड़ गया...मैं बड़ी जोर से चीखा तो पड़ोस के लोग जमा हुए और इंसानियत दिखते हुए सब को “अस्पताल ” ले कर गये....!!!!


 उस दिन मेरी पूरी दुनिया ही उजड़ गयी..!! मेरे दादा, दादी और मेरी माँ ये दुनिया छोड़ कर मेरे बाबा के पास जा चुके थे ..!! मेरी बहन भी उन्ही की तरह, मुझे अनाथ बना कर उन के साथ जाने की पूरी तैयारी कर गयी थी... “पर समय रहते भगवान ने उसे मेरे लिए रोक दिया। 

“सब मिल कर “ मुझे अकेला छोड़ कर ऐसा कैसे कर दिये...? पूछ ने पर “दर्द भरी आवाज़ से मेरी बहन बोली.. “ सब कुछ तो उजड़ गया, मेरी शादी टूट जाने के बाद, मेरे से कोई शादी तो नही करेगा..!! लोगो के पैसा चुकाने के लिए बाबा के सारे “संपत्ति” इक्कठा करके बेचने पर भी हम चुका नहीं सकते, तू तो लड़का है भीख मांग कर भी दुनिया के किसी भी कोने में भी जी लेगा। पर मेरे जैसे मंगली लड़की और दो-दो “बुजर्ग को ले कर हम कहाँ भटकते थे.. ? इसलिये हम सब मिल कर जहर खा लिये ...!!! “पर तूने मुझे क्यूँ बचाया..? मैं जी कर क्या करुँगी ..?

बहन “लिमि” के मुँह से जवाब तो मिला, पर उस जवाब में भी बहुत बड़ा सवाल था...! यह मैं जनता था की, मेरे परिवार के लोग मुझे नालायक समझते थे, इसलिये वो मुझे कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपते थे। पर यह नहीं पता था की ऐसा होते होते उनकी नजर मे, मैं इतना बड़ा नालायक बन जाऊंगा की, वो आखरी वक़्त में भी मुझे अपना सहारा नहीं मान पाएंगे। “वो शर्मीनदिगी से, मैं अपने बहन का सवाल का जवाब तो नहीं दे पाया, पर सवाल मेरे मन में गूंज रहा था की ,क्या सच में मैं इतनी बड़ी “नालायक” हूँ ..? अब मैं क्या करूँ..? कैसे मेरे बहन की मन में, मैं आखरी सहारा होने की उम्मीद जगाऊ..? कैसे... कैसे...कैसे....?  


वही सवाल का जवाब ढूंढने और, अपनी बहन की आखरी उम्मीद पे खरा उत्तर ने , के लिए मैं, “बहन “लिमि” के आँखों में बेशुमार सपना भर के, उसे दूर के “मामा” के घर पे छोड़ कर आ गया “मुंबई”..!!

पर यहाँ आते ही, दुनिया के दूसरी छोर के बारे मैं पता चल गया। मेरे बाबा मुझे समझाते हुए कभी कभी कहा करते थे “जब तक मैं हूँ, तुझे कभी मेरी कदर नहीं रहेगी, पर मेरे बाद तुझे सब समझ आयेगा, की ये दुनिया कितना रंग बदलती है, ये सिर्फ पैसा की इज़्ज़त करती है, इंसानियत की नहीं । और ये बात मुझे अब समझ आ गया, वो भी पूरी तरह “प्रकटिकाली” । जिस के सहारा के भरोसे से में “मुंबई” आ पहुंचा वो मुझे अपने पास रखना तो दूर, कम से कम “Station” पर मिलने तक नहीं आया था । और में लावारिस के जैसे “Station” पर सोया हुआ था।


  

उस दिन “रैलवे स्टेशन” के कोने में पड़े पड़े सारी बातें सोचते हुए रात बीत गयी। सुबह की ठंडक की कारण मेरी आँख थोड़ी देर के लिए झपकी ले ली थी। पता नहीं चला की कब धूप निकाल आई और लोगों का चहल पहल भी शुरू हो गई। मेरी नींद तो पूरी तरह खुल गई थी, पर अभी दिमाग खुलना बाकी था। समझ नहीं आ रहा था की, जो सब हो रहा था, कोई बुरा सपना है या हक़ीकत..? मैं पूरी तरह सदमे मे था, और आपने साथ लाया हुआ ‘बैग’ को सिने से जकड़ कर बैठा हुआ था।  


 तभी कुछ किन्नर, वही पर पहुँच गए, और सबको पैसा मांग ने लगे। उनमे से, एक किन्नर मेरे सर पर हाथ रखते हुए पैसे देने को कहा, तो मैं १-रूपये निकाल कर, उसका शक्ल देखे बिना ही उस के और बढ़ा दिया। साथ ही साथ उस किन्नर का भी ध्यान मेरे शक्ल की ओर नहीं था, पर जब उस ने हाथ में १-रूपीय को देखा, तो चिल्ला कर कुछ और देने को बोलते हुए जैसे ही मूड कर मेरे शक्ल को देखा.... “आरे बाप रे बोलते हुए, अपने मुँह को छुपा कर, पहनी हुई साड़ी को घुटने तक उठा कर तुरंत वहाँ से भागने लगा। उसे भागते देख उस के साथी उसे पुकारते हुए, पूछने पर भी, अपनी साड़ी पकड़ कर वो ऐसे भागी, जैसे मेरी शक्ल नहीं कोई भूत देख लिया हो। मुझे भी वो बात कुछ समझ नहीं आया की, असल में हुआ क्या उस वक्त....!

थोड़ी देर, मैं, ऐसे ही बैठे बैठे सोचता रहा, क्या करूँ कहाँ जाऊँ..? फिर भी एक आस थी की, शायद मेरा दोस्त ‘केदार’ कहीं काम से फंस गया होगा, शायद उसका फोन खराब हो गया होगा। बे-शर्म के तरह अपने आप को समझाते हुए, मैं अपनी हर कोशिश करता रहा, पर कोई फायदा नहीं हुआ। अब उसे ढूंढने का कोई बहाना भी नहीं बचा था मेरे पास, और न ही घर जाने का कोई चारा। बस सोच लिया था यहीं मार जाऊँगा पर बहन का सहारा बने बिना मैं वापस घर नहीं जाऊंगा।    


सुबह से दोपहर हो गई और शाम से रात, पर कोई ऐसा सहारा नहीं मिला, जहां अपना सर गौंज सकूँ। परेशानी के मारे भूख भी लग रही थी पर खरीदा हुआ २ बड़ा-पाव भी खा नहीं पाया क्यूँ की खाने के दौरान ही पास में खड़े २ भूखे बच्चे के ऊपर नजर गिरी जो स्टेशन पर भीख और खाना मांग रहे थे। उनको देख तो हलक से खाना उतरा नहीं इसीलिए लिया हुआ २ बड़ा पाव उन्हे दे दी।  


हर रात मेरी स्टेशन पर गुजरेगी यही मन को समझा कर मैं स्टेशन पे ही, सोने के लिए लोगों का चहल पहल थमने का इंतजार कर रहा था। तभी देखा की दूर से वही किन्नर अपने साथीयों के साथ खड़े हो कर मेरे ओर देख रहा था। मेरी नजर उन पर पड़ते ही, वो मेरे पास आया, जो सुबह मुझे देख कर भाग खड़ा हुआ था। मेरे पास आकार पूछा .... ‘ ऐ सलमान पहचाना....? मैंने कहा नहीं....तो बोला अरे मैं ‘वसंत’.... मैं पूरे गौर से देखा की वो तो मेरा दोस्त ‘संतोष’ का गाँव का लड़का वसंत’ था..! जो किन्नर के रूप धारण कर के वसंत’ से वसंती बन गई थी।  

      

 मैं उसे , उस रूप मे देख कर हैरान हुआ। सिर्फ इसीलिए नहीं की उसका भेष देख कर मैं पहचान नहीं पाया, बल्कि इसीलिए भी था की, गाँव मे तो उस की अच्छी खासी नौकरी और कमायी की बोल-बाला था। और उसी बोल बाला का कहीं भांडा न फुट जाए इसीलिए वो मुझे देख कर भाग गया था। पर सही समय पे, उसे मेरा एहसान याद या आ गया।     

इस तरह लड़की पना करने के वजह से ही, वो एक बार गाँव मे कुछ शराबीओ के चुंगल मे फँस गया था। तभी मैं उसे उसी दिक्कत से बचाया था। इसीलिए इज़्ज़त बचाने के लिए पूरा दिन दूर से मेरी बेबसी देख कर भी वो मेरे पास आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। पर मेरे बारे मे उस के मुँह से सारे बात सुन ने के बाद, उसकी साथी किन्नर सह ना पाए, और उसी एहसान के बदले उस को समझाने पर वो मुझे इंसानियत दिखाने मेरा पास आ गया।

एक ही क्षेत्र के होने के कारण, मेरे और मेरे परिवार के साथ घटी हुई सारी बातें तो उसे मालूम थी ही, पर मैं इस तरह स्टेशन पर रात बीता रहा हूँ, ये बात उस को मुझे देखने के बाद पता चला।           

डूबते को तिनके के तरह वो मुझे छोटा सा सहारा देने के लिए तैयार हु । जब तक मुझे कोई दूसरा सहारा नहीं मिल जाता, तब तक मैं उस के साथ उन किन्नर के बस्ती मे रहने के लिए, वो अपने साथीयों से इजाज़त ले लिया। कुछ और रास्ता तो नहीं था मेरे पास, इसीलिए मैं बिना कुछ सोचे उस के साथ रहने चल गया ।   

पर वो कहते है ना, किस्मत मे जब उल्लू बैठा हो तो इंसान भला करे तो क्या करे..? एक तो मैं था ‘अन्डर ग्रैजूएट’, वो भी हालत के मारे बिना कोई सर्टिफिकेट के २-जोड़ी कपड़े मे ही, आ गया था मुंबई। कहीं तो कोई ढंग की नौकरी मिलना तो दूर, जैसे तैसे एक कॉल -सेंटर मे नौकरी मिल गई थी, पर कुछ ही दिन काम करने के बाद ही , लोकल-अड्रेस, वेरीफिकेशन के दौरान, किन्नर के बस्ती यानि रेड-लाइट एरिया मे रहने के वजह से वो भी चली गई…!!


पूरे १५ दिन फूकट मे काम करने के बाद ये समझ आ गया की, बिना लोकल –अड्रेस और रेफ़िरंस के, इस शहर मे अच्छी नौकरी मिलना असंभव जैसा ही है। तो मैं उसी बस्ती मे रह कर ही एक बिहारी बाबू के साथ रोज की मजदूरी के लिए जाने को मजबूर हो गया। सोचा कुछ दिन मजदूरी करने के बाद, कोई सही जगह देख कर अपना एक छोटा सा कमरा ले लूँग । फिर कोई अच्छी नौकरी के लिए प्रयास करूंगा। पर जिम्मेदारी इतनी बड़ी की इतनी मेहनत से कुछ नहीं होने वाला था।    

रोज के १०० रुपये के हिसाब से पूरे ३० दिन कड़ी मेहनत करने के बाद हाथ मे ३००० रुपये थे। पहली बार अपनी मेहनत की कमायी का एहसास हो रहा थी मुझे। पर थोड़ी देर बाद खाना और रहने का हिसाब देने के बाद हाथ मे कुछ १००० रुपये बच गए थे। और तुरंत ये भी एहसास हो गया की ऐसे पूरे जनम भी काम करता रहा तो मैं अपने लिए एक खोली भाड़े पे लेना तो दूर अपने बहन को गाँव मे २ वक्त दाना पानी के लिए भी पैसा जुटा नहीं सकूँगा।   


कोई और विकल्प न होने के कारण मैं बड़ा उदास था। तभी गाँव से बहन लिमी के फोन आया, उसे मेरा खयाल तो था, पर उसे ज्यादा ‘डुरा’ के , किसी और के साथ शादी तय होने के खबर से वो ज्यादा दुखी थी । फोन पर उसका रोना मैं सह नहीं पा रहा था, उस को थोड़ी बहुत तस्सली दे कर मैं फोन को रख दिया।  उसे तो झूठा तस्सली दे दी, पर मुझे तस्सली नहीं हो रही थी। इसीलिए मैं अपने ग़म को थोड़ा दूर करने के लिए बिहारी बाबू का बताया हुआ रास्ता को अपनाते हुए थोड़ा सा दारू के सहारे रात निकाल देने को सोचा, और स्टेशन के पास वाले एक ‘बार’ के अंदर घुस गया।


ज़िंदगी मे पहली बार मैं मुंबई मे कोई ‘दारू अड्डे ’ के अंदर घुसा था । इस तरह दारू के अड्डे मे बैठ कर पीने की तजुर्बा नहीं थी मुझे। अंदर घुसते ही मैं खाली पड़े टेबल पर जा कर बैठ गया, और बैठते ही वेटर आ कर ऑर्डर देने को कहा। मेरे जेब मैं जीतने पैसे थे उसका खयाल तो था मुझे, इसीलिए मैं ‘बार’ के सबसे सस्ता दारू लेने को कहा। मेरे मुँह से ऐसे सस्ते लब्ज सुन कर ही, वेटर मेरे औकात के बारे मे भांप गया था, और तुरंत ही बाजू के देशी दारू वाले अड्डे मे जाने को सलाह दे दी। उस के वह सलाह सुन कर मैं अपने मन ही मन, खुद के उपर हो रही परिहास को ले कर सोचते हुए बोला .... नहीं, मैं देशी दारू नहीं पीता, मुझे यहीं कुछ थोड़ा पीना है , ‘वेटर’ मेरे भावनाओं को समझते हुए एक सस्ती दारू का छोटा बोटल ले कर आया ।      


 मैं उस दारू को ग्लास मे डाल कर पीने ही वाला था की, एक बुजुर्ग आदमी ‘बार’ के अंदर घुसा आया। वेटर लोगों के रुकने पर भी बिना सुने वो हर एक टेबल पर बैठे लोगों के पास जा जा कर कुछ खाने को मांग रहा था। बस एक वड़ा-पाव, सिर्फ एक वड़ा-पाव, कहते हुए वो गुजारिश कर रहा था। उस बुजुर्ग को इस तरह भूखा खाने के लिए माँगता हुआ देख, मुझे दया आ गयी, उसे देख कर जैसे मुझे मेरे दादा जी याद आ गए, तो मैं वेटर के मना करने के बावजूद भी, मैं बिना सुने उस बुजुर्ग को अपने पास बुला लिया, जो वेटर को अच्छा नहीं लगा शायद .. 


वो बुजुर्ग आदमी जैसे ही मेरे पास आ कर टेबल पर बैठा, तभी मुझे खयाल आया की ये वही आदमी है, जिस को मैंने रेलवे स्टेशन पर देख चुका था । खैर उनको सिर्फ एक वडा–पाव ही तो चाहिए थी, तो मैं १०-रुपये निकाल कर उनके ओर बढ़ा दिया, पर वो पैसे को लिया बिना ही , गुजारिश करते हुए थोड़ी सी दारू पीलने के लिए बोले..! उन के मुँह से दारू की मांग सुनते ही, मैं हिल गया, मैं ज़िंदगी में पहली बार किसी भिखारी को खाने के वजाये दारू मांगते हुए देख रहा था। मेरे आश्चर्य होते हुए शक्ल को देख पास खड़ा वो वेटर बड़ा मज़ा लेने लगा और, वो उस बुजुर्ग को और उकसाते हुए, मुझे बिना पूछे ही ऑर्डर देने को कहा...भगवान जाने वो आदमी ने कौन सी दारू ऑर्डर की, या फिर कौन सी ऑर्डर वेटर ने ली... जो भी हो, बिल तो एक ही ऑर्डर मे १२००- रुपये का पार हो चुका था। ताज्जुब तो और भी तब लगा वेटर ग्लास टेबल पर रखते ही और मेरे पलक झपकने से पहले ही वो बुजुर्ग आदमी गिलास खाली कर गया था ..!!!!  


ठीक उसी तरह पुनः ऑर्डर देने के लिए वेटर के उकसाते वक्त, मैंने वेटर को रोक दिया, और फाइनल बिल लाने को कहा तो वो बुजुर्ग मेरे उपर बहुत भड़कते हुए बोले .... ‘ अगर तुझे पीलाने की इच्छा नहीं थी तो मुझे पास क्यूँ बुलाया... ? थोड़ी देर और किसी टेबल वाले को मांग ने लगता तो मेरी रात भर की इंतज़ाम हो जाता। अब ऐसे अधूरा पीला कर मूड की माँ -बहन क्यूँ कर दी.... ?


मैं वो बुजुर्ग आदमी से ये सब सुन कर बड़ा दुखी हुआ, मैं तो बस उनके मदद करने पास बुलाया था । पता नहीं था की ये सब हो जाएगा। मैं उनको माफ़ी मांगा, और माफ़ी के बदले वो मेरा पूरा दारू पी कर चले गये   

आया तो था, मैं अपना ग़म थोड़ा काम करने, पर २००- रुपये के ज्यादा बिल ने मुझे और दिक्कत मे डाल दिया। शर्म के मारे वसंत को भी बुला नहीं सकता था । पर बार के मालिक ने मेरी मासूमीयत देख कर २०० रुपये माफ़ करते हुए, बाकी सब पैसे ले कर,ऐसे ठरकी बूढ़ों से से दूर रहने की सलाह दे कर छोड़ दिया ।  


दारू तो पी नहीं पाया, अगर भूखा रहूँगा तो रात कटेगी नहीं सोच कर मैं अपनी जेब खंगाला तो, १०-रुपये की वो सिक्का निकाला जो मेरी माँ ने मुझे घर पर लक्ष्मी पूजा के दौरान अपने जेब में हमेशा रखने को दी थी। उसके अलावा और एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी मेरे पास। सोचा खाऊ या नहीं, आखिर मे अपने भूखे पेट को समझाते हुए बिना वडा-पाव खरीदे वहीं से लौट ही रहा था की तभी फिर वहीं वो बुजुर्ग आदमी पहुँच गया और मेरे साथ किये बरताव पर माफी मांगते हुए एक वडा-पाव खिलाने को कहा। पता नहीं क्यूँ फिर मुझे उस की बेबसी देखी नहीं गया। क्यूँ की मैं जितनी बार उन्हे देखता था उनमे मेरे दादा जी नजर आते थे जिन्हे मैं जीते जी प्यार नहीं दे पाया था। मैं बिना सोचे अपनी ज़ज्बात को काबू करते हुए, वो १०-रुपये के सिक्का दे कर उनके एक वडा-पाव खिला दिया । 


पता नहीं बस उस दिन से वो आदमी मेरे उपर क्यूँ इतना भरोसा कर लिया था। तब से वो रोज स्टेशन पर मेरे काम से लौट ने का इंतजार किया करता था और मेरे पास जब जो होता था वो मैं उन्हे खिला दिया करता था। ऐसे में मुझे बड़ी खुशी महसूस होती थी । ऐसा लगता था जैसे पूरे मुंबई मे यही एक बुजुर्ग है जो मेरा अपना जैसा था , जिस को मेरी और मुझे जिस की जरूरत सी हो गई थी।      

                

 ऐसे कुछ दिन बीत जाने के बाद भी, मुझे उनका नाम तक पता नहीं था । कभी अगर उनके बारे में कुछ पूछो तो बस वही , घिस पिटा श्लोक को आधा अधूरा बोलते हुए बात को टाल देते थे और मेरे दिया हुआ खाना खाते हुए रोज पूछा करते थे,... कहीं तेरे उपर कोई शनि दशा तो नहीं....? किसी ज्योतिष ने तेरे को कहा तो नहीं..? के, किसी काले कुत्ते को रोटी डाल, किसी गरीब को खाना खिला , वस्त्र दान कर, तो शनि दशा टाल जाएगी..? 

  मैं उन्हे समझाते हुए कहा करता था ... ‘ ऐसा कुछ नहीं है , क्यूँ की मैं जानता हूँ की मेरे उपर जो ज़िम्मेदारी है , वो मेरे इस कमाई से कुछ नहीं होने वाला। अगर मेरा कुछ नहीं हो सकता, तो कम से कम इस मेहनत के फल किसी भूखे का तकलीफ़ तो काम कर सकता है ना, और उसी से मुझे थोड़ी खुशी महसूस होती है.....मेरे मुँह से सिर्फ इसी खुशी के लिए कर रहा हूँ सुनते ही उनको भरोसा सा हो गया की , मैं उन्हे हमेशा खाना खिलाऊँगा.....  

महीने भर ऐसा ही चल ता रहा, मैं काम से लौट कर बस्ती जाए बिना उन्हे मिला करता था। उन्हे थोड़ा बहुत इंतज़ाम से खाना दिया करता था और बदले मे अपने साथ घाटी हुई दुख भारी बातें, सुनाया करता था। हम दोनों की जोड़ी जम गयी थी, क्यूँ की मुबंई जैसे भागदौड़ के शहर में ना कोई मेरा दूखड़ा सुनने वाला था और ना ही उस बेघर भिखारी बुजुर्ग को कोई सुनने वाला था। फिर भी हमेशा मुझे ऐसा लगता था की, बूढ़ा दारू पी लेने के बाद, मेरी दुख भरी कहानी सुन नहीं रहा था, पर फिर भी मैं उसे पागल की तरह अपनी आप बीती सुनाया करता था, जो कहानी दिन बढ़ने के साथ साथ और भी दुख भरी होते जा रही थी.....!!!!      


दिल हल्का करने के लिए और था ही क्या मेरे पास... ? पूरा दिन मैं मेहनत करता था, और रात को बचा खुचा तकलीफ का सहारा बना बसंत का तो काम ही रात को ज्यादा रहता था । दिन भर काम करने के बाद उस पतरे के छोटे से कमरे मे घुसने को मन नहीं करता था। लोग कहते है तकलीफ़ की सीमा पार हो जाने के बाद इंसान पागल हो जाता है दीवारों से बातें करने लगता है, मेरा भी हालत कुछ ऐसा ही था, बस मैं दीवारों को या खुद बड़बड़ाने के जगह, एक ऐसा आदमी ढूंढ लिया था जो मेरे आप बीती बिना कोई सवाल के सुन तो रहा था....


ज़िंदगी के सारे अरमान तो मेरे बाबा के साथ ही बिखर गए थे, बहन लिमी को दे कर आया हुआ भरोसा और हौसला भी मुंबई आ कर पूरी तरह टूट चुका था । करने कुछ नहीं था मेरे पास। हमेशा खुद को सवाल करते हुए दिन जाते थे ऐसा और कितने दिन.. आज नहीं तो कल बहन को दिया हुआ हौसला जवाब दे देगा....!!!! और तब.... फिर तब क्या होगा...? 

क्या कहूँ बदकिस्मती का टाइमिंग तो देखो...एक दिन काम पर से लौटने के दौरान अचानक मेरी बहन का फोन आया... मैं जनता था की मेरी बहन डुरा के शादी होने का खबर से परेशान थी, और वो कल करके सिर्फ उसी बारे मे बोल कर ही रोएगी, पर यह नहीं पता था की, साथ ही साथ कुछ और भी खबर सुनाएगी ,..!


खबर ये थी की, डूरा की शादी के दिन ही, ड़ल्ली की भी मंगनी होने वाली थी ..! ड़ल्ली किसी और से शादी करने के लिए तैयार हो चुकी थी, यह सुन लेने के बाद मैं अपने बहन के ग़म को और भी ज्यादा महसूस करने लगा...उतना काफी नहीं था तो फिर, मुझे झकझोर देने के लिए मेरी बहन मुझे और एक झटका देने की बात बोल दी... ‘जीते जी वो डूरा के किसी और के साथ शादी होते हुए नहीं देख सकती थी , और उस को अच्छी तरह से पता थी की, मैं अपनी लाख कोशिश के बाद भी उस की प्यार को नहीं रोक सकता था... इसीलिए यह फोन उसका आखिरी फोन कहते हुए वो जैसे ही फोन रख दी ...! मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गए, तुरंत ही मेरी बहन को पुनः फोन मिलाया पर उसका नंबर बंद हो चुका था... मैं घबरा कर इसको उसको -फोन लगा कर, मेरी बहन को बचाने के लिए गिड़गिड़ाने लगा, लेकिन कम्बख्त कोई भी उस वक्त मेरे फोन नहीं उठाए , और जो उठाए वो भी मेरे तरह मेरी बहन रह रही जगह से दूर थे...!!!


ऐसा लगा मैं सब कुछ खो चुका हूँ, और इस संसार में जीने का कोई वजह नहीं रह गया था मेरे पास...., इसीलिए मैं भी इस बेतुकी जान को ना रखने के लिए फैसला कर लिया....!!!! तभी मैं उस बुजुर्ग के लिए रोज की तरह लाया हुआ खाना दिए बिना ही, बस्ती के कमरे मे चला गया, रात के ११-बज चुके थे , बसंत भी उस की माँ की तबियत बिगड़ ने से तत्काल उसी शाम ही, गाँव के लिए निकाल गया था, और उस के साथी रोज के तरह अपने रात की कमायी के लिए निकाल गए थे। मेरा ध्यान भटकने के लिए कोई भी उस वक्त नहीं था, इसीलिए उसी जोश के साथ मैं फाँसी लगा कर मर जाने को तय किया और पतरे के वो कमरे मे लगी पंखे मे फाँसी की रस्सी को बांध कर अपना गला रस्सी को देने ही जा रहा था की, वो बूढ़ा आदमी अचानक उड़खया हुआ दरवाजा को धकेल कर कमरे में घुस आया ...!!!  


जाहीर है मेरी उस हालत को देख कर कोई भी इंसान मुझे समझाते हुए मरने से रोक ना चाहिए था ना... मगर नहीं... वो तो होना दूर की बात, उलट उन के लिए खाना अभी तक दिया क्यूँ नहीं पूछ कर बिगड़ने लगे। और जल्द से जल्द उस के लिए खाने का इंतज़ाम करने को मांग करने लगा। अक्सर मेरे जैसे हालत में कोई और होता तो तुरंत अपना आपा खोकर उस आदमी को वहीं से भाग देता, पर मैं यह व्यवहार से ताजुब नहीं हुआ..... क्यूँ की उस के हाथ मे बहुत बड़ी दारू की बोतल पता नहीं कहाँ से लग गई थी, शायद ये उस दारू का कमाल होगा सोच कर, मैं वो बात को दिल पर लिया नहीं और सोचा मरते मरते आखिर क्यूँ किस की दिल दुखाऊ, इसीलिए तुरंत जा कर उनके मन मुताबिक खाना ले आया, बच हुआ पैसों की कोई अहमियत अभी बची नहीं थी, इसीलिए बाकी के पैसों के दारू भी ले आया, सोचा थोड़ा सा गटक लूँगा तो आत्म हत्या के लिए हिम्मत मिलेगी....!!!!

          उस बुजुर्ग के लिए खाना लेकेर बस्ती पहुँचने के दौरान ही, मैं दारू की बड़ी बोटल में से आधी ख़तम कर दी थी, नशा तो बहुत जोरों से पकड़ी थी मुझे और उसी नशे में ही हिलते डुलते में बस्ती के उस कमरे मे वापस पहुँच जहाँ वो बूढ़ा मेरा इंतजार कर रहा था...! मैं लाया हुआ खाना उस के सामने रखते हुए मैं बोला.... ‘देखो आज के बाद मैं तुम्हें और खाना नहीं खिला पाऊँगा । तुम किसी और को ढूंढ लो, कहीं और अपना इंतज़ाम कर लो, क्यूँ की कल मैं आपको खाना देने इस दुनिया में नहीं रहूँगा ।   

 बूढ़ा मेरे मुँह से ऐसी बात सुन कर थोड़ा मेरे बात पर पहली बार गौर करने लगा। तभी मेरे दिल के किसी कोने से थोड़ा आस जागी की, शायद वो मुझे कुछ समझा कर खुद खुशी करने से रोकेगा। पर खाक …. हुआ उस के विपरित..... नशे में धूत बूढ़ा मुझे सिर्फ एक बार पूछा.... तो तू सच मे मार जाएगा...? 

                मेरे मुँह से ज़ज्बाती भरा हाँ सुन ने के बाद, वो मुझे बचाने के बजाय मरने के आसान उपाय बताते हुए बोल की.... ‘देख मैं भी जब अपने ज़िंदगी में हर चुका था, मरने के लिए आसान उपाय ढूंढा करता था, और सबसे आसान मुझे जहर लगा, इसीलिए मैं इस जहर के पुड़िया को हमेशा साथ ले कर घूमता हूँ....! जिन दिन मुझे लगा की मुझे जीने मे मुश्किल हो रही है, उसी दिन मैं इसके जरिए मर जाऊँगा....!!!! पर मुझे लगता है अभी मुझे इस की जरूरत नहीं है, और तेरे जैसे कई मूरख लड़के मुझे मिल जाएंगे, जिनको मैं आसानी से काम निकाल सकता हूँ । और कुछ दिन ज़िंदगी को फिर जी लूँगा...., तो मुझे लगता है की, इस जहर की पुड़िया की सख्त ज़रूरत मुझे नहीं तुझे है...तो तू एक काम कर बची हुई दारू मे जहर मिला और गटक जा.... सुबह तक साफ हो जाएगा, मैं मुंसिपालटी वालों को खबर कर दूंगा वो तेरे लास के ठिकाने लगा देंगे !!!!  


उस बे दर्दी आदमी से यह सब सून कर मुझे बहुत रोना आया , पर दुख इसीलिए नहीं थी क्यूँ की उस से मुझे कोई ज्यादा उम्मीद ही नहीं बची थी । जहर का पुड़िया मेरे हाथ मे थमा कर, वो तभी वहीं से निकाल गया था । उस वक्त नशे से चूर था मैं, और उसका दिया हुआ जहर का पुड़िया को बिना सोचे समझे बची हुई दारू के बोटोल मे मिला कर पी गया...!!!! पीते ही मेरे आँखों के सामने अंधेरा छा गया, ऐसा लगा की मैं इस दुनिया मे आखरी साँसे ले रहा हूँ...!!!! तब मरते वक्त अचानक मुझे कमरे मे रहने वाले बिचारे किन्नरों का खयाल आया, अगर इस तरह मैं उस कमरे में मरता तो उन्हे बहुत तकलीफ़ हो जाती, इसीलिए मे उसी अवस्था में ही उसी वस्ती से बाहर निकल कर रेलवे पटरी के और भागने लगा। अचानक मेरे आँखों में आती हुई मुंबई लोकल ट्रेन की फोकस लाइट चुभते हुए पड़ी, और मेरा आंखे हमेशा के लिए बंद हो गया....          


 मेरी चेतना शक्ति से मुझे यह महसूस हुआ की शायद मैं अबतक यमपुर के लिए निकल चुका हूँ, पर ऐसा नहीं था ...! अगले दिन जैसे ही मेरी आँख खुली, पता चला की मैं एक आलीशान बंगले में आलीशान बिस्तर पर सोया पड़ा था । ऐसा लगा कहीं मैं स्वर्ग पूरी तो नहीं पहुँच गया... ?

ठीक से आँखें बिछा कर देखा तो पाया की, जिश गद्दा पर मैं सोया हुआ था वो सिर्फ ओर सिर्फ पैसों की गड़डी से भरा हुआ गद्दा था । मुझे समझ नहीं आ रहा था की, वो कोई सपना है या हकीक़त....!!!! हालत के तसदीक करने लगा तो मेरे पैरों के नीचे एक चिट्ठी पड़ी हुई मिली, जो मेरे लिए कोई छोड़ गया था, और उस पे सिर्फ ओर सिर्फ यह लिखा गया था की....!!!!!!!!!!!!   


जो करे मेरी आस , मैं करूँ उसका सर्वनाश,

गर फिर भी ना छोड़े मेरा साथ..तो.. मैं बनूँ उसके दास का भी दास..!!!


चिट्ठी पढ़ने के तुरंत बाद ही यह समझ आ गया था की, भिखारी समझ कर जिनके साथ मे इतना दिन बीता रहा था, वो कोई और नहीं, मशहूर और चर्चित ‘मल्टी फाइनैन्स के एम.डी दुर्गा प्रशाद मिश्रा थे । 

सच माने तो मैं उस दिन सच मे अपने आपको ,एक नालायक ही समझ रहा था , क्यूँ की जिस आदमी को पूरा ऑडिशा के आबाम आँख बंद करके पहचान लेगा, मैं उसे पूरे ६-महीने साथ रह कर भी, पहचान नहीं पाया.....!!!!!   


जिन के वजह से यह कंपनी इतनी तरक्की कर रखी थी, उन्ही के बेटों के गलत परिचालना / मनेजमेंट के वजह से, धीरे धीरे ये कंपनी ख्यातिग्रस्त होने लगी , और समय रहते उस हालत का साधन ढूंढ ने के बजाय, वे ये सब से बचकर निकलना ही सही समझे, और उन लोगों के पास और कोई विकल्प ना होने के कारण अपने ही बूढ़े बाप को फंसा कर खुद अपने लिए सुरक्षित ज़िंदगी चुन लिए....!!!!  लेकिन ऐन वक्त पर, सारे ख्यतग्रस्त लोगों को पाई-पाई वापस चुका कर दुर्गा प्रशाद मिश्रा जी खुद को सही साबित करना के लिए फैसला किये...!!!! अचानक बूढ़ा बाप के यह फैशल लेते हुए देख कर, उनके बेटों को लगा की, उनके बाप उन्हे भिखारी बना कर लोगों के कल्याण के लिए ये सब कर रहे है, तो वो अपनी षड़यंत्र से, उन्हे मरवाने की कोशिश किये....!!!!! उनको अंदाज नहीं था की उनके बाबा अपनी खुपईया तरीके से कुछ ‘फंड’/पैसे ऐसे भी रखे हुए थे, जिस से पूरा हालत सुधर सकती थी....! 


समय से पहले कुछ सूत्रों से उनके जान को खतरा होने की खबर पा कर दुर्गा प्रशाद मिश्रा अपनी छल रचते हुए खुद को गायब करवा कर एक गम नाम ज़िंदेगी जी रहे थे । पर उनको ऐसा कोई वारीश की जरूरत थी, जो उनको सगे औलाद से भी ज्यादा वफादार लगे, और सही जगह सही समय पर मेरे नादान्गी  ओर निस्वार्थ ब्यबहार उन्हे भा-गई.....पर फिर भी मुझे और तराश ने के लिए वो मेरे धैर्य का इम्तिहान लेते रहे, और मैं अनजाने में उनके सारे इम्तिहान में उतिर्न होता चला गया.....!!!! 


इसीलिए डॉक्युमेंट्स के तौर पर सारे जायदाद और ज़िम्मेदारी को वो इस तरह मेरे नाम कर गए थे की, ऑडिशा चिट-फॉन्ड से प्रभाबीत सारे लोगों को पैसा करने के बाद भी मेरे पास अरबों बचें...!  


जैसे पालक झपकते ही सब छिन गया था मेरा, अब अचानक पालक खुलते ही सब बदल गए थे, उस पैसों से मैं अपने माँ-बाबा और दादा–दादी को तो पुनर्जनम नहीं दे सकता था लेकिन, मेरे बहन ही ख़ुशी जरूर ला सकता था, सोचा काश ये सब एक दिन पहले ही हो सकता था । 

      फिर अचानक बहन का खयाल आते ही, मैं तुरंत अपने जेब में से मेरा छोटा मोबाईल निकाल कर फोन लगाने जा ही रहा था, की देखा गाँव से मेरा दोस्त बसंत का ५०-मिस-कल हो चुके थे...!!! मैं दिल पे हाथ रख कर उसे फोन किया, किसी भी हालत पर मैं और कोई बुरा खबर नहीं सुन ना चाहता था.... और भगवान ने मेरी सुन ली, मेरी बहन एक दम ठीक थी...। 


खबर सुनते ही, मैं चैन की सांस भर ही रहा था की, ५- सिक्युरिटी-गार्ड के साथ साथ, २-पर्सनल असिस्टान्ट और एक पर्सनल-वकील मेरे सोये हुए कमरे के बाहर मेरा इंतजार कर रहे थे... हाँ हाँ चौंकिए मत वे सब मेरे लिए ही थे....!!!! 


अचानक सब बदल गया था.... पर्सनल हेलिकपटोर से मैं ऑडिशा गया...जिस तरह ब्रेकिंग न्यूज मेरे परिवार का तबाही हो चुका था, ठीक उसी तरह, अचानक मेरे इस नए अवतार के ब्रेकिंग न्यूज फैलते ही पूरा, ऑडिशा हिल गया था । चारों तरफ दुर्गा प्रशाद मिश्रा ओर मेरे नाम की बोल बाल था । और सब को अपने पैसा वापस मिलते ही, मेरे एरिया में मेरे बाबा के भी लोग आदर से नाम लेने से तरस गए थे। 


मारी बहन इस तरह के चमत्कार का महीनों तक भरोसा नहीं कर पाई, हर घड़ी वो अपने आपको चुमटी काटति रही....भरोसा उसे तब हुआ जब, पैसा वापस पाते ही डुरा के बाबा माफी मांगते हुए, झुकते नजरों से उस की डुरा के लिए पुनः रिश्ते के लिए हाथ मांगने आए थे....!!!! और अपने बहन के ऊपर गर्व मुझे तब हुआ जब वो डुरा के रिश्ते को उस के बाप के मुँह पर मना कर दी.... 

लेकिन हर बार जैसे कहानी में एक हैप्पी एन्डिंग की जरूरत होती है वैसे है ये मेरी दुख भरी कहानी में और मेरे नजर में किसी के लिए कोई ‘गुस्सा, हिंसा, बदला, लोभ का कोई जगह नहीं था... इसी लिए मैं डुरा के दिल की बात को समझते हुए, अपने बहन को शादी के लिए राजी करवा लिया.... और ‘ड़ल्ली’ अभी भी मेरे आगे पीछे दूम हिलाते हुए पड़ी हुई है.... 


लेकिन हर बात की एक बात, जिसे के बदौलत ये सब मिला...वो कहाँ थे... मैंने प्रॉपर्टी के साथ सौंपे हुए वो असिस्टेट और पर्सनल-वकील को पूछा और उनके पास भी वही जवाब था, जैसे वो मुझे मिले थे, वैसे ही इन लोगों को भी मिले थे.....  

तभी से लेकर आज तक मैं उनको ढूंढ रहा हूँ, ना जाने वो कौन से भेस पकड़ कर घूम रहे होंगे....और फिर पता नहीं कैश की किस्मत चमकेगी.....इशीलिए बोल रहा हूँ, यह कहानी सुन कर हो या फिर इंसानियत के नाते... कभी किसी को छोटा मत समझ ने की गलती मत करना.... दया का हाथ हमेशा आगे रख ना ...!!!!    


एक गुरु ज्ञान 

इंसान हमेशा किसी को मदद करने से पहले, बदले में कुछ ना कुछ अपनी स्वार्थ ढूंढता रहता है । अगर आज किसी दोस्त की १००-रुपए की मदद की तो, कल अपनी जरूरत के दौरान वो २००-रुपये की आस लगाए रहता है । कुछ नहीं तो काम से कम किसी के मदद के दौरान भगवान की याची दुआ की आस करने लगता है। लेकिन इस कहानी में जो पात्र बिना आस लगाए मदद का हाथ बड़ाया उस का कोई स्वार्थ नहीं था। और कहानी में सीख यही है की बिना स्वार्थ के किये हुआ कार्य कभी जाया नहीं जाता । 

इसी लिए र्कम करो बस फल की उम्मीद मत रखो । 



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