मुझे ध्यानचंद्र जी से मिलना है

मुझे ध्यानचंद्र जी से मिलना है

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मुझे ध्यानचंद्र जी से मिलना है

 

 

मुझे ध्यानचंद्र जी से मिलना है । मशहूर हॉकी खिलाड़ी नहीं, यह दूसरे ही ध्यानचंद्र हैं । मिलना है तो मिलना है, सो दोपहर की चिलचिलाती धूप में ही निकल पड़ा हूँ । शहर की मुख्य साफ-सुथरे सड़क से होते हुए,पसीने से लगभग नहाते हुए, तंज, सँकरी, गंदी, गलियों से होते हुए मैं आख़िर आ ही पहुँचा हूँ , ध्यानचंद्र जी के दरवाजे तक । विश्वास न हुआ कि यही उनका वास स्थान है । दरवाजे के सम्मुख आते ही मैं देखता हूँ कि पुराने लोहे दरवाजे में जंग-लग चुकी है और कई जगहों से तो वह टूट-टूट कर इतना कमजोर हो गया है कि अगर दो चार गली के कुत्ते भी ज़ोर- ज़ोर से झगड़ते हुए अचानक आ गिरें उस पर तो वह दरवाजा टूट ही जाएगा । और हर आता जाता इस घर में प्रवेश कर जाएगा । ख़ैर मैंने बाहर लगे कॉलिंग बेल का स्विच दबाया और इस आस के साथ इंतजार करने लगा कि ध्यान जी आकर दरवाजा खोलेंगे और मेरी वर्षों की उनसे मिलने की तमन्ना, तमन्ना क्या कहिए एक तरह से तपस्या ही, पूरी हो जाने वाली है । मगर स्विच दबाने के क़रीब दो मिनट बाद सुगठित शरीर वाली सामान्य कद-काठी के एक महिला निकलती हैं । होठों पर गाढ़ी लाल लिपस्टिक और चेहरे पर मेक-अप तो दिख ही रहे हैं, भौंहों के ऊपर लगाए मेक-अप भी स्पष्ट पता चल रहा है जिसे देखकर ऐसे लग रहा है कि वह अभी ही कहीं बाहर किसी पार्टी के लिए निकलने वाली हों । इस मेक-अप ने सुन्दरता को और भी गाढ़ा कर दिया है । उनके चलने के अंदाज में मुझे नृत्य की मुद्रा दिखाई देती है । मैंने उनके चेहरे को नज़र अंदाज करते हुए घर के अंदर झाँकते हुए कहा, "ध्यानचंद्र जी से मिलना है । " मैंने उनका परिचय पूछना उचित नहीं समझा ।

"बैठिए ।... मेरा नाम कामाश्री देवी है । ध्यानजी अंदर हैं, आप बैठिए वे आते ही होंगे ।", वे अपनी चंचल मुद्रा को सहज बनाने की कोशिश करते हुए कहकर सीधे अंदर चली जाती हैं । जाते-जाते सामने ही रखे एक पुराने से सोफे पर बैठने का संकेत करते जाती हैं । मैं उस सोफे पर बैठ आदतन अपनी निगाहें यहाँ के हर संभव स्थान पर दौड़ाने लगता हूँ । प्रवेश द्वार पर ही जूते रखने के लिए पुराना लगभग टूटा हुआ एक काठ का बॉक्स दिखाई देता है । दीवारों पर दोनों तरफ़ एक-एक पुरानी ऑयल पेंटिंग लगी हुई है । एक तरफ़ की पेंटिंग कोई मार्डन आर्ट लग रही है जिसमें एक नारी है शायद, जो झुरमुट में छिपी है, हाँ नारी ही तो है । पहचान पाना कठिन है। उसके वस्त्र सफेद और लाल रंग के फुलों से ही कंट्रास्ट में बनाए गये हैं; अन्य कोई आवरण नहीं है । और क्या बनाया गया है मुझे समझ में नहीं आ रहा है । मुझे लग रहा है कि यह हरे रंग के झुरमुट को एक पुरुष जैसा बनाया गया है । फिर लगा कि नहीं इस हरे रंग के नीचे और भी कई रंग हैं जिसे पुरुष आकार बनाने की कोशिश की गई है । मैंने सोचा कि यह मैं गलत सोच रहा हूं शायद ; क्योंकि हरे रंग से तो प्रकृति को दर्शाया जाता है यह पुरुष कैसे हो सकता है ? फिर मुझे लगा कि हो सकता है कि छिपा हुआ चरित्र ही पुरुष हो और यह नीचे प्रकृति का हो जिसे नारी के तरह दिखाया गया है । आसमान के तरफ़ भी कुछ बनाया गया है कई रंगो से मिलकर जो एक नारी की ही आकृति दिखाई देती है । फिर मैंने सोचना ही छोड़ देता हूँ कि यह क्या है ? कैसे है ? दूसरे तरफ़ की दीवार वाली आर्ट तो और भी कुछ समझ नहीं आती है । आढ़ी-तिरछी लकीरें । लकीरों के ऊपर और लकीरें । एक रंग कई लकीरों के ऊपर और कई लकीरें को मिलाकर एक रंग बनाने की कोशिश की गई है शायद । वैसे भी मुझे मॉर्डन आर्ट कुछ समझ में नहीं आता हैं, परंतु उसे देखते रहने को जी करता है उसमें से कुछ न कुछ खोजने में दिमाग उलझ जाता है, और मैं भी इस तरह के इंतजार के समय काटने के लिए ऐसे उलझ जाया करता हूँ । शायद ये मॉर्डन -आर्ट इसलिए लगाया जाता है घरों पर कि लोग अपना समय काटते हुए कुछ दिमागी कसरत कर सकें । सामने आलमारी में बहुत सारी पुस्तकें क़रीने से रखी हुईं हैं । सोफे के सामने भी पुराना टी-टेबल रखा हुआ है उस पर स्वास्थ्य संबंधी कुछ पत्रिकाएँ रखी हुईं है । उनमें से युवा स्वास्थ्य और प्रजनन संबंधी पत्रिकाएँ एक से अधिक हैं । घर में सब कुछ नजर आ रहा है । पर यह दरवाजा और जूतों का बॉक्स इतना टूटा हुआ क्यों है ? फिर से दरवाजे के तरफ़ नजर चली जाती है । दरवाजे की हालत तो ऐसी है कि कोई भी जानवर, कम से कम गली के कुत्ते तो जब-तब घुसे चले आएँगे । अब इस प्रश्न का उत्तर तो किसी घर वाले से पूछा नहीं जा सकत है सो स्वयं यह अंदाजा लगा लेता हूँ कि प्राथमिकता की बात है । ...

कुछ देर में एक पुरुष आते हैं । साधारण लम्बाई के चंचल नयन वाले । ऊर्जा से भरपूर गठिला बदन । उछलती हुई गर्म सांसे । पैरों में भी इतनी ऊर्जा है कि वे हमेशा चलने को तत्पर लग रहे हैं । तड़क-भड़क लाल टी- शर्ट पर ना जाने क्या लिखा है । मैंने सोचा ध्यान जी ही होंगे पर उन्होंने भी कहा, "ध्यानजी अंदर हैं , आप बैठिए वे आते ही होंगे ।"

मैं जब समझ जाता हूँ कि ये ध्यानचंद्र जी नहीं हैं तो यह जाहिर कर मूर्ख बनना उचित नहीं समझता हूँ कि मैंने आपको नहीं पहचाना । मैं ऐसे भाव बनाकर कहता हूँ कि मुझे मालूम है कि आप ध्यानचंद्र जी नहीं हैं और मैं आपको भी पहचानता हूँ । तब तक "मेरा नाम कामेश्वर है । मैं ध्यानचंद्र जी का छोटा भाई हूँ ।” कहकर, उन्होंने अपना परिचय स्वयं देना आरंभ कर मेरा काम आसान कर दिया , "वैसे तो लोग ध्यान जी से मिलने आते रहते हैं पर आपको किस लिए मिलना है ?"

"पत्रिका के लिए साक्षात्कार करना है , ध्यानचंद्र जी का । मैं एक साहित्य पत्रिका निकालता हूँ ; इसी शहर का रहने वाला हूँ ।"

"अच्छा ! आप भरत कुमार जी हैं ।"

“आप जानते हैं मुझे ।"

"जी नाम से जानता हूँ । वैसे मैंने आपकी पत्रिका भी नहीं देखी है । मगर सुना है कि आप साहित्य की सेवा में जुट गए हैं ।"

"साहित्य सेवा क्या... बस ..। मैं तो ध्यान जी के बारे में सुना था तो सोचा उनसे पहले मैं मिल लूँ फिर उनसे अपनी लेखन के माध्यम से लोगों को भी मिलवा दूँ ।..ध्यानचंद्र जी कितने देर में आएँगे?”

"बस आते ही होंगे”, इस बार उनके चेहरे पर एक विनोद झलक रहा है, वे मेरे ध्यानचंद्र जी से मिलने की ललक को भाँपते हुए कहते हैं, “भाई मेरे, थोड़ा धीरज धरिए ।" ’भाई मेरे’ शब्द सुनकर मैं आत्मीयता बोध करता हूँ। वे कहना जारी रखता हैं, "ध्यान चंद्र जी से मिलने के लिए आपको पहले उनके छोटे भाई कामेश्वर जी की सीढ़ीयाँ लांघनी होंगी । हमलोग साथ-साथ ही रहते हैं । मगर हाँ ! हम एक दूसरे के कार्य और विचार में हस्तक्षेप नहीं करते । फिर भी जिसे भी जाना होता है ध्यानचंद्र जी के पास वह हमारी ही सीढिया लांग कर जाता है । अर्थात इसी दरवाजे से जाता है । ध्यानजी ने कोई अलग रास्ता नहीं बनाया है उन तक सीधे जाने के लिए । इतना आसान नहीं है ध्यानचंद्र जी को पा लेना । "

मेरे चेहरे पर परेशानी की मुद्रा आने से पहले ही वे अपनापन लिए मुस्कान से कहते हैं, “नहीं भाई ! आप चिंता न करें मैं तो विनोद कर रहा हूँ । मेरा स्वभाव ही है विनोद करना । मैं तो बस तात्क्षणिक आनंद में डूबा रहता हूँ । और लोगों को इस तात्क्षणिक आनंद में डूबा देना भी मुझे अच्छा लगता है । मैं ध्यानचंद्र जी सा गंभीर नहीं रह सकता । ...वे थोड़ी देर में आ जाएँगे । पहले मेरे साथ कुछ देर रहने का तो आनंद लीजिए । फिर तो आप उनके पास पहुँच ही जाइएगा ।... उनके स्नान करने में कुछ वक्त लग जाता है । वे कहा करते हैं कि रोम-रोम से स्नान का आनंद लेकर स्नान करना चाहिए । रोम-रोम को एहसास दिला देना चाहिए कि उन्होंने स्नान कर लिया है ।..भाई ! मुझे तो उनकी यह बातें पल्ले नहीं पड़ती है और जितना जल्दी हो सके नहा कर अपने कार्य में लग जाना चाहता हूँ ।.."

"नहीं कोई बात नहीं । मैं तो बस यूँ ही पूछ रहा है । ", मैंने मन ही मन सोचा स्नान करने में क्यों समय लग जाता होगा ध्यानचंद्र जी को । रोम-रोम को एहसास दिला देने वाली बात मेरे भी कुछ पल्ले नहीं पड़ती है ।

इतने में वह महिला फिर आती हैं । एक प्लेट में कुछ बिस्कुट, काजू और किशमिश आदि लेकर, पानी के साथ । उनके आते ही कामेश्वर जी ने प्लेट उनसे अपने हाथों में ले लेते हैं और मुझे बताते हैं, “ ये हैं कामाश्री देवी, मेरी जीवन संगीनी "

"अच्छा.. जी, हाँ अभी कुछ देर पहले मुलाकात हुई थी, आपके आने से पहले ।", मैंने कहता हूँ ।

"आप कुछ पुस्तकें क्यों नहीं दिखाते, इन्हें । बैठे-बैठे बोर हो रहे होंगे । ", उन्होंने अपनी चंचलता को अपने में समेटने की कोशिश करते हुए मेरे तरफ़ झटके से देखकर बिजली की गति से वापस चली गईं ।

“हाँ ! हाँ ! देखिए । आलमिराह में बहुत सारी पुस्तकें हैं, जो भी चाहें आप देख सकते हैं ।", कामेश्वर जी ने जैसे इस बात पर ध्यान नहीं दिया हो उनके कहने से पहले ।

मैंने देखता हूँ अधिकतर पुस्तकें आयुर्वेद की है । जिसमें स्त्री-पुरुष स्वास्थ्य की पुस्तकें ज़्यादा नजर आ रही हैं । एकाएक मेरी नज़र प्रख्यात संस्कृत के आचार्य वात्यसायन जी की प्रसिद्ध पुस्तक पर चली जाती है । मेरी निगाहों को कामेश्वर जी पीछा कर रहे हैं इसका मुझे भान नहीं हुआ । उन्होंने मेरी नजर को भाँपते हुए समझा होगा कि मुझे संकोच हो रहा है । इसलिए वे पूछते हैं, "ला दूँ क्या उस पुस्तक को ?” और उसे उतारने को लपकते हैं । मैंने कहता हूँ, “नहीं ! नहीं ! कामेश्वर जी रहने दीजिए । उसकी अब ज़रुरत नहीं हैं । मैंने जीवन के शुरूआती दौड़ में उसके कुछ अंश पढ़ लिए हैं । जितना जरूरत था उतना पढ़ लिया है । "

उन्होंने अपने बढ़े हुए हाथ को रोकते हुए कहा, बस ऐसी पुस्तकों को इन आयुर्वेदिक औषधियों के पुस्तकों के साथ रखा है । हर तरह की औषधियाँ तैयार करना हमारा काम है । भले ही इसमें हमारा कोई विशेष लाभ नहीं होता है मगर बहुतों के दु:ख दर्द दूर हो गये हैं , इससे । हम पूरी विधि से ही औषधि बनाते हैं ।

मुझे अब फिर से ध्यानचंद्र जी का ध्यान आ जाता है । फिर पूछना उचित नहीं समझता हूँ । मन ही मन सोचने लगता हूँ । ध्यानचंद्र जी से मिलने के लिए कितने और बाधा पार करने होंगे । इस वक्त तो ये सारी पुस्तकें उनसे मिलने में एक बाधा ही महसूस हो रही हैं । जबकि मुझे पुस्तकों से बचपन से प्रेम हैं । इस समय तो नहीं है मगर । सिर्फ एक ही धून हैं । किसी भी तरह से ध्यानचंद्र जी से मिलना है । उनसे साक्षात्कार करना है । एक तरह से मैं उतावला होने लगता हूँ ।

इतने में एक सज्जन पुरुष का आगमन का एहसास होता है मुझे । मैं अपने आप से कहता हूँ- अब तो इंतजार खत्म ही हुआ समझो । उनके माथे पर तिलक है चंदन का । लाल रोली भी है उनके बड़े से कपाल पर । गले में एक रुद्राक्ष का माला । खद्दर का ऊपरी वस्त्र और एक रंगीन पैजामा गाढ़ा नीला एवं लाल रंग की धारियों वाली । आते ही उन्होंने कहा, “ आइए, ऊपर चलते हैं । " वे मुझे वहाँ से लगभग खींचते हुए ले चलते हैं । यह कमरा समाप्त होते ही एक दूसरा कमरा आता है जो चार पाँच सींढियाँ चढ़ने बाद कुछ ऊंचाई पर आता है । यह कमरा एक के बाद एक ही आता है । पहले वाले कमरे से आकर ही यहाँ तक जाया जा सकता है । यह सीढियाँ चढ़ते ही मुझे लगता है कि मैं किसी अन्य जगह आ गया हूँ । पहले जिस कमरे में था उससे तो यह बिलकुल ही अलग है । घर के उपयोग के सारे उपकरण नये ढंग के हैं । यहाँ तक कि एक जगह कम्प्यूटर भी लगा हुआ है, एल.ई.डी स्क्रीन वाला । सामने आलमारी में पुस्तकें ही पुस्तकें हैं । थोड़े से जगह पर एक आइना लगा हुआ है । दूसरे तरफ़ कपड़े रखने के लिए खुला एक आलमिराह है । जिस पर कपड़े क़रीने से रखे हुए हैं । बाकी के स्थानों पर पुस्तकें ही पुस्तकें रखीं हुईं हैं । हिन्दी साहित्य के लगभग सभी साहित्यकारों की पुस्तकें । कुछ अंग्रेजी और संस्कृत की भी पुस्तकें शिक्षा के क्षेत्र की अनेकों पुस्तकें । आलोचना की विविध पुस्तकें । कुछ कम्प्यूटार की भी पुस्तकें । मेरी नज़र उन सभी पुस्तकों पर एक बार घूम लेना चाहती हैं । मुझे लगता है कि जैसे मैं किसी छोटा-सा पुस्तकालय में ही प्रवेश कर गया हूँ ।

मैंने कहा, “ आपसे मिलने की बहुत तमन्ना थी, ध्यानचंद्र जी । बहुत दिनों से कोशिश कर रहा था कि आप से साक्षात्कार करूँ । पत्रिका तो बस बहाना है । आपसे मिलने की निजी इच्छा अधिक थी ।"

“अरे ! भाई रुकिए । जरा ठहरिए तो । आप तो भागे ही जा रहे हैं ।...मैं ध्यानचंद्र जी नहीं हूँ जिससे आपको मिलना है । मैं तो उनका मंझला भाई , ज्ञानचंद्र हूँ ।", उनके विनोद छिपाने की कोशिश करने वाले चेहरे पर थोड़ी मुस्कान छा जाती है । "ध्यानचंद्र जी ने ही मुझसे कहा है कि मैं आपको तब तक अपने पास बिठाऊँ जब तक कि वे थोड़ा ध्यान नहीं कर लेते । उनका स्नान हो चुका है अब वे थोड़ा ध्यान करेंगे तब आपसे बातें करेंगे । हम तीनों भाई साथ-साथ ही रहते हैं वर्षों से । यह कहिये कि सदियों से । "

"सदियों से ?", मैं तो पूरी तरह चौंक गया ।

"नहीं ! नहीं ! चौंकिए मत । मेरा कहने का मतलब था कि हमारे कई पुस्त इसी मकान में रहें हैं । हम तीनों के पिता भी तीन अलग-अगल भाई ही थे । जो इसी तरह रहते थे । और हमारे दादाजी भी तीन भाई ही थे जिनकी एक -एक ही संतान थे । और दादाजी भी बता गये हैं कि उनके दादाजी तक इस मकान में इसी तरह रहते थे । एक का पुत्र एक कई पीढ़ियों से चला आ रहा है । "

मैं इतना जटिल ज्ञान लेने की मुद्रा में नहीं था और शायद समझने कि क्षमता भी नहीं थी और आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई । मैं सोचने लगा कि यह क्या मुसीबत है ध्यानचंद्र जी से मिलकर भी नहीं मिल पा रहा हूँ । उनके इतने क़रीब आकर भी दूर चला जा रहा हूँ । यह हो क्या रहा है मेरे साथ । उनके घर में आकर भी मुझे क्यों भटकना पड़ रहा है । पता नहीं और कितनी देर मुझे इंतजार करना पड़े । ..जब इतना इंतजार कर ही लिया तो थोड़ी देर और सही । यही सोच कर मैं अपने आप को सांत्वना देन की कोशिश करता हूँ

"नाश्ता तो आप कर लिए होंगे ? चाय लेंगे कि कॉफी?”, उन्होंने मुझसे पूछा । शायद हमेशा का यही रूटीन रहा होगा जब कभी भी कोई उनसे मिलने आता होगा तो । और यह भी हो सकता है कि उन्होंने नाश्ते के प्लेट देख लिए हों कामेश्वर जी के यहाँ ।

"नहीं ! नहीं ! रहने दीजिए मैं कुछ नहीं लूँगा । हाँ नाश्ता हो गया है । वैसे भी मैं चाय पिता ही नहीं हूँ ।"

"तो कॉफी?”

"नहीं ! नहीं ! बिलकुल नहीं । बस ध्यानचंद्र जी से भेंट हो जाए ।"

"बस कुछ देर और । तब तक आप पुस्तकें देख सकते हैं ।", उनका सुझाव तो ठीक था और मुझे पुस्तकें पसंद भी है देखना । परंतु इस वक्त मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है । मैं ज्ञान की इतनी पुस्तकों से एक तरह से उकताऊ-सा महसूस करता हूँ । मेरे अंदर अब इससे अधिक लेने की क्षमता नहीं है ; कम से कम इस समय तो नहीं । मैं एक बाल्टी के तरह पूरा भर चुका हूँ । पहले तो ज्ञान से और अब इंतजार से । उस बाल्टी से अगर कुछ पानी निकाल दिया जाता है तो अच्छा है नहीं तो वे अब गिर कर नष्ट ही होने वाले हैं । बाल्टी ही इतनी छोटी है तो मैं क्या कर सकता हूँ । अपना ध्यान दूसरी तरफ़ लाने के लिए पूछता हूँ “ज्ञानचंद्र जी, अगर आप बुरा ना माने तो क्या मैं जान सकता हूँ कि आप क्या करते हैं; मेरा मतलब है आपकी जीविका...?”

"मैं कॉलेज में पढ़ाता हूँ । मैंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत तीनों में स्नातकोत्तर की है । और हिन्दी में पी.एच.डी.।"

मैं मन ही मन नतमस्तक हो जाता हूँ । मगर कुछ बोल नहीं पाता हूँ । ध्यानचंद्र जी से मिलने के लिए अधीर-सा होता जा रहा हूँ । मेरी अधीरता को भाँपते हुए ज्ञानचंद्र जी ने कहते हैं, “आप शायद परेशान हो रहें हैं । बस थोड़ी देर और इंतजार कीजिए । ध्यानचंद्र जी से मिलने का कोई भी जल्द करने वाला उपाय नहीं है । धीरज तो आपको धरना ही पड़ेगा । " कहकर वे भी हमारे सामने ही आलोचना की एक पुस्तक लेकर बैठ जाते हैं और पहले से अधिक गंभीर हो जाते हैं । मेरे धैर्य की सीमा को टूटता देख वे बहुत ही शांत और प्रेम भाव से कहते हैं, “अगर आप को देर हो रही है तो आप किसी और दिन आ सकते हैं । मैं उनको बता दूँगा कि आप चले गयें है । और कब आइएगा यह बता दीजिए या फिर फोन पर बात कर लीजिएगा आने से पहले एक बार । ऐसा पहली बार आपके साथ नहीं होगा ; बहुत सारे लोग उनका साक्षात्कार लेने के लिए आकर इंतजार कर चले गये हैं । उन सभी को आपके ही रास्ते उन तक पहुँचना था मगर वे धीरज ना धर पाये । वैसे आप उन सभी से ज़्यादा धैर्यवान नज़र आ रहे हैं । चिंता न करें बहुत लोग उनसे मिलकर भी गये हैं । "

कुछ देर बाद उन्होंने सीढ़ियों के तरफ़ इशारा कर कहा, “ वह देखिए , आ रहे हैं ध्यानचंद्र जी ।"

मैंने राहत की साँस ऐसे ली जैसे कि डूबता को किनारा मिल गया हो । जैसे मैं कब से पानी के अंदर छटपता रहा था कि कब ऊपर आकर जीवन दायिनी वायु ले सकूँ । उनको देखते ही मेरे पूरे शरीर में न जाने कौन-सी राहत की लहर दौड़ गई है । वे मुझे मार्बल की सीढ़ियों से ऊपर लेते जा रहे हैं । पहले चार-पाँच अजीब सी सिढ़ियाँ चढ़कर आया था अब पूरी के पूरी सुगठित सीढ़ियों से दूसरे तल्ले पर आ गया हूँ । छोटा सा कमरा । पुस्तकें यहाँ भी रखी हुई हैं लेकिन बहुत कम । रामकृष्ण देव, स्वामी विवेकानंद, ऋषि अरविंद, रमण महर्षि की कई पुस्तकें हैं । संस्कृत में भी कई पुस्तकें हैं । एक नई पुस्तक भी दिखाई दे रही है संपूर्ण योग विद्या, कोई नये लेखक होंगे । ख़ैर पुस्तकों से हट कर मुझे तो ध्यानचंद्र जी का साक्षात्कार करना है अपने पत्रिका के लिए । सोचता हूँ वो सब तो होता रहेगा सबसे पहले मेरे मन में यह बात है कि इतने लोगों को ध्यान का अभ्यास करवाकर इन्हें मिलता क्या है । मैंने देखता हूँ बगल वाले कमरे में जो इस कमरे से सटा हुआ है; एक आसन में बैठी हुई महिला कुछ लड़कियों को कतार में बैठा कर कुछ बता रही हैं । हमें आता देख एक बार वे मेरी तरफ़ एक बार देखती हैं और फिर अपने कार्य में मग्न हो जाती हैं । उनके एक पल के लिए मुड़ते ही मुझे दिखाई देते है- सौम्य, सुन्दर दो नयन जो एक दम से शांत नज़र आते हैं मुझे । उनकी निगाहें मुझसे मिलते ही न जाने कौन-सी शांति का अनुभव होता है मुझे ।

"ये मेरी सहधर्मिनी दिविता जी हैं, जो कुछ लड़कियों को ध्यान का अनुभव करवाती हैं और एक स्कूल में फिजिकल ट्रेनिंग की शिक्षिका हैं । "

मैं उनकी बातों को अच्छी तरह सुन लेने के बाद पूछता हूँ , “ ध्यानचंद्र जी, मैंने सुना है कि आप स्कूल में बच्चों को ध्यान का अभ्यास करवा रहे हैं धूम-धूम कर गाँव-गाँव में । यह क्या सच है ?”

ध्यानचंद्र जी जरा मुस्करा देते हैं, “आप तो यह जानने आये नहीं हैं यहाँ कि यह सच है या झूठ ; जब समाचार पत्र में छपा था तो शायद आपने देखा है । और समाचार वाले तो झूठ छाप कर अपने ऊपर बेमतलब परेशानी तो नहीं मोल लेंगे ?”, उनके चेहरे की सहजता देखकर मैं दंग रह जाता हूँ । उनके नयन मन की शांति के आइना बने मुझे देख रहे है । मैंने तो सोचा था कि ध्यान जी एक बहुत ही गंभीर व्यक्ति होंगे और उनकी बातें भी उतनी गंभीर होगी ! मेरे जैसे साधारण मनुष्य के पल्ले तो नहीं पड़ने वाली ही होगी उनकी बातें । उनकी सहजता ने और यहाँ के वातावरण ने न जाने कौन-सा जादू कर दिया मेरे ऊपर कि मैं सारी इंतजार की घड़ियाँ भूल कर एक आनंद का अनुभव करने लगता हूँ । पता नहीं यह कैसा आनंद है । मैं अन्दर ही अंदर डोलन-सा लगता हूँ ; ऐसा महसूस हो रहा है । मैं भी न जाने कैसे उस प्रश्न को और सहज और उपयोगी बना कर कहता हूँ , "मेरा मतलब है कि आप यह सब करते कैसे हैं ?”, मैं अपने पहले वाले गलत प्रश्न पर स्वयं ही लज्जित सा हो जाता हूँ । और अब उनके टोकने पर सही प्रश्न सामने आ गये हैं । अवश्य ही मैं सच-झूठ का पता लगाने नहीं आया हूँ, यहाँ । लेकिन उन्होंने इस बात को भी उसी सहजता से लिया जितनी सहजता से लेना चाहिए । वे कहते हैं,” कोई बात नहीं , आपकी कोई गलती नहीं है । अक्सर हम लोग गलत प्रश्न कर बैठते हैं और कभी-कभी गलत प्रश्न को लेकर ही हल करने भी बैठ जाते हैं । "

मैं अपनी गलत प्रश्न को तो समझ गया हूँ मगर । उनके अंतिम वाक्य को समझ न सका हूँ । मेरा चेहरा देखते ही समझ गये हैं शायद । वे कहते हैं " मान लीजिए जब कोई दुर्घटना में दो कारों की आमने-सामने भिड़न्त हो गई तो लोग सबसे पहले यह पूछते हैं कि ’यह कैसे हो गया ?’ अब आप ही सोचिए ’कैसे हो गया’ से क्या मतलब ; दो कार आमने-सामने आये और आपस में टकरा गये । बस । ऐसे ही तो दुर्घटना हुई । बल्कि प्रश्न तो यह होना चाहिए था कि क्यों हुई ? अगर इस प्रश्न का हल खोज कर मनुष्य आत्मसात कर लेता तो दुनिया में पहली दुर्घटना होने के बाद ही सारी दुर्घटनाएँ होनी बंद हो जातीं । क्योंकि कारणों का पता चल जाने पर उसे जड़ से मिटा देना संभव हो जाता । अगर दुर्घटना शराब पी कर गाड़ी चलाने से हुई हो, तो आगे कोई भी व्यक्ति शराब पी कर गाड़ी नहीं चलाता । अगर दुर्घटना मशीन में खराबी वाला गाड़ी लेकर सड़क पर उतरने से हुई, या नींद के कारण हुई, या फिर कम जानकारी के कारण हुई तो आगे से इस तरह के दुर्घटना तो नहीं होने चाहिए न । लेकिन ऐसा नहीं होता !... ख़ैर छोडिए इस बात को ! आप इस पर गंभीरता से विचार बाद में भी कर सकते हैं । इस वक्त आप पूछिए क्या पूछना है ?”

" हाँ ! आप ठीक कहते हैं । सबसे पहले तो मेरे मन में एक ही सवाल आ रहा है कि आप कैसे इतने सारे स्कूलों में एक साथ ध्यान का अभ्यास करवाते हैं ? मैंने सुना है कि आप इस शहर के आस-पास दो सौ से अधिक स्कूलों में ध्यान का अभ्यास करवा रहे हैं । और अपने जीवन में हज़ारों गाँवों में जा जाकर ध्यान करवा रहे हैं ? एक साथ इतने सारे गाँवों में कैसे संभव है आपसे अकेले । ”

" ओ हाँ ! आपने पूछा तो है ठीक ।...हूँ... यह इसलिए संभव हुआ कि मैं अकेले कहाँ था बाद में बहुत लोग मुझसे जुड़ते गये हैं । हाँ ! शुरुआत के दौड़ में मैं स्कूलों में जाकर सिर्फ सात दिनों तक ही अभ्यास करवाता हूँ । फिर उसकी जिम्मेदारी स्कूल के ही किसी शिक्षक पर देकर चला जाता हूँ अन्य स्कूलों में । इसी तरह एक स्कुल से दूसरा, दूसरा से तीसरा सब चलते रहता है । अब मैं किसी-किसी स्कूल में ही जाता हूँ और देखता हूँ कि कोई न कोई शिक्षक उसे उसी महत्व से करवाता है जैसे मैं करवाता था । ऐसा लगता है सब इसके अच्छे परिणाम के अनुभव को कुछ न कुछ तो प्राप्त कर चुके हैं । अब मुझे स्वयं ध्यान करने का समय दोनों बेला मिल जाता है । मैं अपने इस नियम से हिलता नहीं हूँ, इसी कारण आपको भी इतना इंतजार करना पड़ा ।...ख़ैर छोड़िए इन बातों को.. इसके लिए तो आपको मेरी एक जीवनी ही लिखनी पड़ सकती है ।... आप पूछिए क्या पूछना है आपके पत्रिका के लिए ?

“आप युवाओं को भी ध्यान सिखाते हैं ? ", पत्रिका की चिंता इस समय मुझे बिलकुल ही नहीं है । मैं तो बस अपने आप को संतुष्ट कर लेना चाहता हूँ, इनकी बातों से ।

"हाँ ! उन्हें ध्यान तक लाने के लिए योग और प्रणायाम भी सिखाना पड़ता है ; मगर अंतिम उद्देश्य ध्यान तक लाना ही है । एक बार ध्यान का अनुभव कर लिया तो योगासन उनकी स्वयं की इच्छा पर छोड़ देता हूँ ।“

“ जिनके विवाह नहीं हुए हैं अब तक उनको भी, तो क्या अब वे विवाह नहीं ...”, मैं कुछ संकोच बोध करते हुए कहता हूँ ।

"मैं आपका आशय समझ गया । ध्यान से कुछ भी नष्ट नहीं होता । सब अपने जगह स्थिर हो जाते हैं । यह आप लोगों की गलत धारणा है की केवल वैरागी ही ध्यान और योग करते हैं । ध्यान से सब कुछ पहले से अपने अपने शक्ति के अनुसार मजबूत हो जाता है । "

"मैं समझा नहीं”

"बस इतना जान लीजिए जब आप अनुभव करेंगे तो पाएँगे कि सबकुछ आपके नियन्त्रण में हैं और अब जब चाहे अपनी सूझ-बूझ के साथ प्रयोग कर पाएँगे । इससे ज़्यादा इस विषय पर बताने से कोई फायदा नहीं होगा । आपको स्वयं अनुभव करने होंगें । छोड़िए इन बातों को ....पूछिए क्या पूछना है आपके पत्रिका के लिए ?”

मुझे मालूम ही नहीं था कि ध्यानचंद्र जी से मिलने में इतना वक्त लग जाएगा । मैं अपने प्रश्नों को टटोलने लगता हूँ । सारे प्रश्न पहले से ही तैयार कर लाया था मगर मुझे लगता है कि वे सारे प्रश्नों के उत्तर तो मिल गये हैं घर के और सदस्यों से मिलकर और जो बचे रह गये हैं सब निरर्थक हैं । अब ऐसे निरर्थक प्रश्न करने के साहस कैसे कर सकता हूँ । जब ध्यानचंद्र जी फिर से कहते हैं, "पूछिए क्या प्रश्न पूछने हैं आपको ? "

तो मैंने बहाना बनाना ही उचित समझता हूँ, कहता हूँ, “ध्यानचंद्र जी, प्रश्न तो मैंने सारे मोबाइल में ही लिख कर लाया था, वो मिल ही नहीं रहें हैं, लगता है गलती से डिलिट हो गया है । "

"आप युवा सारे काम मोबाइल में ही करना चाहते हैं ; क्या आप उसे कागज़ पर लिख कर नहीं ले आये हैं।"

"हाँ लिखा तो था, एक डायरी में जिसे मैं आते समय हड़बड़ी में भूल ही गया लाना । "

“आपके मस्तिष्क में तो होंगे न ।"

“नहीं कुछ याद नहीं आ रहें हैं ।"

ध्यानचंद्र जी मेरे आँखों में देखते हैं । शायद उन्हें भी समझ आ गई हैं कि मेरे प्रश्नों के उत्तर मिल गये हैं । उनकी आँखों में कोई हड़बड़ी नहीं है । इतने शांत हैं और स्वाभाविक कि मैं न जाने कहाँ खोता चला जाता हूँ । कब तक नजर मिले रहे पता नहीं । मुझे क्या हुआ पता नहीं । परंतु अच्छा लग रहा है ।

“कोई बात नहीं,आप अपने प्रश्नों को लेकर फिर किसी दिन आ जाइएगा ।", उनकी यह आत्मीयता भरी बातों को सुनकर मन न जाने यह सोच कर क्यों ख़ुश हो रहा था कि चलो अच्छा हुआ कि सारे प्रश्नों के गुच्छा कहीं खो गये । अब दूसरे प्रश्न लेकर फिर आने का मौका तो मिलेगा । मैं जब आया था तो स्वयं को खाली लेकर आया था लेकिन वहाँ से चला तो पूरा भरा हुआ महसूस कर रहा है । फिर ये प्रश्न तो रह ही गये थे कि ध्यानचंद्र जी एक साथ बच्चों और युवाओं ध्यान का ज्ञान कैसे बाँट रहें हैं । अन्य धर्मों के लोग इसमें शामिल हैं कि नहीं ? हैं भी तो विरोधियों से कैसे निपटे होंगे ध्यानचंद्र जी । बच्चे चंचल और युवा हमेशा उन्मादी ही होते हैं । दोनों ही अपने ऊर्जा का नियन्त्रण नहीं कर पाते हैं । यह तो ध्यानचंद्र जी ही बता सकते हैं अपने अनुभवों से । और समझने वाले को भी अनुभव की जरूरत होगी, बताने से शायद ही समझ आये !

मैं जब वहाँ से चला तो अद्भुत ढंग से रोम-रोम से ही नहीं बल्कि शरीर की हर कोशिका-कोशिका से प्रफुल्लित था ।

 

-सत्य प्रकाश भारतीय, 18-06-2016 मो. 9231841275

21-जून-2016


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