शत शत नमन
शत शत नमन
कैसी परंपरा ? कैसे रीति रिवाज़ ? कैसी सामाजिक मान्यताये ? आज श्रव्या का सब कुछ उजड़ चुका था। दुःख की इस घड़ी में उसके आंसुओं का बहाव रोकने वाला कोई नहीं था, एक बंदा भी नहीं। अपनी औलाद भी अपने पास नहीं, समाज के ठेकेदार भी अपने पास नहीं। एक एक सपना संजोकर रखा था, उन सपनों का एक अच्छा सा महल बनकर तैयार हो गया था। क्या श्रव्या ने कभी सोचा था कि जीवन इस मोड़ पर आकर खड़ा हो जायेगा जहाँ सपने ऐसे बह गए थे जैसे किसी कि मृत्यु के बाद घर को धुल दिया जाता है। श्रव्या के पति कि मृत्यु कोरोना से हो गई। दस दिन अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करते करते मृत्यु जंग जीत गई। अंतिम समय अपने परिवार की एक झलक की लालसा लिए दम तोड़ दिया। अंतिम इच्छा अंतिम बनकर ही रह गई। न किसी से कुछ कहना न बताना, किसको बताना कोई अपना वहां हो तब तो अस्पताल के उस कमरे में जहाँ डॉक्टर और नर्सेज के अतिरिक्त कोई नज़र नहीं आता वहां किससे क्या कहना ? कौन जानता है कौन, कैसे यहाँ से जाएगा कैसे आएगा ? आज अंतिम समय में सब कुछ अबूझ, अनकहे सवाल बनकर जीवन लीला समाप्त हो गई, श्रव्या इधर तड़पती रही उधर नीरव (श्रवय का पति ) तड़पता रहा दोनों अनकहे रह गए। सुबह सुबह श्रव्या को अस्पताल से फ़ोन आया नीरव जिन्दगी कि जंग हार गया। श्रव्या के हाथ से फ़ोन छूट गया दो मिनट के लिया वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गई थोड़ा संभलकर फिर उसने अस्पताल फोन मिलाया मिट्टी घर लाने कि इजाज़त नहीं थी अस्पताल से बाहर ही नीरव कि लाश लेनी पड़ी। अब इस समय श्रव्या के पास सबसे बड़ा प्रश्न कि मुखाग्नि कौन दे ?बच्चे बाहर अमेरिका में जो आ नहीं सकते। सगे सम्बन्धी कोरोना के डर से पास नहीं आये वाह रे नियति का खेल सब पीछे हट जाए पर श्रव्या के तो वे संसार थे, वो कैसे छोड़ सकती थी। नियति ने एक एक समय का हिसाब लिख दिया है। हम केवल उसका विश्लेषण करते है। फलां अच्छा है फलां बुरा है। उसको ऐसा नहीं करना चाहिए, उसको वैसा नहीं करना चाहिए, ये सब लोक विवाद है। नियति ने श्रव्या के और उसके पति बारे में ये सब कुछ पहले ही लिख दिया होगा। जब श्रव्या ने देखा कोई उसके पति को हाथ लगाने वाला नहीं तो उसने आंसुओं को पोंछा और उनको मुखाग्नि देने का निश्चय किया, और जिन हाथों में पति के नाम कि चूड़ियाँ पहनी थी उन्हीं हाथों से पति को मुखाग्नि दी। अब। इस समय जब एक स्त्री ने श्मशान घाट जाकर पति को मुखाग्नि दी तो समाज के ठेकेदार कहाँ चले गए ? जिनको इसकी चिंता रहती है कि स्त्री किसी श्मशान घाट में कैसे जा सकती है ? स्त्री का तो श्मशान घाट में प्रवेश वर्जित कर रखा है पुरुष समाज ने, क्यों क्या स्त्री इतनी कमजोर है कि वह ये सब नहीं देख पाएगी ? स्त्री कोमल है कमजोर नहीं है कोमलता और कमजोरी में बहुत बार अंतर है। अगर वह कमजोर है तो पूरी सृष्टि को कमजोर समझना चाहिए। नव माह तक अपना खून पिलाकर वह संसार को एक जीता जागता खिलौना देती है, और वाही खिलौना बड़ा होकर किसी न किसी रूप में उसी को आरोपित प्रत्त्यारोपित करता है क्यों, मानसिक शारीरिक शोषण करता है क्यों, क्यों स्त्री किसी अधिकार से वंचित है ? ये अवसरवादी समाज, ये प्रपंच सिर्फ अपने फायदे और नुक्सान देखने के लिए ? लेकिन इतिहास गवाह है स्त्री ने जब जब चाहा जागरण हुआ वह स्वयं में शक्ति स्वरूपा है, वह लक्ष्मीबाई है, रजिया सुल्ताना है, तस्लीमा नसरीन है, जीजाबाई है अपने हक़ के लिए लड़ी और विजयी हुई।
