मेरी स्मृतियाँ - मेरी सीख

मेरी स्मृतियाँ - मेरी सीख

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“स्मृतियाँ” ये लफ्ज़ कभी हमारी आँखों को नम कर देती हैं तो कभी अधरों पर कातिल मुस्कान ला देती हैं| शायद ही कोई ऐसा शख़्स होगा जो कभी यादों की बारात में न गया हो| “मेरी स्मृतियों” का सफर शुरू होता हैं इक मेले से|

करीब ७-८ वर्ष का था मैं|मेरे बचपन के दिनों में इक शख्स था जो मुझको हर वक्त घेरे रहता था “डर”| किसी हद तक डर का रहना सही भी होता हैं पर डर में दबे रहना गलत हैं| मैं अपने माँ पापा के साथ मेला घूम रहा था| तभी झूले को देखकर मुझे डर लगने लगा वो गोल गोल घूमता झूला मेरी ओर आते हुए प्रतीत हो रहा था| मेरे बगल में खड़ी मेरे उम्र से बड़ी एक अनजानी लड़की ने मेरे डर को भाप लिया| वो मेरे पास आई और बोली “जब तक तुम डर से डरोगे तब तक डर तुम्हे डरायेगा”| वो अजनबी लड़की इतना कहकर भीड़ में कही गुम हो गई| उसकी ये सीख आज मेरी ज़िंदगी की चुनौतियों से लड़ने में अपनी इक अहम् भूमिका निभाती हैं|

मेले से मेरी स्मृतियों की गाड़ी रूकती हैं मेरे स्कूल पर| बात स्कूल के आखिरी दिन की हैं| सब अपनी अपनी धुन में व्यस्त थे| मैं आज बहुत खुश था वजह थी आज मैं पहली बार शायरियाँ पढ़ने वाला था बेशक वो शायरियाँ मेरी न थी पर दिल में उत्सुकता थी| अपने डर को हराकर जो आगे बढ़ रहा था| महफ़िल सज गई थी| मैंने कुछ पक्तियाँ पढ़ी ही थी की किसी ने आकर मेरे माइक को छीन लिआ और कहा “बस ख़त्म”| ये खत्म शब्द ने मेरी ख़ुशी को उदासी में तब्दील कर दिया| मैं उदास होकर घर आया| माँ तो माँ होती हैं उनको मेरी उदासी का पता चल ही गया| उस वक्त मेरी माँ ने मुझसे कहा “एगो हार मेहनत के कबो न हरा पाई(एक हार मेहनत को कभी नहीं हरा सकता), मन के जीते जीत होला मन के हारे हार”| मेरी माँ की ये सीख मेरी ज़िंदगी की हर हार को जीत में बदल देती हैं|

इसी तरह मेरी स्मृतियाँ मुझे ज़िंदगी की कुछ बातें सिखाती रहती हैं| मैं उस अज़नबी लड़की और मेरी माँ का हमेशा कर्जदार रहूँगा|


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