Rishi Raj Singh

Fantasy

3.3  

Rishi Raj Singh

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माँ के हाथों के परांठे और पिताजी के तानों की कशमकश

माँ के हाथों के परांठे और पिताजी के तानों की कशमकश

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बस अब तो मैंने फैसला कर लिया था कुछ भी हो जाये अब तो घर छोड़ना ही है और भला छोडूं भी क्यों पानी अब सर से ऊपर जा चूका थासब्र का बाँध भी टूट चुका था।

इन सारी बातों की शुरुआत हुई मेरे पैदा होने से। तो सबसे पहले आपको अपने अतीत से रूबरू करवाना आवश्यक है। मेरे पिताजी एक सरकारी अफसर, तो शान-ओ-शौकत में तो कोई कमी न रही। हाँ, 'ज़्यादा चाहते हुए' भी मेरे पिताजी की सिर्फ एक ही बीवी थी और वो थी मेरी माँ। मैं अपने माँ-बाप का इकलौता लाडला बेटा। 'इकलौता', शायद इसलिए क्योंकि उस समय 'फैमिली प्लानिंग' को उन्होंने कुछ ज़्यादा ही दिल पर ले लिया। अकेले होने के कारण बचपन तो बड़े मौज में गुज़रा। ढेर सारा प्यार, खूब सारे खिलौने, कपडे। माँ-पिताजी दोनों मुझे सिर आँखों पर बिठा के रखते।

लेकिन फिर आगमन हुआ इस कमबख्त युवा-अवस्था का और इसके आगमन के साथ ही मानो ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे मेरे जीवन से प्रेम रूपी सीता को किसी रावण ने हर लिया हो। हालांकि माँ के प्रेम में तो फिर भी कोई ख़ास कमी नहीं आई थी, हाँ कभी-कभार चप्पल, बेलन, वाईपर नामक हथियारों से मेरी सुताई हो जाया करती थी। परन्तु पिताजी जिन्होंने मुझ पर आज तक हाथ नहीं उठाया उनके वो शुल की भाँती चुभते शब्द– निकम्मा, कामचोर, गधा, अक्ल से पैदल, ढक्कन और न जाने क्या-क्या मेरे सीने को छलनी कर देते।  उस समय भी कई बार मन में ये ख्याल आता की घर छोड़ दूँ लेकिन महीने के अंत में पिताजी से मिलने वाली 'पॉकेट मनी' और माँ के हाँथ के वो 'स्वादिष्ट परांठे' मेरा रास्ता रोक लेते।

इसी तरह कुछ दिन और गुज़रे और हर दिन के गुज़रने के साथ ही पिताजी के तानों में भी बढ़ोतरी होती गयी। एक दिन अचानक ही खाने के टेबल पर नौकरी के विषय में चर्चा शुरू हो गयी। बस फिर क्या था, लगे पिताजी मेरी धज्जियाँ उड़ाने। "18 का हो गया है अब तक नौकरी के विषय में कुछ सोचा है जब मैं तुम्हारी उम्र का था तो कॉलेज के साथ-साथ नौकरी भी करता था और अपना जेबखर्च खुद चलाता था।" अब भला पिताजी को कौन समझाए कि ये तो घूमने-फिरने और इश्क फ़रमाने के दिन है, इस उम्र में नौकरी का क्या काम, पर पिताजी से बहस करने की हिम्मत तो थी नहीं बीच में ‘संस्कार की दिवार जो खड़ी थी।’

अब बात आती है आज की हमारे कॉलेज में एक समारोह का आयोजन किया गया जिसमें पिताजी मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित थे। समारोह समाप्त हुआ तो लगे पिताजी मेरे मित्रों के अभिभावकों से बात करने। इसी बीच 'ईशा' और उसके पापा भी पहुंचे। ईशा कॉलेज की सबसे खूबसूरत लड़की। पिछले दो महीनों से उसके चक्कर काट रहा था (अर्थात् स्टॉक कर रहा था)। अभी पिछले महीने ही उसका नंबर मिला है और हमारी बातें शुरू हुई थी लेकिन आज तो पिताजी ने जैसे ठान लिया था सारी बातों पर पूर्ण-विराम लगाना है। बातों ही बातों में ईशा के पिताजी ने मेरे पिताजी से मेरे योग्यताओं के बारे में प्रश्न किया और बस फिर क्या था पिताजी ने मेरा सारा काला-चिट्ठा खोल कर रख दिया उनके सामने। मैं वहाँ गर्दन झुकाए खड़ा था और वो दोनों ठहाके लगा रहे थे।

वहाँ से गुस्सा कर मैं घर लौटा अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर पैक किया, बगल में टेबल पर माँ और पिताजी की तस्वीर पड़ी थी तो बस माँ की तस्वीर निकाल कर पर्स में डाल लिया और निर्णय किया कि अब तो घर छोड़ना ही है। एक सादे पन्ने पर भविष्य का सारा लेखा-जोखा तैयार किया यहाँ से सीधा मुंबई जाने का निश्चय किया वहाँ पर किसी ढाबे में काम कर पैसे जमा करने का इरादा था और उसके बाद वही अभिनेता बनने की तमन्ना थी। अपना बैग कंधे पर टांग मैं लगा सीढ़ियों से नीचे उतरने सोचा जाते-जाते माँ के पाओं छूता जाओं। जैसे ही दरवाज़े पर पहुँचा की पीछे से आवाज़ आई, "अरे ओ राहुल भैया जल्दी सिगरेट फेंक दो नहीं तो हाथ जल जायेगा, आँखें खुली तो खुद को नुक्कड़ पर बने 'चौरसिया पान भंडार' पर पाया। हाथों में सिगरेट थी और उन्ही सिगरेट के धुएं के साथ न जाने मैं कब ख्व़ाब में खो गया। खुद को दो-चार झापड़ मारने के बाद जब मुझे पूरी तरह यकीन हो गया कि ये बस एक ख्व़ाब था। तब जा कर राहत की सांस ली।

बस फिर क्या था खुश हो कर 'सिगरेट का आखिरी कश' लगाया, दुकानदार से 'च्युइंग गम' ली और चल पड़ा वापस घर की ओर माँ के हाथों के बने परांठे खाने और पिताजी के ताने सुनने।


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