"मेरा अपना भी अस्तित्व है "
"मेरा अपना भी अस्तित्व है "
5 बज गये ! अलार्म बंद करते हुए मैं हड़बड़ी में उठी ! तुंरत नहाकर रसोई में जाकर सबके लिए चाय रख दी और दूसरी तरफ नाश्ता बनाने लगी! 6 बजते ही माँ और पापा जी को पूजा के बाद चाय चाहिए तो चाय देने के बाद मैं मयंक यानी मेरे पतिदेव को उठाने चली गयी। सबके चाय नाश्ते और मयंक के जाने के बाद कहीं 9 बजे तक जल्दी-जल्दी तैयार होकर ऑफिस के लिए निकल जाती थी।
अपना नाश्ता ऑफिस में ही करती थीं। दोपहर का खाना बनाकर आती थी, मम्मी पापा जी के लिए और ऑफिस से आकर एक कप चाय के साथ शाम के खाने में लग जाती थी, और सारा दिन यूं ही चकरघिन्नी की तरह घुमती रहती थी मैं !
मैं कविता मंयक तिवारी हूँ! पैशे से पत्रकार हूँ मैं. मंयक मेरे पति हैं, जो कि कम्प्यूटर इंजीनियर हैं। इस मंयक और मेरी लवमेरिज हुई थी, मैं और मंयक एक कान्फ्रेंस के दौरान मिले थे और ये मुलाकात प्यार में बदली और 1 साल बाद हमनें शादी कर ली थी। मैं अपने माँ पापा को कार एक्सीडेंट में खो चुकी थी, तो मंयक का परिवार ही मेरे लिए सब कुछ था।
छोटा सा परिवार था हमारा, सभी लोग अच्छे थे लेकिन कहते हैं ना, ज्यादा अच्छाई के पीछे कुछ ना कुछ बुराई भी होती हैं। यहाँ भी थीं, मैं और मयंक दोनों नौकरी करते थे, शुरू में तो ठीक था लेकिन फिर माँ जी मुझे रोज बिना कारण बोलने लगी। मैं उनकी बातों पर ध्यान ना देते हुए यह सोचती की "माँ ही तो हैं, क्या हुआ कुछ कहा तो ".....
लेकिन धीरे धीरे माँ मुझपर गुस्सा करने लगी,ना जाने क्यों इतनी टोकाटाकी करने लगी थीं....
"तुम ऑफिस जाती हो कविता,ये जीन्स पहन कर मत जाया करो, मोह्हले वाले क्या कहेँगे "...
"कुर्ती पर दुप्पटा तो ले लिया करो, ससुर भी हैं घर में, थोड़ी तो शर्म किया करो ".....
"माँ ! मैं आपकी और पापा जी की बेटी जैसी ही तो हूँ, और शर्म आँखों में होनी चाहिए ".....
"हर बात का जवाब देना जरुरी नहीं होता कविता, हम तुम्हारे भले के लिए ही कह रहे हैं, पापा जी तेज स्वर में बोले ".....
माँ अब रोज हर छोटी बात पर मयंक को भी कहने लगी और मयंक मुझे सुनाते, इन सब बातों का असर ये हुआ की मैंने कुछ कहना ही छोड़ दिया क्युँकि मयंक पर तो किसी बात का असर नहीं होता था, वो बस अपने काम को लेकर ही व्यस्त रहता, और मुझे माँ की बात मानने की नसीहतें दें देते। ऐसा नहीं था की मैं उनकी बात नहीं सुनती थीं, लेकिन मेरी अपनी भी कुछ इच्छाएं थीं, अपना भी अस्तित्व था जो अब धीरे धीरे खोने लगा। जिंदगी चल तो रही थीं, पर कोई उत्साह नहीं बचा था।
इसी बीच एकदिन मेरी ऑफिस की दोस्त रति ने मुझे अपने जन्मदिन की पार्टी पर बुलाया, ना चाहते हुए भी मैं और मयंक वहाँ गये. रति ने बहुत अच्छी व्यवस्था की हुई थीं, वहां बातों बातों में मुझे पता चला की रति को डांस का शौक़ हैं, मेरे कहने पर उसने डांस प्रस्तुति भी दी। वहाँ रति को डांस करता देख मेरे अंदर की सोई हुई कविता फिर से जग गई थीं।
मैं स्वयं भी बहुत अच्छी कत्थक नृत्यांगना थीं, लेकिन समय के साथ ये शौक़ कही दब गया था। पार्टी में रति को नाचते हुए देख मेरा भी मन हुआ की मैं कत्थक क्लास दूँ बच्चों को, और ज्यादा से ज्यादा अपने व्यक्तित्व में निखार ला पाऊं. मैं बहुत उत्साहित हो गई थीं, और मैंने इसके बारे में मैंने मयंक से बात की......
"मयंक मैंने सोचा हैं कि, मैं कत्थक डांस दोबारा शुरू करुँ ".......
"कवि तुम जानती हो ना ऑफिस हैं तुम्हारा,तुम कैसे संभालोगी, तुम माँ से पूछ लेना एकबार पहले "......
"लेकिन मयंक ! तुम बात करो ना मेरी तरफ से माँ से "
मयंक ने अपनी मनाही के साथ पल्ला झाड लिया, क्युँकि मयंक भी माँ के खिलाफ नहीं जाना चाहते थे। मैंने ही हिम्मत करके माँ से इस बारे में बात कि, लेकिन में नहीं जानती थीं कि" मेरा बात करने से घर में इतनाड़ा हंगामा हो जायेगा ".मैंने माँ से पूछा....
"माँ ! मैं कत्थक नृत्य जानती हूँ, मैं बच्चों को सिखाना चाहती हूँ "......
"तुमको क्या जरुरत हैं बहु ! ऑफिस जाती हो ये क्या कम हैं, जो अब डांस भी सिखाना हैं "...
"माँ ! मैं कुछ और करना चाहती हूँ, जिसमें मुझे संतोष मिले,मेरे अंदर हुनर हैं तो "....
"तो कुछ नहीं, हमारे यहाँ कि औरतें ये सब नहीं करती" पापा जी भी बोले....
"लेकिन मम्मी पापा जी ! इसमें हर्ज क्या हैं, मैं घर पर ही सीखा लुंगी ".....
मेरी छोटी सी बात ने घर में बवंडर मचा दिया, माँ ने मयंक को कहा कि "कवि को समझा दो, ये सब यहाँ नहीं चलेगा, जॉब करने दिया उतना काफ़ी हैं, और जॉब से घर के ख़र्च में मदद मिलती हैं ".....डांस नहीं होगा यहाँ, सारी दुनिया के ताने नहीं सुनने हमे. मयंक ने मुझे ही कहकर ये बात खत्म कर दी कि "मैं माँ के खिलाफ कुछ नहीं कर सकता, उन्होंने जो कहा चुपचाप मान लो "मुझे बहुत दुख होता सुनकर यूँ लगता काश मम्मी पापा जिन्दा होते .....
मयंक की और माँ जी की बातें सुन पहली बार मुझे ये अहसास हुआ की "मेरी तो को अहमियत ही नहीं यहाँ, जॉब भी इसलिए हैं की घर का ख़र्च मिल जाता हैं. मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था, मैं पूरा दिन घर के कामों में, ऑफिस में व्यस्त रहती हूँ क्या हुआ जो अपने लिए कुछ करना चाहा तो???मैं अपने फ़र्ज बखूबी निभा रही हूँ, अगर मैं अपने लिए थोड़ा सोच लूं, तो इसमें क्या गलत हैं। यहीं सोचकर पूरी रात मैं सो नहीं पायी, यूँ ही रात निकाल दी लेकिन नया दिन नया सवेरा मेरी जिंदगी में भी नयी किरण लाया।
मैं आज इतने समय बाद अपने स्वयं के लिए निर्णय ले चुकी थी, मैं अपने स्वयं के लिए एक कदम उठा रही रही। सुबह उठकर कामों से निवृत होकर घर के काम निपटा कर आज बहुत दिनों बाद एक "कत्थक नृत्यांगना "के रूप में तैयार थीं, बच्चों को सिखाने के लिए मुझे ऐसे देख मयंक, माँ जी और पापा जी आश्चर्य में थे, गुस्से में थे लेकिन मैं इन सब बातों से अनजान अपने लिए नयी राह चुनने के लिए अग्रसर थीं, मैं सोच चुकी थीं की मैं अपने लिए नहीं राह बनाउंगी क्युँकि "अपना स्वयं का भी अस्तित्व हैं मेरा ".....
सही कहा ना मैंने, हम एक माँ बेटी, बहन सब रूप में सबकी सेवा करते हैं, लेकिन हमारा खुद का भी वजूद हैं कोई अस्तित्व हैं, जिसे हम नकार नहीं सकते| आप सब में भी कोई ना कोई हुनर होगा उसे जरूर बाहर लाये, और अपने सपने को पूरा करें।
