प्रॉफेसर
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"वंडरफुल वर्क मिस्टर रावत।" पीछे से आती हुई एक आवाज़ ने मेरा ध्यान अपनी और खींचा और अचानक ही में अतीत में चला गया। "वंडरफुल" कई बार कुछ शब्द कुछ लोगों से इतने जुड़े होते है की उनको सुनकर उन लोगों का स्मरण हो जाता है।
सरस्वती शांतिनिकेतन इंजीनियरिंग कॉलेज, देहरादून जहाँ से मैंने अपनी इंजीनियरिंग की डिग्री ली थी। आज से कुछ ५-६ साल पहले की बात रही होगी। हम नए-नए ही कॉलेज में आये थे। हॉस्टल में सेटल हुए कुछ ही वक़्त हुआ था। रोज़ का रूटीन तय था। सुबह उतना तैयार होना कॉलेज जाना, लौट कर आना असाइनमेंट्स करना और सो जाना। दिन के ६ लेक्टर्स होते थे। इतने नीरस से जीवन में भी छोटी-छोटी बातें ही बड़ी दिलचस्प लगती थी। यूँ तो किसी प्रोफेसर से कोई ज्यातती दुश्मनी तो थी नहीं पर हर प्रोफेसर एक न एक कारण तो दे ही देता था उनसे गुस्सा होने का। कोई ज़रा-ज़रा सी बातों पर बिदक जाता तो कोई इतना काम दे देता करने के लिए की उनसे नफरत होना आम बात थी। ऐसे ही एक प्रोफेसर थे मार्कण्डेय पांडेय सर। वो प्रथम और द्वितीय वर्ष में भौतिकी पढ़ाया करते थे। उनसे पहली बार सामना ही बड़े अजीब तरीके से हुआ था। हम नए नए आये थे तो क्लास ढूंढना मुश्किल हो गया था और पहुंचते पहुंचते २० मिनट लेट हो चुके थे। इंजीनियरिंग में क्लासेज अटेंड करने से ज्यादा ज़रुरी अटेंडेंस होती है। कुछ प्रोफेसर्स पहले क्लास करते थे बाद में अटेंडेंस लेते थे कुछ उल्टा ही करते थे। जब हम पहुंचे तो वो रंग बिरंगी चॉक लेकर कुछ कुछ समझा रहे थे। में और मेरा दोस्त राज। हमने अंदर जाने की आज्ञा मांगी तब जाकर उनका ध्यान बोर्ड से हटकर हमारी और हुआ। देखने में औसत लम्बाई के थे गोरे से, अधेड़ उम्र के। उम्र ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था , आगे के बाल जा चुके थे सर पर एक गोलाकार जगह छोड़कर। हमारी आवाज़ सुनकर पढ़ना छोड़कर हमारी तरफ देखा और एक ऊँगली से अपना बड़ा सा आयताकार चस्मा उठा कर माथे पर चढ़ा लिया और नज़रें ऊँची करके हमे देख कर बस दो उँगलियों से क्लास में अंदर जाने का इशारा कर दिया। हम चुप-चाप चले गए। और उन्होंने अपना चस्मा ठीक करके फिर पढ़ना शुरू कर दिया। पढ़ाना हमे नहीं खुदको। इतनी धीमी आवाज़ में बोल रहे थे की प्रथम पंथी में बैठे लोग भी ना सुन पाए। बस हर थोड़ी देर में अपनी चाक कर कलर चेंज करके बोर्ड पे कुछ बनाने लगते। वो चालीस मिनट पहाड़ की तरह गुज़रे। अगर क्लास में कोई बात भी करता तो वो पलटते चिल्लाते और वापस बोर्ड की और मुड़ जाते। मैंने उतने समय में क्लास की बेंचे , कितने लोग बैठे है ये सब गिनने के बाद खिड़की के सरिये गिनना शुरू कर दिया था। फिर एक दम से वो रुके अपने हाथ में बंधी पुरानी घड़ी को देखा और मुड़कर चॉको को शालीनता से बक्से में रखने लगे। और अपनी किताबें उठाकर जाने लगे। मैं फिर उन्हें टोका और कहा "सर, अटेंडेंस ।"
वो रुके पलटे और फिर अपना चस्मा उठा कर बोले "अगली बार समय पर आना तब मिलेगी ।" और चले गए। क्या यार पूरा लेक्चर बैठे और अटेंडेंस भी न मिली। खैर कर भी क्या सकते थे। वैसे बात सिर्फ इतनी सी भी नहीं थी। मैं और राज तो थे ही आदतन आलसी। उसके बाद भी कई बार कई क्लासेस में लेट हुए थे। कई बार तो कुछ प्रोफेसर्स मान भी जाते थे पर पांडेय सर कभी नहीं। गाड़ी फिर भी चलती रही।
ऐसे ही करते करते एक महीना बीत गया। मिड-सेमेस्टर टेस्ट शुरू होकर ख़तम भी हो गए थे और रिजल्ट्स आना शुरू हो गया था। गणित में बस पार ही थे और इलेक्ट्रिकल का पेपर तो गया ही गोबर था तो उसमे उम्मीद न थी। मन तो पूरा मरियना ट्रेंच में डूब गया था। फिर आये पांडेय सर आते ही बोल पड़े "यह अब तक का मेरा सबसे ख़राब रिजल्ट रहा है। क्या कोई भी पढ़ कर गया था टेस्ट में या नहीं। " मैं फिर और ज्यादा उदास। एक एक करके नंबर बताने लगे और आंसर शीट देने लगे। जैसे ही मेरा नंबर बुलाया गया में डरते डरते उनकी टेबल की और बढ़ा। जैसे ही पास पंहुचा उन्होंने कॉपी में देखा और फिर चस्मा उठा कर मेरी और देखा और फिर कॉपी में देखने लगे। टेस्ट यूँ तो ठीक ही गया था पर जिस तरह से वो देख रहे थे मुझे लगा शहीदी दिवस तो आज ही मन जाना है। पर तभी वो ख़ुशी से बोल पड़े "वंडरफुल परफॉरमेंस। क्लास में सबसे ज्यादा नंबर तुम्हारे ही है १० में से ८। " उन्होंने ऐसे बोलै जैसे लगा किसी ने आकर बहादुरी के दो मैडल लगा दिए हो सीने पर। जिन लोगों से उम्मीद नहीं होती उन् लोगों से तारीफें पाने में जो मज़ा है वो शायद किसी और चीज़ में नहीं। शायद इश्क़ में भी नहीं। अचानक से खुद को कीमती समझने लगते है हम। खुद का होना ज़रूरी हो जाता है। उसके बाद का पूरा दिन ऐसा गुज़रा जैसे किसी ने मुँह में हेंगर लगा दिया हो। मुस्कुराहट रूक ही नहीं रही थी। उस वाक़ये के बाद दो तीन बार और ही उनके मुँह से "वंडरफुल" सुन पाया था।
खैर उस दिन के बाद वो इतने बुरे भी नहीं लगे। धीरे धीरे उनकी क्लास में ध्यान भी लगने लगा था। कारण जो भी रहा हो। धीरे धीरे सेमेस्टर भी ख़तम होने को था। एक दिन की बात है। उनकी आखिरी क्लास थी दिन की। वो फिर अपने आप को पढ़ने में लगे हुए थे और औरों के विपरीत में तो ध्यान से सुनने की कोशिश कर रहा था। तभी अचानक सर के एक सहकर्मी दौड़ते हुए आये और पांडेय सर को क्लास के बाहर बुलाया। ज्यादा कुछ पता तो नहीं चला था पर जब वो वापस क्लास के भीतर आये बड़े अलग तरीके से व्यवहार करने लगे। आमतौर पर धीरे बोलने वाले सर को पहली बार तेज़ बोलते सुना था। ऐसा लग रहा था जैसे गाला भर आया हो उनका। एक कम्पन था उनकी आवाज़ में। लिखते समय भी हाथ कपकपा रहे थे। पहली बार में उन्हें शायद इतने ज्यादा गौर से देखा होगा। हम सब सकते में थे ना जाने ऐसी क्या बात हुई थी। जो भी हो उनके लिए काफी बुरा भी लग रहा था। जैसे ही कक्षा का समय हुआ। वो धीरे से मुड़े अपना सामान बंधा और धीरे धीरे चले गए। वो पूरा दिन बस इसी सोच में गुज़रा।
उसके बाद कई दिनों तक वो नहीं दिखे फिर सेमेस्टर की परीक्षाएं भी हो गयी और छुट्टियाँ भी लग गयी। अगले सेमेस्टर जब हम कॉलेज पहुंचे तब कुछ लोगों से पूछने पर पता चला की उस दिन उनकी पत्नी का लम्बी बीमारी के बाद देहांत हो गया था। जिसके बाद वो खुद में ही होकर रह गए थे ।
उसके बाद उनका सब्जेक्ट तो आया नहीं तो फिर मुलाक़ात भी नहीं हुई। कई बार ऐसे ही क्लास के पास या हॉल में चलते हुए दिख जाते पर बातें करने की कोई वजह नहीं थी बस गुड मॉर्निंग और गुड आफ्टरनून में ही आगे बढ़ जाते।
एक दो बार वार्षिकोत्सव वगैरह में हस्ते हुए देखा होगा उसके अलावा तो नहीं।
उनसे जुडी आखरी याद बस यही थी जब अगले साल हमने स्वतंत्रता दिवस पर कॉलेज के सामने हिंदी भाषा पर नुक्कड़ किया था तब अचानक से पास में आये और "wonderful young man !" बोल कर आगे बढ़ गए। उसके बाद पढ़ाई , नौकरी की चिंता और ना जाने क्या क्या में फँस गए और फिर मुड़कर भी नहीं देखा।
आज अचानक "वंडरफुल " सुनकर उनकी याद सी आ गयी। मैं मुड़ा और हलके से मुस्कुरा दिया।