सेवा ही सच्चा धर्म है
सेवा ही सच्चा धर्म है
पूर्वी बंगाल में जनमे स्वामी प्रणवानंदजी ने 1913 में गोरखपुर पहुँचकर 17 वर्ष की आयु में गोरखनाथ संप्रदाय के आचार्य योगी गंभीरनाथजी से दीक्षा ली । गुरु ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा, ‘अपना जीवन धर्म-साधना के साथ साथ पीडितों एवं अभावग्रस्तों की सेवा में लगाना।’
स्वामीजी एक बार अपने स्वर्गीय पिता का पिंडदान करने तीर्थ गए। पंडों के वेश में कुछ अपराधी किस्म के लोगों को उन्होंने श्रद्धालुओं का उत्पीड़न करते देखा। उन्होंने उसी समय संकल्प लिया कि वे तीर्थस्थलों की पवित्रता बनाए रखने के लिए अभियान चलाएंगे।आगे चलकर ‘भारत सेवा आश्रम संघ’ का गठन करके उन्होंने तीर्थस्थलों की पवित्रता बनाए रखने का अभियान चलाया और पाखंडियों का बहिष्कार कराया।
वर्ष 1921 में तत्कालीन बंगाल के खुलना में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। स्वामी प्रणवानंद अन्य तमाम कार्य बीच में छोड़ अपने शिष्यों के साथ पीड़ितों की सेवा में जुट गए ।
उन्होंने सार्वजनिक आह्वान किया, ‘आज पीड़ितों की सेवा से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। इसी तरह, उड़ीसा और पूर्वी बंगाल में बाढ़ आने का समाचार मिलते ही वे वहाँ पहुँचे और पीड़ितों की सेवा की ।
आगे चलकर उन्हें ‘युगाचार्य’ के रूप में मान्यता मिली। उन्होंने सेवा संघ के सम्मेलन में घोषणा की, ‘शिक्षा का प्रचार-प्रसार करो, किंतु संस्कारों पर विशेष ध्यान दो पूजा उपासना तभी सफल होगी, जब मानव का आचरण शुद्ध होगा। जिसकी कथनी-करनी एक नहीं है, वह किसी को क्या प्रेरणा देगा?’
