मां के हाथ का खाना
मां के हाथ का खाना
कभी कभी ये प्रतिलिपि वाले हम लेखकों की जान के ऐसे दुश्मन बन जाते हैं कि सरेआम पिटवा कर ही दम लेते हैं । या तो इनकी आदत पड़ गई है रोजाना पिटने की और अपनी पिटाई का बदला हमें पिटवा कर चुकाते हैं या फिर हमें पिटवा कर ये ये जश्न मनाते हैं । पर जो भी हो, करते बहुत ग़लत हैं ।
अब आज का विषय ही देख लो । "मां के हाथ का खाना" । अरे मां के हाथ का खाना कोई खाना होता है क्या ? वह तो अमृत होता है । अब उस अमृत के बारे में हम क्या लिखें जिससे हमें जीवन मिलता है । हमारी सांसें चलती हैं । हमें अपूर्व आनन्द की प्राप्ति होती है । और भी बहुत कुछ होता है जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है ।
मैं इतना लिख ही रहा था कि इतने में श्रीमती जी आ गई और हमने जो लिखा था वो सारा का सारा पढ़ लिया उन्होंने । पढ़ने के बाद जिन आग्नेय नेत्रों से उन्होंने हमें देखा तो हमें ऐसा लगा कि बस , अब हम एक सैकंड में ही भस्म होने वाले हैं । बिजली की तरह कड़कती आवाज में वे बोलीं "मां के हाथ का खाना तो अमृत होता है अमृत । और बीवी के हाथ का खाना जहर होता है ? लिखो , लिखो कि बीवी के हाथ का खाना जहर होता है" ।
उनकी भारी भरकम वाणी सुनकर और उनकी भाव भंगिमा देखकर हमें अहसास हो गया कि आज तो प्रतिलिपि वाले हमारा ही हलवा बनवाने वाले हैं । हमने प्रभु का स्मरण किया यह सोचकर कि उन्होंने ही द्रोपदी की लाज बचाई थी । उन्होंने ही गज को मगरमच्छ से बचाया था । तो मुझे भी बचाने वे ही आएंगे । मैंने श्री चरणों में विनती करनी प्रारंभ कर दी ।
मुझे यह अहसास ही नहीं रहा कि मैं जिन श्री चरणों की पूजा कर रहा था वे चरण कमल तो हमारी श्रीमती जी के ही थे । जैसे ही हमने चरण कमल छुए , श्रीमती जी का गुस्सा वैसे ही पेंदे में आ गया जैसे उफनते दूध में पानी के कुछ छींटे डालने से वह एकदम से पेंदे में बैठ जाता है ।
हमारे भक्ति भाव से वे प्रसन्न हो गई । अब वे अपने "मंजोलिका" अवतार से "अवनि" अवतार में आ चुकीं थीं इसलिए अब डर थोड़ा कम हो गया था लेकिन गारंटी नहीं थी कि वे अब वापिस "मंजोलिका" नहीं बनेंगी । हम उनके सामने हाथ जोड़कर मिमियाते हुए भीगी बिल्ली बनकर खड़े रहे ।
इतनी देर में उन्होंने हमारा लिखा हुआ पेज दुबारा पढ़ा और कहा "वास्तव में मां के हाथ का खाना तो अमृत तुल्य होता है । जिसे नसीब हो रहा है वह अमर हो रहा है और जिसे नसीब नहीं हो रहा वह अनाथ की तरह जीवन जी रहा है । बहुत ही अच्छा लिखा है आपने । एकदम सही । भेज दो इसे" ।
हम पूरी तरह आश्वस्त होना चाहते थे इसलिए दो बार और पूछा "वास्तव में भेज दें क्या ? और सोच विचार कर लो अभी " ।
वो बोली "अजी इसमें सोच विचार कैसा । मां के हाथों में तो जादू होता है । जादू से ही वह खाना अमृत बन जाता है । एकदम सही है । भेज दो" ।
हमने चैन की सांस ली । जान बची तो लाखों पाए लौट के बुद्धू घरवाली के डंडे खाए । भैया प्रतिलिपि वालों, कम से कम सुबह तो खुशगवार रहने दिया करो । ऐसे ऐसे विषय देकर हमारा "फलूदा" निकलवाने चले हो । आगे ध्यान रखना।
