नया जमाना आयेगा

नया जमाना आयेगा

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नानी-'नया जमाना आयेगा।'

पापा, मम्मी, चाचा, चाची, मझले मामा सभी हॉल में बैठे थे। बीच-बीच में पापा की तेज आवाज हॉल की सीमा लांघ भीतरी बरामदे तक आ रही थी।  

'आखिर दिखा दी ना अपनी औकात ! हमें कुछ नहीं चाहिए, यही कहा था ना उन्होंने पहली मुलाकात में।'

'मैंने तो पहले ही बताया था आपको जीजाजी। इस औरत ने अपने ससुराल वालों को कोर्ट में घसीटा था संपत्ति के लिए। मझले मामा की आवाज़ थी "भला भले घर की औरतें ऐसा करती हैं ?"

"आप लोग शांत हो जाइए "मम्मी की चिंतातुर आवाज, "आखिर क्या बात हुई है, कुछ बताइएगा भी !"

"अरे बात क्या होगी ? वही नाक ऐसे ना पकड़ी वैसे पकड़ ली।"

"ओफ़ो, आप साफ-साफ बताइए क्या कहा अपर्णा जी ने"अब मम्मी झल्ला गई थीं।  

"बुढि़या सठिया गई है। हमने तो पहले ही कहा था अपनी मांग साफ-साफ बता दीजिए, जिससे बाद में कोई लफड़ा ना रहे। पर तब तो बड़ी सॉफिस्टिकेटेड बनकर बोली थी, हमें सिर्फ लड़की चाहिए और कुछ नहीं।" पापा ने तीखे स्वर में कहा।  

"तो फिर अब क्या हो गया ?"

"अब ? अरे अपने आईएएस बेटे को भला ऐसे कैसे ब्याह देगी। लगता है कोई ऊंची बोली लगा गया है इसलिए इतना बड़ा मुँह फाड़ रही है बुढि़या।" चाचा की आवाज में चिढ़ और गुस्सा स्पष्ट था।  

"हम लोग लड़की वाले हैं हमें शांति से काम लेना चाहिए। लड़का लाखों में एक है। फिर हम कब लड़की को ऐसे ही विदा करने वाले थे। भले ही उन्होंने लेने को मना किया हो पर हमें तो अपने सारे अरमान निकालने थे। हमारे एक ही तो बच्ची है।" चाची ने अपने शांत स्वभाव के अनुरूप ही शांति वाला प्रस्ताव रखा।  

बरामदे में बैठी मैं उनकी बातें सुनकर गुस्से से उबल रही थी। उठ कर अपने कमरे में आ गई। अनुपम की मम्मी ऐसा करेंगी मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। उन्होंने मेरी, मेरी फैमिली की ऐसी इंसल्ट की। पापा तो वहाँ रिश्ता करने को तैयार ही नहीं थे। क्या हुआ जो लड़का आईएएस है। कोई फैमिली बैकग्राउंड नहीं है। लड़के की माँ भी बेहद तेज तर्रार औरत है। पति की मौत वर्षों पहले हो गई थी। ससुराल से कोई रिश्ता नहीं रक्खा। मायके में भी किसी से नहीं पटी। अकेले ही बच्चों को बड़ा किया, पढ़ाया लिखाया। 

मोबाइल की घंटी ने मेरा ध्यान भंग कर दिया। अनुपम का फोन था, मैंने काट दिया। अफसोस भी हुआ। अपने व्यस्त शेड्यूल से किसी तरह समय निकालकर तो उसने फोन किया होगा। पर अभी उससे बात करने का मन नहीं। क्या पता माँ की इच्छा में बेटे की इच्छा भी शामिल हो। हिप्पोक्रेट माँ-बेटे।  

मुझे अनुपम की मम्मी से पहली मुलाकात याद हो आई। अनुपम से मेरी अच्छी बनती थी। उसके साथ में मैं खुद को कंफर्टेबल और खुश महसूस करती थी। हमारी दोस्ती रिश्ते तक पहुँचेगी या हम भविष्य में साथ-साथ जीवन जीना चाहेंगे, कॉलेज की पढ़ाई के दौरान हमने यह सब नहीं सोचा था। हम बस इतना ही जानते थे कि एक दूसरे के साथ हमें सुकून और साहस देता था। अनुपम का सुलझा हुआ जमीनी व्यवहार मुझे बहुत अच्छा लगता। उसके व्यवहार में एक ठहराव था। बीए के बाद अनुपम दिल्ली चला गया और मैं इलाहाबाद में ही रह गई। हम फोन द्वारा संपर्क में रहते। मैं उसे दिल्ली की लड़कियों को लेकर चिढ़ाती। वह इलाहाबाद आने पर मुझसे जरूर मिलता। उसका एम ए. कंप्लीट हो गया था। उसने मास कम्युनिकेशन ज्वाइन कर लिया था और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी जोरों पर थी। उसी दौरान दिवाली की छुट्टी में सिर्फ 2 दिन के लिए इलाहाबाद आया था अनुपम। दिवाली की पूर्व संध्या पर हम सिविल लाइंस में टहल रहे थे। अचानक उसने पूछा था 'मेरे घर चलोगी कवि, मेरी मम्मी से मिलने ?'

'हाँ, क्यों नहीं' उस दिन उसकी आवाज में जाने क्या था कि, पहली बार उसके बाइक पर पीछे बैठते में मैं संकोच से भर गई थी।  

दुबली पतली लड़कियों जैसी फिजिक वाली उसकी मम्मी ने सहज हँसी बिखेरकर मेरा स्वागत किया था। उनकी चमकदार आँखें और होठों पर खिली निश्चल मुस्कान किसी को भी पल भर में अपना बना लेने की क्षमता रखते थे। पापा, मामा और चाचा कैसे उन्हें खडूस हिप्पोक्रेट बुढ़िया की पदवी से नवाज रहे थे। कैसे अपशब्द बोल रहे थे। उनके वह शब्द और अनुपम की मम्मी का व्यक्तित्व कहीं से भी दोनों का कोई साम्य नहीं था। क्या उनका वह प्यार, वह समझदारी और उदारता सिर्फ बाहरी आवरण था। भीतर से वह भी एक सनातन, बेटे की माँ थीं, एक लायक बेटे की माँ, जो अपने सारे ख्वाब सारे सपने अपने बेटे की शादी में कैश कराना चाहती हैं। पर आखिर कितना बड़ा मुँह फाड़ा है उन्होंने, जो पापा लोग बौखला गए हैं। पापा तो कितनी दुलार से कहते थे, मेरी शादी में वह इतना धूम मचा देंगे, सारा शहर वर्षों याद करेगा। आखिर पापा के बूते से बाहर क्या माँग रख दी अनुपम की मम्मी ने। सोच-सोचकर मेरा सिर फटा जा रहा था।  

अनुपम का दो बार फोन आ चुका था। पर मैंने रिसीव नहीं किया था। उसे पता था आज मेरे घर वाले फाइनल बातचीत के लिए उसके घर जाने वाले हैं। उसे भी जानने की उत्सुकता तो होगी ही कि, वहाँ क्या हुआ ? मैं फोन नहीं उठा रही थी, इसलिए वह चिंतित भी होगा। खाने के लिए मैं नीचे डाइनिंग टेबल पर नहीं गई। जाने क्यों सब का सामना करने में मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। भाभी मेरा खाना ऊपर मेरे कमरे में ही ले आईं थीं। रात जाने कब मुझे नींद आई सुबह उठी तो सर भारी था। कल की घटनाएँ मथ रही थीं। सच व्यक्ति के भीतर प्याज के छिलकों की मानेंद परते होती हैं। भीतर क्या कुछ छुपा है बाहर से क्या पता चलता है ?

मोबाइल पर अनुपम का तीन मिस कॉल और एक मैसेज था। 'क्या बात है ? मुझे चिंता हो रही है। बात करो।' मैंने उसे फोन लगाया और बिना उसे कुछ कहने का मौका दिए उस पर बरस पड़ी। वह चुपचाप सुनता रहा। जब मेरी भड़ास निकल गई, तो उसने सिर्फ इतना ही कहा, 'मैं अपनी मम्मी को बहुत अच्छे से जानता हूँ। जरूर कुछ मिस अंडरस्टेंडिंग है। तुम पहले उनसे जाकर मिलो। प्लीज !' कुछ सोच कर मैंने कहा ठीक है।  

बड़े बेमन से खिन्न मनःस्थिति में ही गई थी मैं अनुपम के घर। दरवाजा उन्होंने ही खोला था। बैगनी छींट का कुर्ता और सफेद सलवार दुपट्टे में वह बहुत प्यारी लग रही थीं। चेहरे पर वही आत्मीय मुस्कान।  

"आओ !" मुझे देख हैरान भी थीं। कल ही मेरे पापा चाचा आए थे बात करने और आज मैं पहुँच गई। सादा सा ड्राइंग रूम था। बेंत का सोफा। उस पर नीले चेक की गद्दियाँ। सफेद कुशन हल्के नीले पर्दे, कुछ चीनी मिट्टी के छोटे गमले जिनमें इंडोर प्लांट्स लगे थे। एक सेल्फ जिस पर किताबें और साइड टेबल जिस पर बुद्ध भगवान की मिट्टी की मूर्ति और चंद मैगजीन। बस यही था। इसी से सटा एक और कमरा किचन बाथरूम। सिर्फ यही उनकी पूंजी थी। 

मैंने सीधे ही उनसे पूछा, 'आंटी पापा और चाचा यहाँ से बहुत नाराज होकर गए हैं। आपने ऐसी क्या मांग रक्खी है। अनुपम तो कहता था दहेज की कोई डिमांड नहीं है। और फिर पापा तो वैसे भी बहुत खर्च कर रहे हैं।' कहते-कहते मान से मेरी आँखें भर आईं। अनुपम ने जोर ना दिया होता तो मैं कभी भी ना आती यहाँ। मेरा मन तिक्त हो गया था। मैं अनुपम से प्यार जरूर करती थी, पर उससे शादी करने के लिए मैं अपने परिवार वालों और अपनी इज्जत की धज्जियाँ नहीं उड़ते देख सकती। होगा कलेक्टर, हुआ करें !

"अच्छा तुम बताओ, तुम्हारे पापा क्या-क्या देने वाले हैं तुम्हें ?" उन्होंने शांत लहजे में मुझसे पूछा।  

मैं अचकचा गई। ऐसे सवाल की मुझे उम्मीद नहीं थी। वह भी इतनी शांति से।  

क्या जवाब दूँ ? मुझसे तो ऐसी कोई बात नहीं हुई। बस उन्हें बातचीत करते सुना था। वही बताने लगी, पापा ने शहर की सबसे महँगी कैटरिंग बुक की है। सबसे महँगे होटल से इंगेजमेंट करना तय किया था। करीब दस बारह लाख वाली गाड़ी दे रहे हैं अनुपम को। मम्मी ने करीब पन्द्रह बीस तोले सोने के जेवर बनवाए हैं मेरे लिए। कुछ जड़ाऊ सेट भी हैं। शादी के कपड़ों की शॉपिंग के लिए दिल्ली भेजने वाले हैं मुझे। शगुन के कपड़े भी सब ब्रांडेड होंगे। इकलौती ननद ननदोई के लिए सोने की अंगूठी चेन बनवाई हैं। सास के लिए माणिक का सेट है। सारे बारातियों के लिए भी महंगे गिफ्ट हैं।"

"लेकिन बेटा, मैंने उनसे यह सब करने को तो नहीं कहा। मुझे और मेरे बेटे को कुछ भी नहीं चाहिए। अपनी तरफ का जो लेनदेन होगा वह मैं खुद देख लूँगी। उसके लिए मुझे लड़की के घरवालों से कुछ नहीं लेना।"

"फिर ? फिर ? आपने कौन सी मांग रखी ?"

"मेरी कोई माँग नहीं है। तुम अपने लिए पाँच हजार का लहँगा बनवाओ या पचास हजार का इससे भी मुझे कोई मतलब नहीं। तुम सिर से पाँव तक गहनों से भरी हो या बिना गहनों के, इससे भी मुझे कुछ लेना देना नहीं। तुम्हारे घर वाले शादी किसी फाइव स्टार होटल से करें या अपने घर के सामने वाले मैदान में टेंट लगवा कर करें इससे भी मुझे कोई परेशानी नहीं। तुम मेरे बेटे को पसंद हो तो मुझे ऐसे ही प्रिय हो।"

"तो तो फिर पापा क्यों इतने गुस्से में है ? आप की क्या माँग है ?"

"पहले तुम मेरे कुछ प्रश्नों के जवाब दो, फिर मैं तुम्हें बताती हूँ।"

"जी, पूछिए !" मैं व्यग्र हो रही थी। 

"तुम कितने भाई बहन हो ?"

"सिर्फ दो। मैं और छोटा भाई यश, "मुझे खीज हो रही थी। यह कैसा सवाल था जिसका जवाब उन्हें पता ही था पहले से।  

"अपने पापा की इनकम, प्रॉपर्टी, इन्वेस्टमेंट इसके बारे में क्या जानती हो ?"

"कुछ नहीं" मैं चकरा गई !

"फिर भी ?"

"आंटी उतना तो आप भी जानती हैं" अब मेरी खीज मेरी आवाज़ में भी उतर रही थी।  

"हाँ मैं जानती हूँ तुम्हारे पिता इस शहर के रईसों में गिने जाते हैं। पैतृक संपत्ति के अलावा उन्होंने स्वयं भी काफी कुछ अर्जित किया है।"

"जी ! लेकिन इस बात का मेरी शादी से क्या ताल्लुक ?"

"सुनो मैंने उनसे क्या माँगा ? मैंने उनसे उनकी संपत्ति में से तुम्हारे लिए हिस्सा माँगा है।"

"क्या ?" मेरे मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई। दुख और अपमान से मेरी आँखें भर आई। तो यह बात थी। इतना कुछ कम लग रहा था इस औरत को जो संपत्ति में हिस्सा माँग रही है। लालची बुढ़िया। जरूर अनुपम की भी इसमें रजामंदी होगी। कलेक्टर साहब घाटे का सौदा क्यों करेंगे भला ? माय फुट ! भाड़ में गए ये। मैं कभी लालची लोगों के यहाँ शादी नहीं करुँगी।  

"अरे तुम रो क्यों रही हो ?"आंटी घबराकर मेरे पास आकर बैठ गईं। मैंने उनके हाथ झटकते हुए कहा, "प्लीज ! मुझे आप लोगों से ऐसी आशा नहीं थी !"

"तुम शांत हो जाओ, लो पानी पी लो, और पहले पूरी बात सुन लो। "वह बताने लगीं, "यह तो तुम जानती ही हो अनुपम और नेहा बहुत छोटे थे तभी उनके पापा का देहांत एक एक्सीडेंट में हो गया था। और मैंने दोनों बच्चों को अकेले बड़ा किया है "जी, मैं जानती हूँ ये सब ! "मै उकता रही थी। जानी हुई बात जानने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

"पर तुम बहुत कुछ नहीं भी जानती।" उनकी आवाज उदास हो गयी। 

"मुझे जो भी मिला वह सब लड़कर ही मिला। और उस दौरान मैंने रिश्तों की असलियत बड़े नजदीक से देखे। मुझे मेरे हिस्से का पूरा ना मिले इसके लिए सभी ने यह बताया कि यह उनकी स्व अर्जित संपत्ति है, जिसमें वह जिसे चाहें वह उसे दे सकते हैं। तब मैंने अपने बच्चों की तरफ से कोर्ट में केस दाखिल किया था। ससुराल वालों के विरुद्ध। बच्चों को बाबा की संपत्ति में अधिकार दिलाने के लिए। यह सब करके हमारे बच्चों को जो भी थोड़ा बहुत मिला। पैरों के नीचे जमीन तो आ गई, लेकिन सारे रिश्ते अनजाने हो गए। सगे, पराये हो गये। मेरे बच्चों ने अनाथों-सा जीवन जिया है। इनके चाचा, ताऊ, मामा के बच्चे बड़ी-बड़ी गाड़ियों में स्कूल जाते थे। अनुपम और नेहा पैदल जाते थे। मैं ऑटो भी नहीं करती थी, ताकि पैसे बचे।  एक स्कूल की साधारण-सी नौकरी थी मेरी। उसमें मुझे भविष्य के लिए बच्चों की पढ़ाई के लिए उनकी शादी ब्याह के लिए सब कुछ सोचना था।"

"लेकिन ससुराल के घर पर आपका हक तो था, वहाँ से कोई कैसे निकाल सकता था आपको ?" मैंने बीच में उन्हें टोका।

"हक कुछ नहीं था, हाँ आश्रय जरूर मिलता। एक मुफ्त की नौकरानी उन्हें मिल जाती। मेरे बच्चे ज़िन्दगी भर टूअर बन कर रहते। उन्हें मेरा नौकरी करना गवारा नहीं था। कहते नौकरी करने की क्या जरूरत है। घर मे किस बात की कमी है ? मेरा कहना था कि, वह अपने जीते जी मेरा हिस्सा दे दें। उनके बाद क्या मैं जेठ, देवर और उनके बच्चों से अपने हिस्से के लिए लडूँगी ? उनके आगे हाथ पसारना होगा। पर उन्होंने तो दो टूक कह दिया मेरी स्व-अर्जित संपत्ति है इसमें तुम्हारा कोई हक नहीं। अब तो सरकार का फैसला भी हो गया है कि बहू सास ससुर से संपत्ति में हिस्सा नहीं माँग सकती। पर मैं हार मानने वाली नहीं थी। मैंने बच्चों की तरफ से क्लेम किया था। मायके वाले भी नाराज थे। कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ना उनको नहीं सुहा रहा था। उनका कहना था जिंदगी भर यहीं रहो, हम तुम्हें और बच्चों को पाल लेंगे। पर मुझे तो अपना और बच्चों का हक चाहिए था, दया नहीं। आखिरकार फैसला बच्चों के हक में हुआ पर दादा के घर के दरवाजे उनके लिए बंद हो गए। मैंने उसी वक्त ठान लिया था कि मैं अपनी बेटी को बेटे के बराबर सब कुछ दूँगी। जो भी मेरा है वह उन दोनों का है। मैंने बेटी की शादी में शर्त रखी थी कि मैं दहेज के रूप में एक पैसा नहीं दूँगी। अपनी तरफ का खर्च मैं करूँगी आप अपना और अपने बेटे का शौक पूरा करो। हाँ मैंने बेटी के नाम से पैसे, गहने, गाड़ी और एक छोटा सा फ्लैट सब दिया। पर वह सब एक अभिभावक के तौर पर दिया। उसकी शादी ना होती तो भी मैं यह सब उसे देती। पर दहेज के रूप में कुछ नहीं दिया। मैं नहीं चाहती मेरे जैसी स्थिति मेरी बेटी मेरी बहू की हो। मैं तुम्हारे पिता से दहेज नहीं माँग रही। सिर्फ बस तुम्हें तुम्हारा हक, जो एक बेटी होने का है, जो इस देश के संविधान ने तुम्हें दिया है, वही देने की बात कर रही हूँ। क्या मैं गलत हूँ ? मैं तुम्हें 2 कपड़ों में ले आऊँगी। लेकिन फिर तुम्हें पलट कर अपने मायके की तरफ नहीं देखना होगा। मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँगी कि अनुपम जैसा अभी तुम्हारे साथ है हमेशा वैसा ही रहे। तुम्हें प्यार और इज्जत देता रहे। कभी कोई दुर्घटना तुम्हारे जीवन में ना घटे। बेटा मुझे गलत मत समझना, मैं बस बेटियों के पैरों के नीचे जमीन सुनिश्चित करना चाहती हूँ। गरीब परिवार की बात जाने दो, जो अच्छे पैसे वाले हैं वह भी बेटियों के लिए कुछ नहीं करते। शादी में लाखों करोड़ों दिखावे में खर्च कर देंगे, पर बेटी के नाम से बैंक में कुछ हजार भी नहीं देंगे। खुद के चार, पाँच मकान दुकान और और जमीन होंगी पर बेटी को एक जमीन भी उसके नाम से नहीं दे सकते। जब तक जन्मदाता ही बेटी यूँ को पराया धन मानते रहेंगे उनकी हालत भाग्य के भरोसे ही रहेगी।" कहकर वह चुप हो गईं। मैं आश्चर्य से उन्हें देख रही थी। मेरी आँखें खुल चुकी थीं। मैं भाव विभोर होकर उनके गले लग गई।  

घर लौटते वक्त मै फैसला ले चुकी थी। शादी तो अब आंटी के शर्तों के अनुरूप ही होगी। अब अपने घर के झंझावतों से निपटने के लिए मुझे अपने भीतर हिम्मत पैदा करनी थी। आख़िर मैं एक प्रशासनिक अधिकारी की पत्नी होने जा रही थी। गलत सही का सहूर तो मुझमें होना ही चाहिए और सही की तरफ मजबूती से कदम भी बढ़ाने चाहिए। मुझे पता था, एक लड़ाई अब मेरे घर मे शुरू होगी। और इस लड़ाई में मेरे सारे अपने मेरे विरूद्ध खडे़ होंगे। बिना किसी डर और लिहाज के मुझे ये लड़ाई लड़नी है, नया जमाना लाने के लिए।


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