मंज़िल की तलाश
मंज़िल की तलाश
ठंड का महीना था, शाम का समय, करीब 7 बजे...
सभी की नजरें प्रसवकक्ष पर टिकी हुई थी...महेश जी के घर क्लेक्टर का जन्म होने वाला था...जी हां क्लेक्टर.. इस बात का निर्णय तो महेश जी ने खुद की शादी से दो वर्ष पूर्व ही कर लिया था जब वो अथक परिश्रम के बाद भी सिविल सर्विसेस के प्री टेस्ट में पांच बार फेल हुए...उन्हें लगता था कि जो सपना उनसे पूरा ना हो सका वो उनका बेटा जरूर पूरा करेगा...
जिज्ञासा, डर और बेचैनी के बीच प्रसव कक्ष के बाहर बैठे सभी लोग ईश्वर से उनकी कुशलता की प्रार्थना कर ही रहे थे कि प्रसव कक्ष का दरवाजा खुला....मुबारक हो अम्मा, लड़का हुआ है...रेखा ने मुस्कुराते हुए व्हीलचेयर पर बैठी अपनी माँ से कहा...देखते ही देखते वहां बैठे सबके चेहरे खिल उठे...खुशियां सबके चेहरे पर साफ झलक रही थी...जश्न का माहौल था...
कुछ दिनों के बाद ही हर्षोल्लास के साथ नामकरण संस्कार भी सम्पन्न हो गया...महेश जी ने अपने बेटे का नाम रखा "एकलव्य"
महेश जी एकलव्य नाम मे शायद प्राचीनकालीन एकलव्य को ढूंढ रहे थे... वो चाहते थे कि उनका बेटा भी एकलव्य की तरह कलेक्टर पद पर ध्यान केंद्रित करे....एकलव्य इस दुनिया मे अपना पहला कदम रखता उससे पहले ही उसके भविष्य का निर्णय हो चुका था....
एकलव्य का एडमिशन एक बड़े स्कूल में कराया गया ताकि उसे उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त हो सके...एकलव्य की रुचि पढ़ाई में बिल्कुल नहीं थी लेकिन वह बेडमिंटन और क्रिकेट का बहुत ही उम्दा खिलाड़ी था...लेकिन यह बात महेश जी को बिल्कुल स्वीकार्य नहीं था...पिताजी के जिद के आगे एकलव्य ने अपने सपनो को भूल जाना ही बेहतर समझा और उसने क्रिकेट और बेडमिंटन खेलना छोड़ दिया.....और फिर से पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने की पूरी कोशिश करने लगा...
वह अक्सर गणित और अंग्रेजी में फेल हो जाया करता था,क्योंकि इन विषयों पर एकलव्य की बिल्कुल रुचि नहीं थी...यह बात महेश जी समझने को तैयार ही नही थे...वह एकलव्य को हर हाल में कलेक्टर ही बनाना चाहते थे...
युवावस्था के दौरान एकलव्य की रुचि कहानी और उपन्यास लेखन में बढ़ी...परंतु पिताजी के डर से वह "राघव" नाम से रचनाएँ लिखा करता था,वह दिन रात कहानियों की दुनिया मे खोया रहता ....यही वह शौक था जो वह दुनिया की नज़रों से बमुश्किल बचा पाया था....
कुछ वर्षों में एकलव्य की स्कूली शिक्षा समाप्त हो गई..महेश जी ने बारहवीं कक्षा के पश्चात किसी तरह एकलव्य का एडमिशन प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में करा दिया...क्योंकि किसी ने महेश जी से कह दिया था कि इंजिनीरिंग के छात्र सिविल सर्विस की परीक्षा में बेहतर परिणाम देते हैं...
राघव शहर छोड़कर जाना नही चाहता था और ना ही उसकी रुचि इंजीनियरिंग में थी...फिर भी पिताजी के जिद के आगे अंततः उसे झुकना पड़ा और वो इंजीनियरिंग करने दूसरे शहर चला गया....
रुचि के अभाव में वह प्रथम और द्वितीय वर्ष की सभी परीक्षाओं में फैल हो गया...जब महेश जी को कॉलेज के प्रिंसिपल से इस बारे में पता चला तो वो अत्यंत क्रोधित हुए...और एक्लव्य को वापस घर ले कर आ गए...अब एकलव्य की सुबह, पिताजी के तानों से सुरु होती और रात भी पिताजी के तानों से अंत...कुछ दिनों तक ऐसे ही, यही सिलसिला चलता रहा...
एक दिन महेश जी को उनके साथ मे काम करने वाले साथी कर्मचारी ने बताया कि शहर में कुछ दिनों बाद एक बहुत बड़े अंतराष्ट्रीय लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर आने वाले है ...उनका देश विदेश में बहुत नाम है .....शायद एक्लव्य उनकी बातों से कुछ प्रेरणा ले ले...और उसका जीवन सुधर जाए...
महेश जी को यह बात ठीक लगी और किसी तरह उन्होंने दो टिकट का भी इंतजाम कर लिया....
धीरे धीरे वह दिन भी नजदीक आ गया लेकिन महेश जी ने एकलव्य को यह बात अबतक नही बताई थी...
28 नवंबर 1993, जिस दिन कार्यक्रम होना था उसी सुबह महेश जी ने एकलव्य को प्रोग्राम के बारे में बताया...और शाम को तैयार रहने को कहा...
एकलव्य ने मना किया लेकिन महेश जी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे...
महेश जी शाम को जब घर वापस आये तो देखा कि एकलव्य घर पर नहीं है..और कार्यक्रम का, एक टिकट भी नहीं है...उन्होंने सोचा कि एकलव्य अकेले ही चला गया होगा...अंततः तैयार होकर वो भी कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गए...पूरा ऑडिटोरियम दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था....वहां बैठा हर एक व्यक्ति उस अद्भुत प्रतिभा का बस एक झलक देखना चाहता था...आज सारा काम छोड़कर जिले के कलेक्टर साहब भी उन्हें देखने आए थे...
थोड़ी देर बाद लेखक के मंच पर आने की घोषणा होती है...ऑडिटोरियम के सभी लोग खड़े होकर उनका अभिनंदन करते हैं......
करीब छः फ़ीट का लंबा चौड़ा आदमी मंच पर प्रवेश करता है...पूरा ऑडिटोरियम तालियों की गूंज से गूंज उठता है...कुछ समय बाद अब सभी लोग अपनी अपनी कुर्सियों पर वापस बैठ जाते हैं...लेकिन ये क्या ? ऑडिटोरियम के अंतिम पंक्ति में महेश जी स्तब्ध.... एकटक मंच की ओर देखते हुए ...अब भी खड़े ही हैं...
यह देखकर कुछ क्षण पश्चात् मंच से आवाज आती है...
"बैठ जाइए पापा"
"हाँ...मैं ही राघव हूँ" !!
माफ कीजियेगा मैं आपके सपनों को पूरा नहीं कर पाया...मैं इंजीनियर नहीं बन पाया... मैं कलेक्टर भी नही बन पाया...लेकिन मैं वह बन गया पापा जो मैं बनना चाहता था....इतना कहते ही एकलव्य की आंखों से आँसू गिरने लगे....पूरे ऑडिटोरियम में सन्नाटा छा गया..इतने वर्षों तक एकलव्य ने जो सच्चाई पूरी दुनिया से छुपा कर रखा, वह अब सबके सामने था...यह बात सबको पता चल चुका था कि "एकलव्य ही राघव है"
महेश जी के सामने पुरानी सभी यादें किसी चलचित्र की तरह चलने लगी थी...शायद महेश जी को समझ आ गया था कि वो गलत थे...उनकी आंखों में भी आँसू थे...शायद पश्चाताप के....
लेकिन वो खुश भी थे ...आज गर्व से उनका सीना चौड़ा हो गया था....क्योंकि आज एक बाप हारा नहीं था, बल्कि उनका बेटा ...जीता था...!
