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Brajendranath Mishra

Inspirational

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Brajendranath Mishra

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पुरस्कार मिलने के बाद की परीक्षा

पुरस्कार मिलने के बाद की परीक्षा

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जनवरी की सुबह पाँच बजे की ठिठुराती ठंढ... साँय - साँय करती हवा...पहाड़ की तलहटी से गुजरना....पैर तो कटा जा रहा था क्योंकि उसमें हवाई चप्पल पहने ही मैं जल्दी - जल्दी में निकल गया था...बर्फीली हवा ज्यादा तेजी से चलने को विवश कर रही थी...शायद रफ्तार बढ़ाने से शरीर में गर्मी आ जाये...इससे लगभग दौड़ते हुए ही स्टेशन की तरफ सुबह साढ़े छः बजे की ट्रेन पकड़ने जा रहा था। बात सन 1964 की है, जब मैं नवीं में था। अवसर था, 26 जनवरी को ब्लॉक स्तर पर आयोजित निबंध प्रतियोगिता में भाग लेने का। 

हमलोग वजीरगंज स्टेशन उतरकर प्रतियोगिता स्थल पर सुबह ही सुबह पहुँच गए। दस बजने वाले थे, लाउडस्पीकर पर प्रतियोगियों को कमरे में जाने की घोषणा हुयी। हमलोग एक कमरे में निर्धारित स्थान पर बैठ गए। निरीक्षक द्वारा घोषणा की गयी कि अभी आपलोगों के लिए सामने के श्याम पट पर विषय लिखा जाएगा। उसी समय से आपकी प्रतियोगिता का समय प्रारम्भ हो जाएगा। नियत समय 45 मिनट था। एक दूसरे अधिकारी आये। उन्होंने बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में विषय अंकित किया। मैंने विषय देखा और लिखना शुरू कर दिया। कब 45 मिनट समाप्त हो गए, पता ही नहीं चला। निरीक्षक ने स्टॉप राइटिंग की घोषणा की और आकर पुस्तिका एकत्रित कर चले गए। 

चार बजे अपराह्न से पुरस्कार वितरण का कार्यक्रम आरम्भ हुआ। उस क्षेत्र के कलेक्टर पुरस्कार वितरण के लिए पधारे थे। सबसे पहले खेलों और दौड़ आदि प्रतियोगिताओं के पुरस्कार वितरण किये जा रहे थे। पर हमें तो इंतजार था, निबंध प्रतियोगिता के पुरस्कार की घोषणा की। सभी पुरस्कार जब वितरित हो गए, तब एक अन्य उदघोषक, जिन्होंने श्याम पट पर निबंध प्रतियोगिता का विषय लिखा था, आकर बोलना शुरू किये। निबंध प्रतियोगिता के आयोजन के बारे में भाग लेने वाले कुल विद्यालयों और विद्यार्थियों की संख्या के बारे में विवरण देते हुए उन्होंने बताया कि निबंध लेखन की जाँच भाषा की शुद्धता, शब्दों के चयन, विषय प्रवेश की सार्थकता, विषय के विस्तार तथा हस्तलेखन की सुंदरता आदि मानकों पर की गयी। 

इसमें मेरे गांव के हाई स्कूल, के प्रतियोगी सारे मानकों पर अन्य विद्यालय के प्रतियोगियों से ऊपर थे। और उन सबों में तृतीय रहे मेरे विद्यालय के ही एक विद्यार्थी का नाम लिया गया, द्वितीय आये मेरे विद्यालय के ही दूसरे विद्यार्थी का नाम लिया गया। ...और प्रथम आये उसी विद्यालय के ब्रजेंद्रनाथ मिश्र! सारा जनसमूह तालियों से गूंज रहा था। हमलोगों को पुस्तकें, जिसमें मुझे याद है कि एक मोटी सी अंग्रेजी हिंदी डिक्शनरी थी और उसके साथ अन्य पुस्तकें भी थी, जिसका वजन तीन किलो के करीब अवश्य रहा होगा, मिलीं। उसके साथ-साथ प्रमाणपत्र भी मिला था। विद्यालय के लिए एक ट्रॉफी मिला जिसे विद्यार्थियों के साथ प्रधानाध्यापक और हिंदी शिक्षक ने एक साथ ग्रहण किया। अधिकारी महोदय के साथ समूह में हमलोगों की तस्वीर भी ली गयी।

◆◆◆◆◆

अब पुरस्कार प्राप्ति के बाद की परीक्षा आगे आने वाली थी। पारितोषिक वितरण समारोह समाप्त होते - होते शाम के साढ़े पाँच बज गए थे। जाड़े के दिनों में सूर्यास्त जल्दी हो जाता है। हमलोग स्टेशन की ओर चले ताकि शाम को साढ़े चार बजे वाली ट्रेन अगर लेट हुई तो मिल जाएगी। ट्रेन सही समय पर आयी और हमारे स्टेशन पहुँचने के पहले ही निकल गयी। अगली ट्रेन रात में दो बजे के बाद ही आती थी। स्टेशन पर ठंड में ठिठुरन भरी रात काटनी कितना कष्टकर होता, इसकी कल्पना से ही मन सिहर गया। जो थोड़े लोग बचे थे, सभी मेरे ही गाँव के तरफ जानेवाले थे। कुछ स्कूल के शिक्षक भी साथ में थे। गाँव यहाँ से ढाई कोस यानि 5 मील से थोड़ा अधिक था। इतनी दूर तक की पैदल यात्रा और वह भी जनवरी की ठंढी रात में चप्पल पहनकर मैंने पहले नहीं की थी। अँजोरिया रात थी, इसलिए उसमें भी पैदल चलने में ज्यादा कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा, इसी सोच के साथ सभी लोग आगे बढ़ चले। 

मेरे साथ समस्या यह थी कि मेरे एक हाथ में तीन किलों के करीब पुरस्कार में मिले पुस्तकों वाला झोला था और पैर में हवाई चप्पल थी जिसे पहनकर चलते हुए अन्य लोगों के साथ गति कायम रखने में कठिनाई पेश आ रही थी। लोग जल्दी पहुँचने की जल्दी में तय रास्तों से न होकर खेतों के बीच से निकलते जा रहे थे। खेतों की जुताई हुई थी जिसमें बड़े-बड़े ढेले पड़े हुए थे। मेरी हवाई चप्पल कभी-कभी उसमें फँस जाया करती थी। आगे बबूलों के छोटे से जंगलनुमा विस्तार से गुजरना था। उसके पास आने के ठीक पहले मेरा एक चप्पल टूट गया। वह अंगूठे के पास से ही उखड़ गया था। मैं चप्पल को झोले में नहीं रख सकता था। मन में यह संस्कार कहीं बैठा हुआ था कि पुस्तकों में विद्यादायिनी माँ सरस्वती का वास होता है। उसके साथ अपनी चप्पलें कैसे रख सकता था? मेरे लिए कोई दूसरा उपाय नहीं था। किसी को मैं मदद के लिए पुकार भी नहीं सकता था। हर कोई जल्दी घर पहुँचने के धुन में तेजी से कदम-दर-कदम बढ़ा जा रहा था। मैं पिछड़ना नहीं चाहता था। 

रास्ते में बीच में बबूल-वन पड़ता था। ये बबूल लगाए तो नहीं गए थे पर संरक्षित अवश्य थे। 

जैसे ही मैं बबूल - वन में आगे की ओर बढ़ा, तो पगडंडी देखकर मुझे खुशी हुई। लोग भी लकीर पकड़कर ही चल रहे थे। मैं बबूल-वन को करीब आधा से अधिक पार कर चुका था, कि मेरा खाली पाँव बबूल के कांटे पर पड़ा। कांटा मेरे पैर में घुस गया था। मैं थोड़ा रुका, टूटे चप्पल को दूसरे हाथ में लिया, और चुभ गए कांटे को खींचकर बाहर निकाला। खून की धारा निकलने लगी। पॉकेट से रुमाल निकाला और जोर से पैर में बाँध दिया। मन तो किया कि टूटे हुए चप्पल को किताबों वाले झोले में डाल दूँ। पर मन के अंदर बैठी हुई यह मान्यता कि पुस्तकों में वीणा पुस्तक धारणी माँ सरस्वती का वास होता है, मैंने टूटे हुए चप्पल को पुस्तकों के झोले में न डालकर, दूसरे हाथ में लिया और भटकते हुए दौड़ लगायी, ताकि आगे निकल गए समूह के लोगों को पकड़ सकूँ। आखिर बबूल-वन का क्षेत्र हमलोग पार कर गए। अब पहाड़ की तलहटी से होकर उबड़-खाबड़ पत्थरों पर से होकर गुजरना हुआ। पहले से ही छिल गए पैरों की बाहरी त्वचा पर नुकीले पत्थरों का चुभना मेरे लिए दर्द की एक और इम्तहान से गुजरने जैसा था। मैं रुका नही, और न ही मैंने हार मानी। मैं बढ़ता रहा जबतक घर नहीं पहुंच गया। 

घर पहुंचते ही पहले घायल पैर में बँधे खून और धूल-मिट्टी से सने रुमाल को खोलकर पॉकेट में रखा और बिना लंगड़ाते हुए आंगन में प्रवेश किया ताकि माँ मेरे पुरस्कार पाने की खुशी का आनन्द तो थोड़ी देर मना पाए, न कि मेरे पैरों के घाव को सहलाने बैठ जाए। मेरे खाट पर बैठते ही माँ गरम पानी से मेरे पैर धोने को बढ़ ही रही थी कि मैंने उसके हाथ से लगभग झपटते हुए लोटा अपने हाथ में ले लिया। माँ मेरे इस व्यवहार पर थोड़ी आश्चर्यचकित जरूर हुई, पर मैंने लोटा हाथ में लिए हुए ही जब उसे सुनाया कि मुझे पूरे प्रखंड में निबंध प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है, तो उसका ध्यान मेरे घायल पाँव से लगभग हट गया । मैं निर्भीक होकर आँगन के चापानल के तरफ पाँव धोने के लिए बढ़ गया। मुझे इस बात का संतोष था कि अपने जख्मों को छिपाकर में मैं माँ की आंखों में खुशी के कुछ कणों को तैरते हुए देख सका।



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