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Asha Porwal Gupta

Drama Inspirational

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Asha Porwal Gupta

Drama Inspirational

मदद के हाथ सोच समझकर बढ़ाए...

मदद के हाथ सोच समझकर बढ़ाए...

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"सारा मैडम! मुझे पांच सौ रूपये की मदद चाहिए आपसे। माँ की तबीयत खराब हैं डाॅक्टर की फीस के रूपये तो थे मेरे पास अब दवाई लाने के लिए रुपये नहीं हैं। आप तो जानती ही हैं शर्मा सर एडवांस पगार देते नहीं और अभी महीना पूरा होने में पंद्रह दिन बाकी हैं। आपसे मदद मिल जाएगी तो मेरी परेशानी दूर हो जाएगी।" सारा के ऑफिस का प्यून अशोक ने सारा के ऑफिस में आते ही कहा।


अशोक अक्सर सारा से रूपयों की मदद मांगता रहता था। सारा भी बिना कुछ सवाल किये उसे मुंह मांगी रकम दे दिया करती थी।


" हां! अशोक यह लो पांच सौ रुपये और जल्दी लौटाने की चिंता मत करना । माँ का इलाज अच्छे से करवाना।" सारा ने अपने पर्स में से पांच सौ का नोट निकालकर अशोक को देते हुए कहा।


" आपका बहुत बहुत धन्यवाद सारा मैडम! आप बड़ी दयालु हैं।" कहते हुए अशोक रूपये लेकर चला गया।


" सारा! ये क्या तूने आज फिर इस अशोक को रुपये दे दिए। तुझे समझ नहीं आता । आए दिन रूपये मांगता रहता हैं । कल ही रूपेश से भी इसने अपने बच्चे की स्कूल फीस भरने के नाम पर कुछ रूपये मांगे थे, रूपेश ने मना कर दिया तो आज तुझसे अपनी माँ की बीमारी के नाम पर रूपये उधार मांगने आ गया। उसकी माँ बीमार नहीं हैं यह सब रूपये ऐंठने के तरीके हैं उसके। तू इतनी भोली क्यों बन जाती हैं सारा! जल्दी ही सब पर विश्वास कर लेती हैं। पिछले उधारी के रूपये भी उसने आज तक तुझे नहीं लौटाए और तू मांगती भी नहीं। इतनी दयालुता आज के जमाने में अच्छी नहीं। अपने दिल के साथ दिमाग भी खुला रखकर ही किसी की मदद करनी चाहिए।" सारा की सहकर्मी मिहिका ने सारा को समझाते हुए कहा।


" अरे! मिहिका तू खामखां अशोक पर शक करती रहती हैं बेचारा गरीब आदमी हैं जरूरत मंद हैं। इतनी महंगाई में मात्र 5000 रूपये की तनख्वाह से घर खर्चा नहीं चल सकता। दो बच्चे भी हैं उसके। मैं मदद करने की अवस्था में हूँ तो करती हूँ। किसी की मुसीबत में मदद करना यही तो मानव धर्म हैं, और हम कर सकते हैं तो करना चाहिए।" सारा ने मिहिका से कहा।


" हाँ! बाबा मदद करो अपना मानव धर्म निभाओ। मैं मना नहीं कर रही पर अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर मदद नहीं। उसने अपनी मजबूरी बताई और तुमने तुरंत रूपये दे दिए बिना ये जाने कि क्या सच में उसकी माँ बीमार हैं? उसकी माँ को क्या हुआ हैं? डाॅक्टर ने कौन सी दवा मंगवाई हैं? कितने दिनों तक दवा लेना हैं? और दवा के लिए कितने रूपये लगेंगे? वगैरह... वगैरह.. । इन सवालों के जवाब मिल जाए तो तू खुद उसे रूपये की बजाय दवाई खरीद कर दे सकती हैं। ऐसा करने से उसकी सच में जरूरत पूरी हो जाएगी और तुझे भी ज्यादा संतुष्टि मिलेगी कि तूने भी जिस वस्तु की उसे जरूरत हैं वही दी हैं। उसे कोई बहाना बनाकर रूपये लेने का अवसर भी नहीं मिलेगा। झूठ बोलकर ठगी नहीं कर पाएगा।" मिहिका ने सारा को समझाते हुए कहा।


" मिहिका! पांच सौ रूपयों के लिए इतनी लंबी प्रोसेस करने का समय नहीं हैं। उसे जरूरत हैं तभी तो मांग रहा हैं, इतना शक्की होना भी जीना मुहाल कर देता हैं। तीन सौ रूपये का तो हम पिज़्ज़ा ही खा जाते हैं कुछ रूपये अशोक को दे भी दिए तो कोई बुराई नहीं हैं। माँ की बीमारी के नाम पर कोई भी झूठ बोलकर रूपये नहीं मांगेगा। उस पर विश्वास नहीं करने का कोई कारण ही नहीं हैं, दिन भर कितनी मेहनत करता हैं जो काम बोलो तुरंत करता हैं। कितनी लायकी से बोलता हैं गरीब हैं, हमें उसकी मदद करना चाहिए। अब तू ये बातें छोड़ काम भी करना हैं।" सारा ने मिहिका की समझाइश पर अपनी समझाइश की परत चढ़ा दी।


शाम को ऑफिस से लौटते समय सिग्नल पर सारा ने अपनी गाड़ी रोकी। एक बच्चा दौड़कर सारा की तरफ आया और कुछ मांगने उसकी एक्शन से लग रहा था कि वह भूखा हैं। सारा ने अपने दयालु स्वभाव वश पर्स में से दस रूपये बच्चे को देने के लिए जैसे ही निकाले उसे मिहिका की कही गई बात याद आ गई कि जिस चीज़ की जरूरत मंद को जरूरत हैं उसे वही देना चाहिए, यही सही मायने में असली मदद होती हैं। मिहिका की बातों को सोचते हुए सारा ने रुपये पर्स में रख लिए। वह अपने साथ कुछ फल भी ले जा रही थी। उसने सोचा बच्चा भूखा लग रहा हैं तो इसे फल दे देती हूँ इसकी भूख शांत हो जाएगी। सारा ने बच्चे को अपनी थैली में से कुछ केले, सेब निकालकर दे दिए। बच्चे ने सारा के हाथ से केले, सेब लिए और बिना कुछ कहे फुटपाथ की दीवार के पास जाकर फेंककर चला गया। इतने में सिग्नल की हरी लाइट हो गई और सारा को गाड़ी आगे बढ़ानी पढ़ी। बच्चे का ऐसा व्यवहार देख सारा का मन बहुत दुखी हुआ। उसने तो जो बच्चे को चाहिए था वही देना चाहा फिर बच्चे ने ऐसा क्यों किया। काश! मैं बच्चे को पैसे दे देती जो उसे चाहिए था वह खरीद सकता था। इन्हीं कशमकश भरे सवालों के साथ सारा अपने घर आ गई। रात भर उसे यही ख्याल सताता रहा कि बच्चा भूखा था फिर भी उसने फल लेकर कहीं ओर फेंक दिए नहीं चाहिए थे तो मना कर देता। क्या उसे रुपये ही चाहिए थे। मिहिका की कही बातें भी उसके दिमाग में घूम रही थी। मदद करने के अपने तरीके पर वह खुद ही सवालिया निशान खड़ी करने लगी।


अगले दिन सारा और मिहिका को ऑफिस से लौटते समय एक शराब की दुकान पर प्यून अशोक दिखाई दिया। वह अपने कुछ दोस्तों के साथ शराब के नशे में धूत था। यह नजारा देख सारा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। कल जो आदमी माँ की बीमारी और दवा के लिए उसके सामने रूपयों के लिए गिड़गिड़ा रहा था आज वह ऐसी हालत में दिखेगा यह तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था। अशोक को कितना सीधा समझती थी सारा। एक ही क्षण में सारा के सामने अशोक की इमेज चकनाचूर हो गई और सारा का विश्वास भी कांच की भांति टुकड़े टुकड़े हो गया।


" देख! सारा मैं तुझे हमेशा कहती थी न! अशोक सही आदमी नहीं हैं वह बहाने बनाकर रूपये ऐंठता हैं पर तेरी आंखों पर तो उसके दिखावे की अच्छाई की पट्टी बंधी थी । तू कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। अब देख उसके पास कल दवा के लिए रूपये नहीं थे और आज शराब खरीदने के लिए रूपये आ गये। जो कल तुमसे पांच सौ लिए उसने शराब पीने के लिए ही लिए हैं। मेरी भोली भाली दोस्त इसलिए कहती हूँ सोच समझकर ही मदद भी करना चाहिए ताकि अशोक जैसे चालाक लोग हमारी अच्छाई का फायदा ना उठा पाएं।" मिहिका ने सारा से कहा।


" हाँ! मिहिका तू सही कह रही हैं । अशोक हमेशा रुपये इस तरह दुखी होकर मांगता कि मुझे सही ही लगता और उस पर दया आ जाती । मैं खुद को उसकी मदद करने से रोक नहीं पाती। कल भी मैंने सिग्नल पर छोटे बच्चे को खाने के लिए फल दिए उसने मुझसे लेकर दूसरी जगह फेंक दिए इतना दुख हुआ ऐसा लगा भलाई का जमाना नहीं हैं। जो जैसा दिखता हैं वैसा होता नहीं हैं। हमें मन में दया भाव सबके के लिए रखना चाहिए पर अपनी संवेदनाओं को यर्थात वादी दृष्टिकोण के आवरण का चश्मा पहनाकर ही काम करना चाहिए। वरना अनजाने में ही हम अच्छाई के पीछे कहीं बुराई का साथ और उसे बढ़ावा देने वाले बन जाते हैं।


तुम सही थी मिहिका! आज मुझे जिंदगी की बहुत बड़ी सीख मिली हैं। अच्छे काम दूसरों की मदद भी बहुत सोच समझकर करना चाहिए वाकई आप सच में जरूरत मंद की मदद कर रहे हैं या फिर किसी के गलत इरादों का शिकार हो रहे हैं। तुमने तो मुझे बहुत समझाया मिहिका मैंने तुम्हारी एक ना सुनी वो कहते हैं जब तक इंसान खुद ठोकर ना खा ले वह समझता नहीं हैं चाहे उसे उसका शुभचिंतक कितना ही आगाह क्यों ना कर दें।" सारा ने मिहिका से कहा।


" सारा! तुम्हें समझ आ गया और समय रहते सच तुम्हारे सामने आ गया वही बहुत हैं अब से कोई तुम्हें उल्लू नहीं बना पाएगा। अब ज्यादा दुःखी होने की जरूरत नहीं हैं। आज से एक नई शुरुआत करते हैं।" मिहिका ने कहा।


दोनों मुस्कुरा कर अपने घर की ओर चल दी।


दोस्तों आपको मेरी स्वरचित मौलिक रचना कैसी लगी अपने विचार कमेंट व लाइक के जरिये जरूर साझा कीजिएगा।


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