प्रेम की शिला मेट्रो
प्रेम की शिला मेट्रो
दिल्ली मेट्रो का सफ़र देखकर ऐसा लगता है कि डीटीसी और ऑटो रिक्शा तो अब दिल्ली से लुप्त ही हो जायेंगे। भाग-दौड़ की इस जिंदगी में भी युवाओं के दिलों में मेट्रो की सीढ़ियों के लिए पर्याप्त समय है। कभी-कभी मैं भी अगर चलते-चलते थक जाता हूँ तो मेट्रो की सीढ़ियों को अपने ड्राईंग रूम की चेयर समझ कर खुद को टिका लेता हूँ। लोगों को आते जाते देखते समय सोच में पड़ जाता हूँ कि लोगों को इतनी जल्दी क्यों है? क्यों भाग रहे हैं ये लोग? क्या वे अपनी मंजिल की तरफ भाग रहे हैं। पर मेरे मतानुसार तो हर व्यक्ति की मंजिल उसका खात्मा है तो फिर क्यों भाग रहे हैं ये एक दूसरे को धकेलते और रौंदते हुए।
मेट्रो स्टेशन पर चेकिंग की लाइन लगाने से लेकर अपने गंतव्य तक पहुँचने तक लोग विचलित रहते हैं। शायद इसीलिये लोगों को इतना विचलित देखकर प्रेम से ओत प्रोत प्रेमी अपनी मंजिल पाने मेट्रो की इन सीढ़ियों से चिपक जाते हैं। दिल्ली की लाईफ लाइन कही जाने वाली ये मेट्रो दुनिया एक तरह से प्रेमियों की लाईफ लाइन हो गयी है। शायद प्रेम एक सीखने की कड़ी है। शायद जिंदगी को जोड़ने की कला है। शायद अपने आप को किसी के प्रति तो ईमानदार होना सिखाता है ये प्रेम। हर प्रेमी रास्तों का राही तो है पर वह दिल्ली मेट्रो की पटरियों को ही अपनी मंजिल बनाता है। शायद चलते, फिरते और भागते लोग उन्हें इतना स्पेस दे देते हैं जिससे वो उसमें खो सकें। क्योंकि शहर की डीटीसी, पार्क और सार्वजनिक जगह पर बैठना जोड़ो को अपराधी बनाने से नहीं चूकता। हर व्यक्ति उन्हें देखकर उसकी आँखों में खाप नज़र आने लगता है। हर व्यक्ति सिर्फ और सिर्फ घूरता रहता है और बेचारे प्रेमी अपने आपको ओसामा समझ कर छिपने की कोशिश करते हैं। ऑटो में बैठते हैं तो सोचते हैं कि चलो थोड़ा स्पेस तो मिला खुद को उसे समझाने का और खुद उसे समझने का पर सत्य तो यही है कि वहाँ भी ऑटो वाला बैक मिरर के सहारे हमको महफ़िल में भी बेगानों की तरह दीदार करने पर मजबूर कर देता है।
शहर को समझना और प्रेम में डूबना दोनों एक ही बातें हैं। कहते हैं जब तक हमने प्रेम नहीं किया, तब तक न शहर को हमने समझा न ही शहर ने हमको। शायद एक अच्छा दोस्त भी इस मेट्रो की सीढ़ियों का दीवाना होता है। हम भी कभी-कभी अपने स्कूल के दोस्तों से इस शहर में मिलते हैं तो मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियाँ ही हमारा सहारा होतीं हैं। कुछ जगहों की सीढ़ियों पर हम खुद को टिकाये हुए, लोगों को आते जाते देखते हुए इंतजार की उस घड़ी को धीरे-धीरे गुजार देते हैं।
लोगों को आता जाता देख सोचते हैं कि अभी वो आएगी। शायद अच्छा ही है कि शहर ने कहीं तो अकेला छोड़ा। क्योंकि पार्क, डीटीसी, ऑटो या मॉल के खंभों सभी में ही ये खुद को छिपाते हैं। ये बेचारे न ही मॉल को देख पाते हैं और न ही उस शहर को और न ही उसको जिसको हर पल देखने की कोशिश करते हैं। शायद इसीलिए कहा गया है की जहाँ चाह है वहाँ राह है। चाहे वह प्रेम का जुनून हो या अपनी मंजिल पाने की कोशिश। शायद मेट्रो की भीड़ भी मेट्रो ट्रेन के अंदर के खम्भों के सहारे उन जोड़ो को करीब आने पर मजबूर कर देती हैं और लोगों की नजरें भी कम ही उनकी तरफ रहती हैं। कहते हैं मेट्रो में अधिकतर क्लास लोग चलते हैं क्योंकि डीटीसी और मेट्रो के यात्रियों को यात्रियों के माध्यम से ही अलग-अलग देखा जाता है।
कहीं न कहीं इनकी उदारता में भी एक तरह का आडम्बर है। चलते लोग हिलती मेट्रो और हिलती सीढ़ियां सभी इन जोड़ो को शहर से अकेला छोड़ थोड़ा स्पेस दे देती हैं जिससे वो एक दूसरे में खो सकें। अच्छा ही है कि हम कहीं पर तो ईमानदार होने की कोशिश कर रहे हैं।कहीं तो हमारे अंदर दूसरों के प्रति श्रद्धा भाव आ रहा है। शायद खुद को ईमानदार बनाने की कोशिश में ही हम सीसीडी और मैकडी में इंतजार करते हैं और मेट्रो ने भी इनका साथ खूब दिया है कि अंदर ही सारी व्यवस्थाएं कर दी हैं। सोच ही रहा था की कि अगर मैं भी एक जोड़ा होता तो शायद कोई मुझसे रास्ता न पूछता। यह भी एक अजीब विडम्बना है। चलो अच्छा ही है कि मैं बैठे-बैठे ही कुछ भटकों को रास्ता ही दिखाया। अंत में सीसीडी की एक महिला कर्मचारी ने मुझसे पूछ ही लिया कि क्या लिख रहे हो आप? मैंने भी कह दिया बस लोगों के माध्यम से खुद को समझने की कोशिश कर रहा हूँ।