Nitendra Kumar

Drama

3.2  

Nitendra Kumar

Drama

पागल कुत्ता

पागल कुत्ता

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पागल कुत्ता

त्ता भात भर दिया है मेरी थाली में !!! जानवर समझ रखा है |” कहते कहते कुशल बाबू ने थाली जमीन पर पटक दी | थाली में मौजूद दाल, सब्जी और चावल पूरे फ़र्श पर छितरा गऐ  थे | कुशल बाबू गुस्से से तमतमाते अपनी कोठरी में घुस गऐ  |

इधर कमली बहू का चीखना शुरू हो गया | ‘बुड्ढा, नासपीटा फिर सारा खाना ख़राब कर दिया | कंगाली में आटा गीला कर रखा है बुढ़वे ने | हाय मैं क्या करूँ  ?’ कमली बहू माथा पकड़ फ़र्श पर ही लुढ़क गयी | कुशल बाबू अपनी कोठरिया से ही राग छेड़े थे ‘खाना खिला खिला के मार देना चाहते हो मुझे | इतनी जल्दी पीछा नहीं छोड़ने वाला मैं |’

इस घर में ये आज कोई नयी बात नहीं थी | उम्र के सत्तर पायदान पार कर चुके कुशल बाबू के खाने की थाली में अगर कोई भी चीज उनकी इच्छा से जरा सी भी कम या ज्यादा हो जाऐ  तो उसका परिणाम यही होता है | रात जब सुरेश घर लौटता तो कमली बहू उससे सारा किस्सा कह सुनाती | खाने में जब सब साथ बैठते तो सुरेश अपने बाबूजी को ख़ूब  प्यार से समझाते | आज भी सुरेश बाबूजी को समझाने की गरज से बोले ‘बाबूजी, अगर खाने में कुछ कम ज्यादा हो जाऐ  तो बता दिया करो | ऐसे थाली फेंकने से अन्न का अपमान होता है |’

‘चुप कर छोरे, जिस अन्न की बात कर रहा है वो मेरे गाँव से आता है | मैं चाहे जो करूँ  | बहू को इतना नहीं मालूम कि मैं कितना खाना खाता हूँ ? बस ठूँस  दी पूरी थाली | मेरी शिकायत करती है | निर्लज्ज कहीं की |’ बाबू जी की फैली आँखें  देख सुरेश चुप कर गया |

कमली बहू तड़के ही उठ जाती | बाबू जी के नित्य कर्म के लिऐ  जाते ही उनकी कोठरी में झाड़ू पोंछा लगा देती थी | वो कितना भी साफ़ कर ले लेकिन उनकी कोठरी हमेशा गंदगी और बदबू से भरी रहती | जगह जगह तम्बाकू थूकते, पान के पीक से फ़र्श क्या दीवारें तक लाल हो चुकी थीं | हद तो होती थी जब जुकाम होने पर नाक भी उसी कोठरी में छिड़क देते थे | समझाने पर और गन्दा कर देते थे | कुशल बाबू ने सब का जीना हराम कर रखा था |

नजदीक के ही सरकारी स्कूल से प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत कुशल बाबू की एक समय सब लोग बहुत इज्जत किया करते थे | जिधर से गुज़रते उनके चरण छूने वालों की लाइन लग जाती थी | बच्चे क्या बड़े क्या | उनके पढ़ाऐ बच्चे ऊँचे ऊँचे सरकारी पदों पर नौकरी कर रहे थे | सब बड़ा सम्मान करते थे |

लेकिन समय के साथ सब बदल गया | सबसे ज्यादा बदल गऐ  कुशल बाबू | रिटायर होने के बाद वो चिड़चिड़े हो गऐ  | जो समय के साथ बढ़ता गया | अपनी पत्नी के देहान्त के बाद तो बेचारे पागल से हो गऐ  | कभी आसपास की चौपालों की शान कहे जाने वाले कुशल बाबू से लोग कटने से लगे | बच्चे तो सहम जाते थे | न जाने कब किसको चिल्लाने लगे | कई बार तो उन पर अपनी लाठी भी घुमा देते थे |

अब उनका जीवन घर की कोठरी में कैद होकर रह गया था | बस ज़रुरी काम से ही बाहर निकलते और फिर अन्दर घुस जाते | उनका बेटा, बहू या फिर पोता भी उनसे बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते |

‘बाबू जी, लो चाय |’ सुरेश बाबूजी की कोठरी में दाखिल होते हुऐ  बोले | बाबूजी ने चारपाई से उठते हुऐ  सुरेश के हाथों को ऐसा झटका मारा कि पूरी चाय सुरेश की हथेलियों में समा गयी | चीनीमिट्टी का कप  टुकड़े टुकड़े होकर फ़र्श पर पड़ा अपना अस्तित्व खोजने लगा | मारे जलन के सुरेश बिना कुछ बोले हथेलियाँ दबाता हैण्डपम्प की ओर  भाग गया | उसे समझ में नहीं आया कि आखिर गलती कहाँ हुई |

कप के टुकड़े बीनने जैसे ही वापस लौटा बाबूजी फूट पड़े ‘ये टाइम है चाय का ? भरी दुपहरिया में कोई चाय पीता है भला | भूख प्यास से आँतें कल्ला रहीं हैं और पूरा घर सोया पड़ा है...’ सुरेश ने चुपचाप एक नज़र बाबूजी के चेहरे पर डाली...सुर्ख लाल, भौहें तनी हुईं, कान खड़े, आँखें भिंची हुईं...गुस्से से चेहरा और भारी व बड़ा लग रहा था | सुरेश जानता था कि इस समय उन्हें कुछ भी  कहना आग में घी डालने जैसा है सो वह टुकड़े बीनकर बिना कुछ बोले वहाँ  से बाहर चला गया लेकिन बाबूजी का चिल्लाना अनवरत जारी रहा |

भोर से रात हो गयी लेकिन बाबूजी ने न कुछ खाया न पिया | ऐसे ही अपनी कोठरी में बंद पड़े रहे | शाम को सुरेश ख़ुद  तो नहीं गऐ  लेकिन बेटे को बाबूजी के पास भेजा इस मंशा से कि शायद अपने पोते की ही बात मान लें | लेकिन बाबूजी टस से मस न हुऐ  |

‘बाबूजी, हमसे गलती हो गयी | आगे से ऐसा नहीं होगा | चलिऐ , खाना खा लीजिये |’ रात में सोने से पहले सुरेश ने बाबूजी को मनाने की आखिरी व नाकामयाब कोशिश की थी |

उदास क़दमों से सुरेश अपने कमरे में घुसते ही कुर्सी पर निढाल होकर पसर गया | आँखें बंद कर ली उसने | आँखें बंद होते ही आँसुओं की गर्म धारा बह निकली | यह धारा उसे यादों के गलियारे में धकेल ले गयी | बाबूजी को कितना पसंद था मछली खाना | बाबूजी हर इतवार मछली लाया करते थे | सुरेश बचपन में मछली नहीं खा पाते थे | उसे काँटे बिलकुल पसंद नहीं थे | बाबूजी उसे अपनी गोद में बैठाकर काँटे निकाल निकाल कर अपने हाथों से मछली खिलाया करते थे |

जब कभी किसी बात पर वह रूठ जाया करता बाबूजी तमाम जतन करते थे उसे मनाने के लिऐ  | बिना मनाये चैन नहीं लेते थे | ‘मुझे साइकिल चाहिए चाहिए चाहिए!!!’ कैसे उसने एक दिन बाजार में ही ज़िद पकड़ ली थी | बाबूजी ने तब दुकानदार से उधार में साइकिल लेकर उसे दी थी |

कूलर से आती गर्म हवा उसे वर्तमान में ले आयी | कूलर में पानी भरने के लिऐ  जाते समय वह सोच रहा था कि आखिर बाबूजी को कैसे मनाया जाऐ  ? क्या मछली ??? मछली तो उन्हें आज भी सबसे ज्यादा पसंद है | हाँ , कल सुबह ही वह मछली बनवायेगा | बाबूजी बिना खाये नहीं रह पाऐंगे |

अलसुबह ही सुरेश बाजार से मछली खरीद लाये थे | कमली बहू को पकड़ाते हुऐ  बोले थे ‘जरा मसालेदार और फटाफट बनाना |’ कमली जानती थी सुरेश अपने बाबूजी का कितना ख्याल रखते थे | शायद सुरेश और बाबूजी ने अपने अपने किरदार बदल लिऐ  थे |

कमली बहू सारे काम छोड़ मछली बनाने में जुट गयी | उसने पूरा ख्याल रखा कि मछली बाबूजी की पसंद की बने | ‘बाबूजी मछली बनाई है | खा लो |’ गर्मागर्म खाना बाबूजी के स्टूल पर रखते हुऐ  कमली बहू दबी ज़ुबान बोली | ठंढी मछली और ऊँची आवाज़ बाबूजी को कतई नापसंद थी | खाना रखकर वह बाहर चली आयी |

‘देखूँ बाबूजी ने खाना खाया या नहीं |’ बेचारे सुरेश चुपके से कोठरी के दरवाजे से झाँके | ‘वाह! बाबूजी तो बड़े चाव से खा रहे हैं |’ चहकते हुऐ  सुरेश बहू से बोले ‘दो चार रोटी और रख दो, दो दिन की भूख है ज्यादा खाऐंगे |’ उनके चेहरे की चमक देख लगा गोया कोई किला फतह कर लिया हो |

राहत की साँस लेते हुऐ  उसने कमली बहू को समझाने की गरज से कहा ‘देखो, अब हमें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे बाबूजी नाराज़ हो जाऐं  | इस उम्र में ये सब ठीक नहीं |’ ‘हम्म’ कमली बहू ने सर हिला दिया था |

‘अम्मा, देखो न ये टॉमी कितना प्यारा है | मुझे भी ऐसा टॉमी चाहिऐ | दिला दो न अम्मा |’ कमली बहू ने अपने बेटे राजू को डाँट लगा कर चुप करा दिया था | शाम को जैसे ही सुरेश दफ्तर से लौटे राजू उनसे लिपट गया ‘पापा, मुझे वो वाला टॉमी चाहिये |’ ‘लेकिन बेटा...’ सुरेश आगे बोल पाते इससे पहले ही राजू ठिनठिनाने लगा ‘मुझे टॉमी चाहिये ...... चाहिये  ....... चाहिये |’ सुरेश को एकबारगी अपने बचपन में साइकिल वाली ज़िद याद आ गयी |

जब सुरेश छोटा था तब भी घर में एक कुत्ता रहता था | उसे कुत्ते से ख़ास लगाव न था हाँ  बाबूजी अक्सर उसे दुलराते, पुचकारते रहते थे | सुरेश ने सोचा टॉमी को ले लिया जाऐ , राजू के साथ बाबूजी का भी मन लगा रहेगा | कुत्ते के मालिक से बात करके छोटे से पप्पी को सुरेश घर ले आऐ  |

सुरेश ने राजू की ज़िद पूरी कर दी जैसे कभी उनकी ज़िद बाबूजी पूरी किया करते थे | सुरेश को अच्छा लगा था |

दफ्तर से वापस आकर घर के आँगन में आते ही सुरेश की आँखों की पुतलियाँ अचरज भरी ख़ुशी से फैल गयीं | वो जो देख रहा था सच था क्या ??? बाबूजी आँगन में बैठे टॉमी के साथ मगन होकर खेल रहे थे | कभी दुलराते कभी पुचकारते तो कभी अपनी लाठी का सिरा उसकी गर्दन में घुसाते | अरसे बाद बाबूजी को खुश देख सुरेश ने लम्बी ठण्डी आह भरी और अंदर घुस गऐ  |

बाबूजी टॉमी के साथ रम गऐ  थे | उसे ख़ूब  दुलराते, अपनी कोठरी में उसे सुलाते, जब खाना खाते उसे भी रोटी चावल खिलते | यहाँ तक कि अपने हाथों से ही उसे नहलाते | अब यही उनकी दिनचर्या बन चुकी थी |

‘रुक तुझे अभी बताती हूँ टॉमी के बच्चेssss’ चिल्लाते हुऐ  कमली बहू उसके पीछे डंडा लेकर दौड़ी | ‘दूसरे के घर में पोट्टी करता है नालायक |’ गुस्से में उसने दो चार डंडे टॉमी को जड़ दिए थे | हल्ला सुन बाहर निकले बाबूजी से ये देखा न गया और दूर से ही लाठी घुमा दी जो ठीक कमली बहू की कलाई में लगी |

‘हाय रे ! इस बुड्ढे ने तो मेरा हाथ ही तोड़ डाला |’ दर्द से कराहती कमली बहू दौड़ते हुऐ  अन्दर घुस गयी | दराज से मलहम निकाल कलाई में मल ही रही थी कि आँखों के कोरों से झरझरा कर गिरे आँसुओं ने पूरी कलाई भिगो दी | उसने दवा फेंक दी और भीगा चेहरा घुटनों में छिपा लिया | आँसुओं की गर्मी उसे वर्तमान से बहुत पीछे धकेल ले गयी |

‘आज मुझे बेटी मिल गयी |’ कहते हुऐ  उसकी सास ने ससुराल में उसका स्वागत किया था | सास और ससुराल से उसे जितना डर लगता था शायद दुनिया में किसी और चीज से नहीं | लेकिन समय के साथ उसका डर काफूर हो गया | शादी के बाद भी उसे मायके और ससुराल में कोई अंतर नहीं लगा | हाँ  बचपन से ही माँ के प्यार के लिऐ  तड़पती कमली बहू को माँ ज़रुर मिल गयी | ‘अगर मेरी माँ होती तो तुम जैसी ही होती ! है न माँ |’ अपनी सास से अक्सर वो कहती | जन्म देते ही माँ चल बसी थी कमली बहू की | उसकी सास बिलकुल अपने बेटी की तरह चाहती थी उसे | कभी कोई कमी नहीं होने दी | जब एक बार उसे चार दिन लगातार बुखार आया था उन्होंने रात रात भर जाग कर गीली पट्टियाँ की थीं  |  

लेकिन ऊपर वाले से भी किसी की ख़ुशी ज्यादा दिन देखी नहीं जाती | अचानक एक दिन तबियत ख़राब हुई और माँ चल बसीं | एक बार फिर उसकी माँ छीन ली गयी | फूट फूट कर रोई थी कमली | ख़ुद  को कमरे में बंद कर लिया | हफ्ता भर अन्न के एक दाना भी न खाया | बाबूजी और सुरेश ने उसे बहुत समझाया |

‘बिटिया, अपने बाबूजी का ध्यान रखना | कोई कमी मत होने देना |’ मेरी कलाई थाम मेरी हामी माँगते हुऐ  मेरी सास न..मेरी माँ के ये आखिरी बोल थे | आँसुओं से भरी आँखों को भींचते हुऐ  मैंने सिर हिला दिया | शायद मेरी हामी ने उनके दिल को इतना सुक़ून पहुँचाया कि वो चिरनिद्रा में लीन हो गयीं |

कमली बहू ने माँ की बात का पूरा मान रखा था | गुस्से में भले ही उल्टा सीधा बक देती थी लेकिन ख्याल पूरा रखती थी |    

‘अम्मा...अम्मा...’ राजू स्कूल से आ गया था | उसकी आवाज़ ने कमली बहू को जगा सा दिया | गालों में चिपके सूखे आँसुओं को धोकर राजू को खाना देने में लग गयी |

‘राजू के पापा जल्दी घर आ जाओ | राजू को टॉमी ने काट लिया है...’ हाँफते हाँफते कमली बहू ने सुरेश को फोन किया | सुरेश अपना सारा काम छोड़ कर भागे | स्कूटर चालू हालत में घर के दरवाजे पर खड़ा कर अन्दर घुसे | राजू के दाहिने पैर पर टॉमी ने अपने नुकीले दांत गड़ाये थे | खून अभी भी रिस रहा था | आनन फानन  स्कूटर में बैठाकर डॉक्टर के पास ले गऐ  |

‘कहाँ मर गया ये कुत्ता???’ वापस आकर राजू को गाड़ी से उतार सुरेश ने चीखते हुऐ  पुछा | कोई प्रत्युत्त्तर न पाकर सुरेश उसी हालत में तेज क़दमों से बाहर चले गऐ  | ‘आज उसे मारकर ही दम लूँगाssssss’ सुरेश का गुस्सा चरम पर था |

शाम के सात बज रहे थे | गर्मी के दिन थे इसलिए अभी भी हल्का उजाला था | कमीज बाहर, बाल उलझे, चेहरा छितराया, हाथ में डंडा लिऐ  सुरेश घर में दाखिल हुऐ  | पूरे चार घंटे हो गऐ  थे | न सुरेश का पता था न टॉमी का | कमली ने उसके आने पर राहत की साँस ली लेकिन उनकी हालत देख किसी अनहोनी की आशंका से कलेजा थाम लिया |

‘तू तो आ गया लेकिन मेरा टॉमी कहाँ है ??? नालायक, जल्दी बोल कहाँ है मेरा टॉमी | और तेरे हाथ में ये डंडा क्या कर रहा है |’ बाबूजी ने जमीन पर लाठी पटकते हुऐ  सवाल किया | सुरेश अपराधी की भाँति जड़वत खड़ा रहा | ‘बोल हरामखोर !!!’ इस बार बाबूजी की लाठी सीधे सुरेश की बायीं टाँग पर लगी |

‘मार दिया मैंने उसे...’ सुरेश दर्द से चीखते हुऐ  बोला | बाबूजी सन्न रह गऐ  | चेहरा फक पड़ गया | कमली बहू और राजू कभी सुरेश को तो कभी बाबूजी की ओर ताकते | कमली बहू की धुकधुकी बढ़ गयी | ‘तूने मेरे टॉमी को मार डाला!!! अरे पापी...’ और इसके बाद बाबूजी ने कई लाठियाँ सुरेश के शरीर पर भांज दी | जड़वत खड़ा सुरेश गुस्से से फट पड़ा ‘बाबूजी, जब कुत्ता अपने मालिक को काटने लगे तो उसे मार दिया जाता है | और हाँ , तुम भी पगला गऐ  हो...’

“क्या कहा तूने???’ इस बार बाबूजी की आवाज़  कुछ धीमी थी | लाठी हाथ में समेट धीमें क़दमों से कोठरी में घुस गऐ  | अचानक बाबूजी को ये क्या हो गया न तो कमली बहू समझ पायी न ही सुरेश | सुरेश दर्द से कराहते अन्दर चले गऐ  | कमली बहू भी उनके पीछे हो ली |

आज घर में खाना नहीं बना | सुरेश पलंग में अधलेटे ही सो गऐ , राजू भी सो गया था, कमली बहू कुछ काम समेटने में लगी थी | बाबूजी तब से कोठरी के बाहर नहीं निकले थे | उनका अचानक से चुप हो जाना सब को थोड़ा अजीब लगा | बहू ने कोठरी के दरवाजे पर कान लगा कर टोह लेनी चाही...चिल्ला तो नहीं रहे थे लेकिन लगातार कुछ बुदबुदाये जा रहे थे | कुछ आश्वस्त होकर वह भी सोने चली गई  |

घड़ी रात के लगभग दस बजा रही थी | अचानक कोठरी से जोर जोर से आवाजें आने लगी...’मैं भी पागल कुत्ता हूँ, तुम सब को काटता हूँ, मुझे भी मार डालो...मैं भी पागल कुत्ता हूँ...’ आवाज़ इतनी तेज़  थी कि हड़बड़ा कर सुरेश और बहू उठ बैठे | दोनों कोठरी की तरफ भागे | दरवाजा भिड़ा था | सुरेश ने खिड़की से झाँक कर देखा | बाबूजी दीवार पर सर भिड़ाये खड़े थे | चिल्लाते चिल्लाते कई बार सर भी दीवार पर दे मारते |

सुरेश ने अन्दर जाने के लिऐ  जैसे ही हाथ दरवाजे की तरफ बढ़ाया बहू ने उसे रोक दिया | वो जानती थी इस समय बाबूजी को समझाया नहीं जा सकता | समझेंगे तो नहीं उल्टा और भड़क जायेंगे | थोड़ी देर खड़े रहने के बाद दोनों उदास क़दमों से अपने कमरे में लौट आऐ  |

सुरेश को आत्मग्लानि हो रही थी | क्या हो गया था उसे? क्यों बाबूजी पर चिल्लाया था? बाबूजी को प्यार से भी तो समझा सकता था | कोठरी से अब भी बाबूजी के चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं | चारपायी पटकने, दरवाजा भड़भड़ाने, लाठी फेंकनें की आवाजों से पूरा घर थर्रा रहा था | बाबूजी का ऐसा गुस्सा इस घर ने कभी नहीं देखा था | देर रात तक उनकी चीख चिल्लाहट सुरेश और बहू के ह्रदय को छीलती रही | ‘सुबह पैरों पर गिर माफ़ी माँग लूँगा’ सुरेश ने मन मन सोचा | दूसरी तरफ कमली सोच रही थी ‘कल मछली बनाऊँगी शायद बाबूजी मान जाऐं |’ बेचारे दोनों यही सोचते सोचते सो गऐ  |

गर्मी का सूरज ऊपर चढ़ कर तपने लगा था | रात देर से सोये सुरेश और कमली बहू की थकी आँखें तपन से जाग उठीं | उठते ही सुरेश को बाबूजी का ख्याल आया | भाग कर बाहर आऐ  | कोठरी का किवाड़ अभी भी भिड़ा था | बाबूजी इतनी देर तक तो कभी नहीं सोते | सुरेश ने हलके हाथों से किवाड़ को धक्का दिया | दरवाजा खुल गया | अन्दर का दृश्य देख सुरेश सन्न रह गया... बाबूजी चारपाई पर लुढके पड़े थे | एक टाँग, हाथ व सिर चारपाई के बाहर लटक रहे थे | खुली आँखों में चश्मा टँगा था...लाठी कोने में पड़ी थी...स्टूल उल्टा पड़ा था...

दरवाजे से चारपाई तक चार कदम का फासला तय करने में सुरेश गिर पड़े...नाक की सीध में ऊँगली लगाई और दहाड़ मार कर रो पड़े | कमली बहू पछाड़ खाकर दरवाजे पर ही गिर पड़ी | राजू माँ का पल्लू थामे खड़ा था | ‘मैं भी पागल कुत्ता हूँ... मैं भी पागल कुत्ता हूँ...’ काँपते हाथों से बाबूजी के शरीर को जमीन पर रखते हुऐ  सुरेश के कानों में बाबूजी के यही आखिरी शब्द गूँज रहे थे |   

 


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