मेरी हमसफर :हिंदी
मेरी हमसफर :हिंदी
यह कहानी ना तो राजा रानी के जमाने की है और न ही दादा दादी के दौर की । इस कहानी में ना कोई हीरो है और ना कोई हीरोइन। यह कहानी है -मेरी, यानी 'दीप्ति शर्मा 'की। जिस प्रकार अधिकांश कहानियों की शुरुआत हैप्पी मूड से होती है ठीक इसी प्रकार मेरे जीवन की शुरुआत भी खुशनुमा लम्हों से हुई। हिन्दी से मुझे विशेष से प्रेम था। चंदामामा, चंपक, मधुबन,पंचतंत्र जैसी बाल पुस्तकों की मैं कहानियां पढ़ती और स्वयं को उन पात्रों में देखती । सपनों में भी मुझे उन कहानियों के ही पात्र दिखते ।मैं लीक से हटकर कुछ नया करना चाहती थी। सपनों से भरी उड़ान के साथ मैंने बाहर की दुनिया में कदम रखा ; लेकिन वहाँ अंग्रेजी का अधिपत्य देख मैं घबरा गई। उस दुनिया में अंग्रेजी बोलना सुनना और खाना मतलब स्वयं को सभ्य स्वयं कहलाना और हिंदी मतलब .......ऐसे माहौल में मेरा व्यक्तित्व दबकर रह गया ।
मेरे भीतर की दीप्ति ना जाने अंग्रेजी भाषा के बीच कहीं खो गई ।मुझे ऐसा लगने लगा कि मेरी पहचान ;मेरे वजूद की कोई अहमियत नहीं है। मैं और भी अधिक अपने भीतर सिमट गई ।ऐसे तनाव से भरे वातावरण में मैंने नौकरी की तलाश शुरू की ।इसे ईश्वर की कृपा कहिए कि मुझे कॉन्वेंट स्कूल में हिंदी शिक्षिका की नौकरी मिल गई। नौकरी तो मिल गई लेकिन कॉन्वेंट स्कूल में हिंदी पढ़ाना बहुत ही कठिन था ।हिंदी शिक्षिका के रूप में मिली यह नौकरी मेरे लिए एक सुनहरा अवसर थी : बच्चों के मन में हिंदी के प्रति प्रेम जागृत करने का ;हिंदी के वर्चस्व को पुनः स्थापित करने का ।यहाँ से शुरू हुआ मेरा एक नया सफर और उस सफ़र की हमसफर थी 'मेरी हिंदी'। मुझे आज हिंदी बोलने में ,स्वयं को हिंदी भाषी कहलाने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं होती ।आज मेरे विद्यार्थियों के मन में हिंदी अपना स्थान बना चुकी है। वे यह समझने लगे हैं कि हिंदी ही उनकी पहचान है, उनके जीवन मूल्यों, संस्कृति और संस्कारों की परिचायक है ।मुझे आज ऐसा लगता है कि मैं अब तक गुमनामी के अंधेरे में थी और हिंदी में मेरी पहचान बना दी।
