Uday Pratap Dwiwedi

Drama Tragedy Fantasy

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Uday Pratap Dwiwedi

Drama Tragedy Fantasy

मेरी जयपुर यात्रा

मेरी जयपुर यात्रा

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मुझे साल ठीक से याद नहीं है, शायद यह 2014 रहा होगा, मार्च का महीना था और तारीख अवश्य याद है , 22 और 23 मार्च वह भी याद इसलिए है क्योंकि 23 मार्च को शहीद दिवस मनाया जाता है।

 22 मार्च की सुबह हमारे बड़े भाई और वरिष्ठ साहित्यकार योगी जी का फोन आया कि उदय आज दोपहर में ही जयपुर के लिए निकलना है। वहां हमारी पत्रिका अखंड भारत के प्रथम संस्करण का लोकार्पण है। बहुत ही भव्य कार्यक्रम रखा गया है, बहुत ही अति प्रसिद्ध हाल इस लोकार्पण के लिए तय कर लिया गया है , और हमारे अखंड भारत के क्रांतिकारी गण बहुत ही शिद्दत से इस कार्यक्रम की तैयारी में लगे हैं। जयपुर के लगभग सभी साहित्यकार और लगभग एक हजार का जनसमूह उपस्थित रहेगा और वहां के वरिष्ठ राज्यमंत्री इस पत्रिका का लोकार्पण करेंगे। वहां मंत्री जी के साथ-साथ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम क्रांतिकारी श्री मंगल पांडेय जी का परिवार भी उपस्थित रहेगा। तुम तीन चार कविताएं तैयार कर लो , मैं अति व्यस्त रहूंगा तो मंच संचालन की जिम्मेदारी भी तुम्हारे कंधों पर ही रहेगी। जितने हर्ष के साथ योगी जी ने यह बखान किया उतने ही हर्ष के साथ मैंने हामी भी भर दी।

 अब यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि एक नए नए लेखक के लिए मंत्री जी के सामने कविता पढ़ना , बड़े हाल में हजारों लोगों के समक्ष प्रस्तुत होना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात है ; वह भी मेरे जैसे तुच्छ लेखक के लिए तो यह बहुत बड़ी बात थी।

यहां यह बताना आवश्यक है कि अखंड भारत पत्रिका योगी जी का एकमात्र सपना जिसे वह किसी भी कीमत पर सबके सामने लाना चाहते थे और उसके लिए वह किसी भी हद से गुजरने को तैयार थे। इसके लिए उन्होंने कितने पापड़ बेले और कितने पापड़ जलाये यह तो बस वो जाने या फिर उनके क्रांतिकारी मित्र। मुझे तो बस इस बात की खुशी थी कि दिल्ली की काव्य गोष्ठियों से निकलकर एक बहुत भव्य समारोह में शिरकत करने का मौका मिल रहा था। हां ! मैं योगी जी से काफी हद तक प्रभावित जरूर था। उनकी क्रांतिकारी सोच , उनकी व्यवहार कुशलता और उनकी वाकपटुता के कायल तो आप उनसे मिलने के बाद हुए बिना रह ही नहीं सकते। मेरी नजर में वह एक प्रतिभावान, सरल और सीधे-साधे व्यक्ति तब भी थे और आज भी हैं। और अगर उनसे खुद की तुलना करता तो मैं उनके समक्ष कुछ भी नहीं था।और मेरे प्रति उनका गजब का स्नेह बिल्कुल एक बड़े भाई की तरह था।इसके साथ ही मैं इतना बड़ा मौका कभी भी हाथ से जाने नहीं देना चाहता था।

 तो मैं सुबह से ही तैयार होकर योगी जी का इंतजार करने लगा। हमारी यात्रा की शुरुआत हुई नोएडा से क्योंकि मैं नोएडा में रहता था और योगी जी दिल्ली में ; तो वह मुझे लेने नोएडा आए और हमने बस से जयपुर जाना तय किया। हम दोपहर में लगभग 12:00 बजे नोएडा से निकले ,तब योगी जी ने बताया कि अभी पत्रिका लेने हापुड़ भी जाना होगा; क्योंकि अभी पत्रिका छप कर आई नहीं है। 

तो हमने हापुड़ वाली बस ली और पहुंच गये हापुड़ लगभग 2:00 बजे। वहां पहुंचने पर प्रकाशक महोदय से मुलाकात के लिए उनके घर पहुंचे। वहां प्रकाशक महोदय ने हमें लगभग 4 घंटे बैठाए रखा और शाम के 6:00 बजे गए ; अभी तक पत्रिका नहीं मिली थी।वहां बैठे-बैठे शायद मैं यह बात तड़ रहा था कि योगी जी और प्रकाशक महोदय के बीच पैसों को लेकर कुछ अनबन चल रही थी। और शायद प्रकाशक बिना पूरे पैसे लिए उनको पत्रिका देने में आनाकानी कर रहा था। 

यहां यह बात कहने की जरूरत नहीं है कि मैं योगी जी के दिन दशा की तुलना सुदामा की दीन दशा से कर रहा था। और यह बात भी सोच रहा था कि इस अच्छे साहित्यकार को भगवान ने धनवान क्यों नहीं बनाया , वैसे तो योगी जी बनारस के एक संभ्रांत परिवार से आते हैं लेकिन , शायद इनके आवारापन और घुमक्कड़ी से तंग आकर इनके परिवार वालों ने भी आर्थिक मदद से मना कर दिया था। योगी जी मैनेजमेंट से पोस्ट ग्रेजुएट होने के बावजूद नौकरी छोड़कर पत्रिका के पीछे लगे पड़े थे ,शायद इनके आर्थिक तंगी की यह भी एक बड़ी वजह रही होगी। परंतु मैं उस समय इनकी तुलना मुंशी प्रेमचंद से करने से भी नहीं चूका।मैं देख सकता था कि कैसे योगी जी द्युत सभा में द्रोपदी की तरह असहाय हो रहे थे और भगवान भोलेनाथ को याद कर रहे थे |

लगभग 8:00 बजे रात को योगी जी की व्यवहार कुशलता, वाकपटुता, मिन्नतें और भोलेनाथ की कृपा रंग लाई और प्रकाशक महोदय हमें पत्रिकाएं देने पर राजी हो गए। पत्रिकाएं लेने, समेटने, बांधने में हमें लगभग 9:00 बज गए थे और इतनी रात में हापुड़ से आनंद विहार के लिए बस का मिलना थोड़ा मुश्किल था। जबकि सुबह 8:00 बजे तक हमें किसी भी कीमत पर जयपुर पहुंचना था, क्योंकि वहां का कार्यक्रम 9:00 बजे शुरू होना था। 

हम लगभग एक घंटा वहां किसी बस या कोई भी वाहन जो हमें दिल्ली, गाजियाबाद या नोएडा तक छोड़ दे का इंतजार करते रहे। परंतु वहां से कोई भी वाहन उधर जाने को तैयार नहीं था। अब हमारी जयपुर पहुंचने की सारी आशाएं धूमिल होने लगी थी। हम प्रकाशक महोदय को जी भर कर कोस रहे थे कि जब यही करना था तो एक घंटा पहले पत्रिकाएं दे दिए होते, कम से कम हम समय रहते यहां से निकल तो लिए होते। हम इसी उधेड़बुन में थे कि तभी हमें किसी ने बताया कि यहां से 4 किलोमीटर दूर हाईवे है, वहां किसी भी वाहन से चले जाओ , हाईवे से कोई न कोई साधन अवश्य मिल जाएगा। हमारे पास कोई और रास्ता तो था नहीं , और ऊपर से पत्रिकाओं का बोझ था सो अलग, फिर भी हम किसी तरह से, ले देकर हाईवे पहुंच गए।

 वहां से आनंद विहार की बसें तो जाती दिख रही थी, पर शायद रात काफी होने के कारण कोई रुकने को तैयार नहीं था। अब ऐसा लग रहा था कि हम कहीं के नहीं रहे वहां दूर-दूर तक गाड़ियों के अलावा कोई भी नहीं था, और गाड़ियां भी वह जो रुकने के लिए जैसे बनी ही ना हो। हम हिम्मत हार रहे थे , पर अंदर का क्रांतिकारी हर गुजरने वाले वाहन को हाथ दिखा रहा था।हर गुजरते वाहन के साथ हमारे जयपुर पहुंचने वहां हजारों लोगों को संबोधित करने और एक भव्य समारोह में भाग लेने की उम्मीदें भी अंतिम सांसे ले रहीं थी। जब बनारसियों को कहीं भी उम्मीद नहीं दिखती तो वे भोलेनाथ को याद करते हैं, और हम भी यही कर रहे थे। और अगर बनारसी सच्चे दिल से प्रार्थना करे तो भोलेनाथ उसे कभी निराश नहीं करते, उन्होंने हमें भी निराश नहीं किया। 

थोड़ी ही देर में एक जानवर ढोने वाला वाहन हमारे पास आकर रुका। इतना यकीन से इसलिए जानवर ढोने वाला वाहन लिखा है , क्योंकि बैठने के बाद ,गोबर और मूत्र की खुशबू , पूरा रास्ता हमें ये एहसास कराती रही। हम उस वाहन के स्वामी या चालक के एहसानमंद थे और आगे भी रहेंगे कि उसने हमें अपने वाहन में जगह दी और हमें आनंद विहार तक छोड़ा। योगी जी उसकी इस मदद से इतने भाव विह्वल हो गए थे कि लगभग 300 से 350 शब्दों में उसका शुक्रिया अदा किया और उस वाहन चालक को अखंड भारत पत्रिका की पहली प्रति भी भेंट की। 

उस वाहन से उतरने के बाद पत्रिकाएं लेकर आनंद विहार बस स्टैंड तक पहुंचे। यहां पहुंचकर हमें पता चला कि जयपुर के लिए बस आनंदविहार से नहीं सराय काले खां से मिलेगी।

अब रात के 1:30 बज रहे होंगे हम बहुत ज्यादा थक गए थे और हमारी हिम्मत खत्म हो गई थी। हम में इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि पत्रिकाएं लेकर आनंद विहार बस स्टैंड से एक कदम भी कहीं और जा पाते। आसपास वालों से पूछने पर पता चला कि इतनी रात को जयपुर की कोई प्राइवेट भी बस नहीं मिलेगी। अब हमारे चेहरे पर नींद , थकान और निराशा एक साथ देखी जा सकती थी। 

पर वही हमारे अंदर का क्रांतिकारी , अब भी हार नहीं मान रहा था। उसे तो अभी भी सुबह पहनाए जाने वाली मालाएं दिख रही थी, वह हजारों की भीड़ और तालियों की गड़गड़ाहट दिखाई दे रही थी जो जयपुर में उसका इंतजार कर रही थी। इसी जोश में हमारी बात एक प्राइवेट बस संचालक से हुई। उसने लगभग दुगने कीमत पर हमें जयपुर की एक एसी स्लीपर बस में 2 स्लीपर सीट देने का वादा किया, और हमसे पैसे ले लिए। यहां यह बता दूं कि अब तक योगी जी की जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं बची थी। और बस के किराए के बाद मेरी जेब में भी सिर्फ ₹20 की एक नोट बच गई थी। 

लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद बस आई। संचालक ने हमें ड्राइवर के पास जो ऊंचा सा टीला होता है , वहां यह कह कर बैठा दिया कि आगे सीट मिल जाएगी, आप लोग बेफिक्र जाइए। बैठने के बाद हम दोनों ही यह बात अच्छे से समझ गए थे कि आगे कहीं भी सीट नहीं मिलने वाली तो जैसे तैसे यह सफर पूरा करते हैं और ड्राइवर से बहस करके जयपुर पहुंचने का आखरी मौका नहीं खोते। हमें यह भी डर था कि अगर ड्राइवर से बहस की और उसने हमें रास्ते में ही उतार दिया तो क्या होगा ?

 यहां आप हमारी तुलना त्रिशंकु से कर सकते हैं। इस वक्त तक ना हमने कुछ खाया ही था और ना ही हमारे पास पीने को पानी ही था। और हमारी इतनी भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि हम बस ड्राइवर से पानी मांग कर ही पी लें। परंतु फिर वही, हमारे अंदर का क्रांतिकारी , न वो हमें हिम्मत हारने देता और हमें निराश तो होने ही नहीं देता। उसे तो बस वह हजारों की भीड़ , मंच , माला , माइक और तालियों की गड़गड़ाहट ही दिखती थी। तो उसने हिम्मत करके ड्राइवर से पीने का पानी मांग ही लिया। और उस ड्राइवर ने दया दिखाते हुए न जाने कहां से खौलते पानी की 1 बोतल हमें पकड़ा दी। मुझे याद नहीं कि वह पानी पीकर हमारी प्यास बुझी या नहीं पर यह इत्मीनान जरूर हुआ कि ड्राइवर जयपुर से पहले हमें गाड़ी से नहीं उ तारेगा। और हम वही ड्राइवर के पास हैंडल पकड़े पकड़े ही सो गए। सुबह 8:00 बजे ड्राइवर ने ही हमें लगभग धकियाते हुए जगाया और बताया कि जयपुर पहुंच गए हैं।

जब हम बस से उतरे, हम भूख ,प्यास ,और नींद तीनों के ही सताए हुए थे।योगी जी की फोन पर पारीक जी से बात हुई, जो किसी राजनीतिक पार्टी के सदस्य भी थे और कार्यक्रम के आयोजक भी थे। उन्होंने हमें पता बता दिया कि आप अमुक जगह पहुंचे, हम वहीं मिलते हैं। हम दोनों ही बस स्टैंड से उस जगह पहुंच गए जहां उन्होंने बुलाया था और चौराहे पर ही खड़े होकर पारीक जी का इंतजार करने लगे।

 हम दोनों थोड़ी ही देर वहां खड़े रहे होंगे कि पारीक जी अपनी कार से हमें लेने आ गए। कार में बैठकर में थोड़ी तसल्ली हुई कि बस अब कार्यक्रम स्थल थोड़ी ही देर में पहुंच जाएंगे। अब योगी जी ने पारीक जी से कार्यक्रम की व्यवस्था के बारे में बात शुरू की। मैं थोड़ा उत्साहित था कार्यक्रम की भव्यता को लेकर और सोच रहा था कि हम दोनों बहुत ही दिव्य क्रांतिकारियों को किसी बड़े होटल में ठहराया जाएगा और जल्द ही हजारों लोगों को संबोधित करने का सौभाग्य प्राप्त होगा।

 मेरे इस दिवास्वप्न को अचानक ब्रेक तब लगा जब पारीक जी ने बताया कि हाल तो हमने बुक करा लिया है पर मंत्री जी का मूड नहीं है हाल में जाकर विमोचन करने का तो उन्होंने अपने आवास पर ही लोकार्पण के लिए बुलाया है। इसीलिए हमने हाल में होने वाले कार्यक्रम को रद्द कर दिया है। योगी जी समझ गए थे कि शायद इन मंत्रियों के मूड का कोई भरोसा नहीं है कब क्या मुड़कर जाए और कब दिल्ली निकल जाए। तो उन्होंने भी अनमने ढंग से हामी भार दी और इस हामी के साथ ही मेरे 2 दिन के संघर्ष का फल भी कड़वा हो गया।

ये बात और है कि आप सब सोच रहे होगे कि ये क्या बात हुई, ये कैसा मंत्री है और कैसा इसका मूड है? या शायद आप ये भी सोच रहे हों की हमारे आयोजक महोदय ने योगी जी के साथ छल किया हो। आप तो जनता जनार्दन हैं, जो सोच रहे हैं सही ही सोच रहे होंगे। वास्तव में पारीक जी ने कार्यक्रम रद्द करने का क्या कारण बताया था ये मुझे अभी तक समझ ही नहीं आया इसलिए मैंने मंत्री जी के मूड पर ठीकरा फोड़ दिया।

 अब पारीक जी हमें अपने आवास पर ले गए। वहां हमें प्रतीत हुआ कि लोग हमें ऐसी नजर से देख रहे थे, जैसे हम किसी चिड़िया घर से भागे हुए जानवर हों, और होते भी कैसे नहीं, भूखे पेट किसी तरह अस्त-व्यस्त होकर तो वहां तक पहुंचे थे। पारीक जी के यहां नहा धोकर और चाय पीकर , हम लोग कार्यक्रम स्थल ,नहीं-नहीं , मंत्री जी के आवास के लिए निकले। मंत्री जी के आवास पहुंचने पर हमारी मुलाकात जयपुर के कुछ साहित्यकारों से भी हुई। वैसे इनमें से मैं किसी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता था। अब यहां योगी जी अपने सहयोगियों से मिल रहे थे। मैं अभी भी थोड़ा उत्साहित था कि चलो जीवन में पहली बार किसी मंत्री से करीब से मुलाकात होगी। करीब से मंत्री जी को अपनी कविता सुनाऊंगा। शायद मन में यह भी रहा हो कि मंत्री जी के साथ फोटो खिचाकर साथ वाले कवियों और अपने दोस्तो पर धौंस जमाऊंगा।

मैं इस उधेड़बुन में ही था, कि कब मंत्री जी आए और कब पत्रिका का लोकार्पण करके चले गए यह पता ही नहीं चला। बताया गया कि लोकार्पण हो गया है। आप लोग कल का अखबार पढ़ लेना। शायद योगी जी के पास उस अखबार की कटिंग आज भी रखी हो। 

अब लोकार्पण से जो मायूसी हाथ लगी थी, उसकी भरपाई साहित्यकार लोग आपस में परिचय करके और योगी जी को तसल्ली देकर कर रहे थे। मुझे उनकी बातें सुनकर यही पता चल पाया था कि विमोचन के बाद मै ही नहीं, लगभग सारे ही सितारे असंतुष्ट थे। लगभग सभी ने योगी जी से एक सुर में कहा कि कोई बात नहीं , इस बार कार्यक्रम खराब हो गया तो क्या हुआ, अगली बार जब जयपुर में विमोचन रखोगे, तब हम बहुत ही ज्यादा भव्य कार्यक्रम करेंगे और इस बार इस वाले मंत्री जी से भी बड़े वाले मंत्री जी से विमोचन करवाएंगे। 

अब अगर उन सबमें कोई सबसे ज्यादा मायूस था तो आप समझ ही सकते हैं कि वो मै ही रहा होऊंगा और मैं था भी। अब निराशा, थकान और भूख ये तीनों ही मुझपर हावी होने लगी थी। मेरे अन्दर का क्रांतिकारी, जिसने अब तक मुझे निराश नहीं होने दिया था, वो भी शायद अंतिम सांसें ले रहा था। ऊपर से, वहां किसी को भी न जानने की वजह से मैं सबसे अलग , योगी जी का इंतजार कर रहा था कि कब कुशल क्षेम खत्म हो और हम दिल्ली वापस निकलें।

तभी उनमें से किसी ने मेरी तरफ इशारा करते हुए योगी जी से पूछ ही लिया कि ये युवक कौन है? योगी जी मेरी तरफ सहानुभूति पूर्वक देखते हुए और मेरी तारीफ़ करते हुए बोले कि ये बहुत ही होनहार साहित्यकार उदय प्रताप द्विवेदी हैं। शायद योगी जी मेरे घावों पर मरहम लगाने की कोशिश कर रहे थे। 

अचानक मेरे नाम ने अपना ध्यान सबकी तरफ कर लिया। उधर से आवाज आयी, वही न जिसने "युवा" लिखी है। यहां मै बता दूं कि "युवा" मेरी एक कविता का शीर्षक है। वहां खड़े लगभग सभी इस बात से सहमत थे कि उन्होंने युवा पढ़ी है और यह मेरी बेहतरीन रचना है।

इतना सुनकर ही मैं अपनी थकान ,भूख, और सारी मायूसी भूल गया था।मेरे अन्दर के क्रांतिकारी को जैसे संजीवनी मिल गई थी।शायद यही एक लेखक का पुरस्कार है कि उसे उसकी रचना के लिए याद रखा जाए। अब मैं भी बाकी लोगों से घुल मिल ही पाता और थोड़ी और तारीफें बटोर ही पाता कि मंत्री जी की सेवा में लगे एक वॉलंटियर ने हमें जगह खाली कर, जाने का फरमान सुना दिया। बताया गया कि मंत्री जी को कई और लोकार्पण इसी जगह करने हैं और लोग भी वेट कर रहे हैं। मैं इंतजार कर रहे लोगों पर तरस खाते हुए वहां से सबके साथ ही निकल लिया।

और थोड़ी ही देर बाद मैं और योगी जी फिर से उसी चौराहे पर पहुंच गए , जहां से सुबह हमें पारीक जी ने रिसीव किया था। पारीक जी हमें वही छोड़ कर और ये पुख्ता करके कि अब हम यहां से बस स्टैंड चले जाएंगे, किसी आवश्यक कार्य से पुनः मंत्री जी के आवास पर चले गए।

 इधर हम दोनों का ही भूख से बुरा हाल हो रहा था क्योंकि खाना तो हमने लगभग 30 घंटे पहले खाया था। योगी जी के पास पैसे थे नहीं और वो मुझसे पैसे के बारे में पूछने में भी संकोच कर रहे थे। यहां ये बता दूं कि मेरे पास अब भी वो दस रुपए की नोट पड़ी थी और मेरे ए टी एम कार्ड में यही कोई १५०० रुपए पड़े होंगे। तो मैंने खुद से निश्चय किया कि ये पैसे निकाल लेता हूं , इसमें खाने का और वापसी के टिकट का इंतजाम तो हो ही जायेगा।

 अभी मैं निश्चिंत होकर ए टी एम ढूंढने ही वाला था कि योगी जी को १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद श्री मंगल पांडेय जी के पड़पोते , जिनका नाम मुझे नहीं मालूम, शायद योगी जी को मालुम हो, उनका फोन आया। उन्होंने बताया कि वो और उनके परिवार के लोग पत्रिका विमोचन के लिए , अपने निजी वाहन से, दिल्ली से जयपुर पहुंच गए हैं।

योगी जी ने उन्हें उसी चौक पर बुला लिया , जहां पारीक जी अभी-अभी हमें छोड़ कर गए थे। शायद वे लोग आसपास ही थे तो मेरे एटीएम ढूंढने से पहले ही वह हम तक पहुंच गए। अब तक जैसा मुझे लगा , योगी जी के प्राण हलक में फंस चुके थे।जिस भव्य कार्यक्रम के लिए उन्होंने मंगल पांडेय जी के पड़पोते व उनके परिवार को दिल्ली से जयपुर बुला लिया, उन्हें कैसे बताएं कि वह भव्य कार्यक्रम अपनी भव्यता की सारी सीमाएं लांघते हुए थोड़ी देर पहले ही मंत्री जी के हाथों अपनी अंतिम सांसें ले चुका था। हम तो बस उसकी अंतिम यात्रा निकाल रहे थे। 

अभी मैं सोच रहा था कि बड़ी ही ढिठाई से और ससम्मान योगी जी ने उन सभी को पास के ही एक रेस्टोरेंट् में नाश्ता करने का आग्रह किया। थोड़ी ही देर में हम सभी एक चौकोर मेज के चारों तरफ बैठे थे। यहां मैं आपको बता दूं कि योगी जी की इस बात से मैं थोड़ा नाखुश तो हुआ ही साथ में असहज भी हो गया।

 मुझे नहीं पता कि योगी जी और मंगल पांडे जी के परिवार से आए लोगों के बीच क्या बात हुई या कैसे योगी जी ने उन्हें यह समझाया कि भव्य कार्यक्रम का क्या हुआ या इस बात के लिए कैसे मनाया कि वह लोग इतनी मेहनत से जयपुर आने के बाद तुरंत ही दिल्ली वापस लौट जाएं।  

मैं तो बस मेन्युकार्ड और हमारे द्वारा आर्डर किए गए चीजों का मिलान ही कर रहा था और यह सोच रहा था कि इसके एवज में कम से कम कितने दिन बर्तन माजने से कर्ज उतर जाएगा। और इसके लिए मैं मन ही मन योगी जी को कोस भी रहा था कि जब जानते हो कि हमारे पास खुद के खाने के भी लाले हैं तो इन बेचारों को भी यहां लाकर जो रही सही इज्जत बची थी वह भी मिट्टी में मिलाने की क्या जरूरत थी। यहां यह बता दूं कि मैंने और योगी जी ने अपने लिए कोई चीज ऑर्डर नहीं की थी। 

बर्तन मांजने का ख्याल आते ही मैं लपक कर एटीएम की तरफ भागा। अब यहां एक और मुसीबत यह हुई कि वहां के 2-3 एटीएम तलाश करने के बाद भी कैस का इंतजाम नहीं हो पाया। या तो एटीएम खराब थे या उनमें कैश नहीं था। पर मुझे एटीएम खराब होने पर कम और मेरे कार्ड में बैलेंस ना होने या मेरा कार्ड ही खराब होने पर ज्यादा भरोसा हो गया था। तो मैं खाली हाथ ही वापस लौट आया और रेस्टोरेंट के मैनेजर से कार्ड पेमेंट लेने के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वह सिर्फ कैस लेते हैं। 

अब हमारे बर्तन मांजने की संभावना और मंगल पांडे जी के परिवार वालों के सामने बेइज्जत होने की संभावना और भी प्रबल हो गई थी। और मैं निराश मन से उस टेबल की तरफ लौट रहा था जहां थोड़ी देर पहले योगी जी और मंगल पांडे जी के परिवार के लोगों को छोड़कर मैं गया था। 

वहां जाकर पता चला कि पारीक जी लौट आए थे और उन लोगों ने मंगल पांडेय जी के परिवार के लोगों को सम्मान विदा कर दिया था। रेस्टोरेंट का बिल पारीक जी के साथ आए एक देवता तुल्य सज्जन ने भर दिया था। देवता तुल्य क्यों लिखा है, यह तो आप मेरी भावनाओं से ही समझ गए होंगे। उन सज्जन का चेहरा आज भी मेरे आंखों के सामने उसी तरह नाच रहा है। उनका नाम मुझे याद ना होने के कारण यहां नहीं लिख रहा हूं। पर इतना बता दूं कि मैं और शायद योगी जी भी उन सज्जन के ताउम्र ऋणी रहेंगे। 

मुझे नहीं पता कि पारीक जी और उनके मित्र या वह देवतुल्य सज्जन वहां क्यों आए? शायद योगी जी ने फोन करके बुलाया हो या भगवान हमारी लाज बचाने खुद ही दौड़ गए थे। 

अब तक पारीक जी भी अच्छी तरह समझ गए थे कि हम दोनों लोगों से पीछा छुड़ाना कितना आवश्यक है तो उन्होंने हमें वापस बस स्टैंड छोड़ने की पेशकश की। वह समझ रहे थे कि अगर यह दोनों कुछ और देर जयपुर में रहे तो न जाने और कौन-कौन सी मुसीबतें खड़ी करते रहेंगे।


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