सहारा (संस्मरण)
सहारा (संस्मरण)
मैं बूंदी शहर में शिक्षा स्नातक कर रहा था। मैं और मेरा मित्र रामसिंह प्रतिदिन महाविद्यालय पैदल पैदल जाते थे। रास्ते में सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य का घर था, हम रोज महाशय को नमस्ते करते थे।
महाशय के घर के आगे एक गाय दो दिन से बैठी थी, मैंने सोचा यह गाय जरूर चलने-फिरने में असमर्थ है, मैंने महाशय से कहा कि, ''यह गाय मैं दो दिन से इस हालत से देख रहा हूं आपने इसको हलचल करते देखा है क्या?'' उन्होंने कहा, ''मैं भी इसको यहीं बैठी देख रहा हूं।
मैंने कहा, ''यह मुक जानवर है, आओ इसको सहारा देकर खड़ी करते है।'' हम रुके, राह में गुजरने वालों से भी कहा, दो-चार और लोगों को बुलाया गया। हम सबने मिलकर गाय को खड़ा किया। गाय खड़ी हुई धीरे धीरे चलने लगी। गाय ने अपनी राह पकड़ी... वह शायद यही कह रही थी...
जरा सहारा दे दो कर का।
रास्ता ले लूं अपने घर का।।
अगर हम ऐसे ही बेसहारा, कमजोरों को थोड़ा सहारा दे तो वे अपनी मंजिल पा सकते है।
