संजय अविनाश

Tragedy Drama

5.0  

संजय अविनाश

Tragedy Drama

लूटन की मेहरारू

लूटन की मेहरारू

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वर्षों बाद जश्न मनाने का मौका मिला।

लूटन की माँ तूतुहियाँ बाजा की धुन पर ठुमके-पर-ठुमके लगाए जा रही थी। एक-से-बढ़कर एक अंदाज़ में नृत्य भी परोस रही। घर वालों के काफी जद्दोजहद के बाद सोमरा शादी के लिए तैयार हुआ था। घर के देवी-देवताओं के साथ-साथ चौधरी जी के बंग्ला के पास अवस्थित ब्राह्मणी स्थान में भी कबूलती कर आई, "माय, ई लूटना के बियाह होय जाए तो एगारह गो नयका-पुरनका ब्राह्मण जमैयबौ, आर साथ में एगो चबूतरा भी बनवाए देबौ..!"

बिध-बाध में तनिक भी शोर-शराबा कानों तक सुनाई पड़ती कि रामवती छलाँग लगाकर दौड़ पड़ती, ताकि शादी में अड़चन न आवे और सही-सलामत बियाह हो जाए। ऊपर वालों की कृपा से तनी-मनी झिझक के बाद शादी संपन्न हो गई।


शादी के उपरांत किसी भी बात को लेकर लूटन और नववधू कजरी में ताना-तानी स्वाभाविक हो चला। रामवती मौका देख वधू को समझाने लगती, "बेटी, तू ही इस घर को संभाल पाएगी। ससुर जी जो हैं, वे भी ऐसे तुनक मिजाजी हैं। इस घर को सजाने में, क्या-क्या नहीं भोगी। फिर बाल-बच्चा को संभालना.. ई गाँव-देहात में पढ़ाना-लिखाना, बड़ा मुश्किल काम था। लूटना तो कम-से-कम चिट्ठी-पतरी भी लिख-पढ़ लेता है, लेकिन उसका बाप.. पूछना मत! किसी कागज़ को उठाकर घर के बाहर फेंकने भी जाती तो झपटा मार छीन लेते थे और किसी से पढ़वाते, कहीं 'मायके से लैला बनकर तो नहीं आई?' फिर भी संभाल लिया और आज, देख ही रही हो.... तीन-तीन बेटे और दो बेटी से भरा-पूरा बगान है। घर की लक्ष्मी बेटी ही होती है। तुम चाहो तो सब ठीक हो जाएगा। बगिया लहलहाती नजर आएगी।"

नई दुल्हन कजरी, माँ की बात सुन गंभीर हो जाती थी, तो कभी घर की यादों में गुम भी हो जाती। उसकी आँखों के सामने पड़ोसी डोमन चा की पत्नी की तस्वीर नाचने लगती। किस तरह डोमन चा, चाची को सुबह-सुबह पीटते थे। ज़बरदस्ती मजूरी करने के लिए डाँट-डपट कर भेज दिया करते थे और खुद दिन भर चौकड़ी जमाए, ताश खेला करते थे। इतना ही नहीं, शानो-शौकत के साथ कहते भी थे- "देखो, मैं कितना भाग्यशाली हूँ।" 

सच में हमारा देश ही ऐसा है, जहाँ कुत्तों के साथ मनुष्य को भी बिना कुछ किए पेट भरता है और 'सोने की चिड़िया' वाली कहावत न होके चरितार्थ होती है।

रामवती समय-समय पर लूटन को भी समझाती। कई बार सोचने लगती कि कितना कष्ट उठाई, इसकी शादी के लिए। सिर पर हाथ रख सोचती तो क्षण भर में ही याद आ जाती... 'मछली सिर्फ मारने से नहीं होता... उसे संभाल कर रखने से होता है।' वरना, फिर वही नदी-तालाब में चली जाती है, जहाँ आज़ादी हो। फिर सोचती आज के जमाने में वैसा भी नहीं कि 'गाय को जिस खूंटे में बाँध दी जाए वह भूखी प्यासी बंधी रहे।' अचानक मनोहर तांती की बीती कहानी याद आ गई, जो पिछले दो वर्ष पहले की ही बात थी। शादी के ठीक पखवाड़ा बाद ही उसकी पुतोहू ग़ायब हो गई थी। काफी खोजबीन भी किया लेकिन वर्षों बाद पता चला कि उसे टीप-टॉप वाला लड़का चाहिये था। मोटर गाड़ी पर घूमना चाहती थी, जो भविष्य में यहाँ नहीं देख..किसी लफुए संग भाग गई थी। यह बात चैन छीन लेता और गंभीर हो लूटन को समझाने लगती- "लूटन, मैं मानती हूँ कि तुम कभी नहीं कहा कि शादी-बियाह हो जाए, लेकिन माता-पिता का भी दायित्व है न, कजरी कितनी सुशील लड़की है। तुम साथ रहते हो, भली-भाँति समझते भी होगे। दूसरे घर की बेटी को सम्मान देना चाहिये, आखिर ऊ बेचारी किसके सहारे रहेगी? पति-परमेश्वर होता है, बेटा? उसका ख्याल रखना हम घर वालों का ही काम है। उसके लिए तो सब कुछ यही घर-परिवार है न?"

माँ की बात सुन लूटन तुनक पड़ा और बोलने लगा, "मैं बोल रहा था न कि पहिले छोटका का बियाह कर दो। घर में दुल्हन चाहिये थी न, आ जाती। मेरे ही गले में घंटी क्यों? लफंगा की तरह उसकी आदत थी न, मेरी तो शिकायत नहीं... मैं यूँ ही जिन्दगी काट लेता।"

अचानक लूटन की आवाज़ बंद हो गई। सामने से कजरी जो आ रही थी। दोनों की बातें सुन कजरी उल्टे पाँव लौट गई थी। माँ हमेशा पुतोहू की पक्ष की बात करती थी। कजरी, माँ की अपनत्व वाली बातें सुन, चुप्पी को ही ताकत मान ली और इसी के सहारे महीने, वर्षों में बीतता गया।

लगभग चार-पाँच वर्षों तक कजरी चुपचाप किनारे की आस में लगी रही। आखिर लज्जा की देवी का उपमा जो जन्मजात हासिल कर चुकी थी।

अब रामवती हमेशा कचोटती रहती। धैर्य की सीमा लांघ चुकी थी। उस समय तो और अधिक, जब पड़ोसी के यहाँ साल भर के अंदर ही बच्चों की किलकारियाँ सुनने को मिलती। कजरी के कानों तक अपनी आवाज़ पहुँचाती हुई बोलती, "आजकल के नैयका विचार गजबे है, अप्पन शौक के ख़ातिर वंश भी रोके रहल। भला ई कोए शौक भेयल।" कजरी माँ की बात सुन कभी मुस्कुराती हुई तो कभी मायूसी लिए कमरे में प्रवेश कर जाती।

धीरे-धीरे चहार दीवारी से निकल, पड़ोसी की गलियों से होते हुए सगे-संबंधों तक बातें आग की तरह फैलने लगी, "लूटना की मेहरारु बाँझ है।"

जहाँ कहीं भी दो-चार औरतें जमा होती, वहाँ हरेक घर की कहानी सुनी-सुनाई जाती थी। उन औरतों में उदाहरण भी ग़जब, जो अकाट्य हो। एक महिला बोल रही थी, "वंश के ख़ातिर दोसर बियाह करै में कि दिक्कत? 'राजा दशरथ जैयसन आदमी तीन-तीन बियाह कैलखीन'.... भला ऊ लड़की नैय चाहतैय कि वंश बढ़ैय? लूटना के माय-बाप के भी सोचैय के चाही... वंश बढ़ावों। खाली सिनुर देला से घौर थोड़े बसैय छैय... नाक-मुँह सिकोड़तैय त ऊ जानैय?" 

इस तरह अनेको मुँह अपनी-अपनी बातों से लोककथाओं को समृद्ध करती रही। पुतोहू को तो कोसना दिनचर्या में शामिल हो चुका।

रामवती भी बीच-बीच में कजरी को कोसने में तनिक भी नहीं सकुचाती। खुलकर तो नहीं बोलती लेकिन ऊपर-झापड़ में बातें बज्र की तरह होती। घर से निकली चिनगारी को आस-पड़ोस के लड़कों ने भी अलाव का रूप देना शुरू किया, ताकि कभी-कभार गर्माहट महसूस हो। राह चलती कजरी के कानों तक आवाज़ आती, "अरे! उधार-पैचा भी तो चलता ही है, नाम भी उसी का होगा और मनोकामना भी पूरी हो जाएगी।"

कजरी चुप्पी को प्रतिष्ठा मान घुटती रही। लड़कों के द्वारा अश्लील हरकतों को भी नजर अंदाज़ करती रही।

लूटन भी घर वालों के साथ-साथ बाहर वालों के भी उलाहने सहता रहा। जहर के समान चाटूकारिता को भी पीना मुनासिब समझ बैठा और पीता रहा। वर्षों बीत जाने के बाद कजरी बाहर के काम में भी हाथ बंटाने लगी थी। एक दिन ज्यों ही घर से बाहर कदम रखी ही थी कि गली में बैठी महिलाओं की झुंड अपनी-अपनी पुतोहू को छुप जाने का इशारा किया और कुंवारी बेटी को अपने पीछे बैठा ली, ताकि एक बाँझ की नजर न लग जाए। सभी महिलाएँ कजरी को अपशकुन मान आँखें चुराने लगी थी।

गाँव के मर्द से लेकर लड़का तक को 'सांढ़' मानने में तनिक भी कोताही नहीं बरतती। इतना के बावजूद भी रामवती औरों के द्वारा दुत्कार भरी आवाज़ों को अपने कानों तक ही रहने देती। मन-मस्तिष्क तक पहुंचने से मना करती रही। कई बार सोचने भी लगती कि माता-पिता होने के नाते बियाह तो करवा दिया लेकिन बाल-बच्चा तो संभव नहीं..! इसके लिए तो ऊपर वालों के द्वारा निमित कार्य से ही संभव है। रामवती खुलकर कजरी को ताने भी नहीं मार सकती थी और न ही जबरदस्ती एक दूसरे से.....। दिमाग पर जोर देने लगी, आखिर दोष किसका, ऐसा तो नहीं कि ई लूटना अभी तक आन-बान में जी रहा है, किरया खा लिया हो कि कजरी में सटना ही नहीं है, बियाह जो उसकी मर्ज़ी के बिना हुआ। कुछ दिनों तक पुख्ता सबूत की टोह में लगी रही। एक रात खुद में हिम्मत बना ली और सोची कि पापिन ही सही लेकिन समझ के रहूंगी कि मामला क्या है। दो-तीन रातें ईहोर-निहोर करती रही। कजरी और लूटन में बातें भी होती हुई सुनती थी। लेकिन पति-पत्नी का जो शारीरिक दायित्व होता है, उससे काफी दूर ही रही रामवती। यह देख कभी बेटे पर तो कभी कजरी पर शक गहराता गया। तांती की पुतोहू वाली कहानी याद कर और कुंठित हो जाती.... मन मसोसती हुई सोचती कि अगर जानवर होता तो ज़बरदस्ती किसी खूंटे में बांध, साथ मिलवा देती। इसी क्रम में एक रात हँसी-ठिठोली देख रामवती को सुकून महसूस हुआ। शारीरिक समागम का आभास समझ मन-प्रफ्फुलित हो गया लेकिन लूटन के मुँह से निकली बातों ने सोच में डाल दिया। वह कजरी से बोल रहा था, "काजो, मैं बदनसीब हूँ... मेरी वजह से, उसकी मृत्यु हो गई। काश! मैं उसे बचा पाता?"

फिर क्या बातें हुई... मालूम नहीं। यह सुन रामवती अवाक रह गई। कई तरह की बातें हिलोरें मारने लगी। फिर सोची, चलो बेटा है, ऐसा होता है। इस प्रकार महीनों बाद भी कजरी में शारीरिक बदलाव न देख, वह हताश रहने लगी। अब सबूत को पर्याप्त मान समझ गई कि लूटन में ही कमी है.... वरना, ई आठ साल में एगो बच्चा नहीं होता, जब दो जवान एक साथ कई रात बीता चुका हो?


कजरी पर अंदरूनी कानाफूसी और बाहरी ताने कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। भभकती चिनगारी संपूर्ण शरीर में जलन पैदा किए जा रही थी। सुनते-सुनते कजरी वर्षों बाद ढीठ बन गई...लेकिन मानवीयता में कोई कमी नहीं। मानो, सावन माह में बूँदा-बूँदी होना बादलों की नियति में हो। 

इसी तरह चलता रहा। कभी-कभार वंश को लेकर बातें निकलती तो टाल-मटोल हो जाता। लूटन की चुप्पी बातें बढ़ने नहीं देती।

क्या हुआ एक दिन घर में शोर-शराबा सुन पड़ोस की महिलाएँ व पुरुषों की भीड़ लग गई। आँखों के साथ बातों की जोड़ी बन गई थी। यही सोचकर कि खुल्लम-खुल्ला कर इस बाँझ को गाँव से दूर फेंक दें।

विवाद में निकली बातों से मरद लोग तृप्त हुए जा रहे थे और उन लोगों की मेहरारु ताने-पे-ताने मारे जा रही थी, "अरे! ई त लूटना जैयसन आदमी है, जो, इस बाँझ को खिला-खिला कर पिलांठ बना रखा है। वरना, इसकी जगह मैं होती तो कबके फगुआ बाप पीट-पीट के भगा देता।" 

वह औरत कुछ देर सिर पर हाथ रखी रही फिर बोलने लगी- "भगवान एगो बाँझ को भी कितना सुविधा दे रखा है?"

रामवती की चुप्पी ने साबित कर दिया कि वह भी यही चाहती है। किसी के कंधे पर बंदूक चला चाटूकारिता के साथ दुस्साहस भी समझ बैठी। वे चुपचाप और भी बातें सुनने को तरस रही थी।

बाँझपन वाली पीड़ा से कजरी भी ऊब चुकी। टीस कम करने के लिए मवाद का बाहर होना जरूरी था, ताकि पीड़ा शांत हो। कजरी की पीड़ा बर्दाश्त से बाहर हो गई। उसकी जुबान खुल गई और औरत-मरद के बीच ही बकने लगी, "ई गाँव में कोए मरद नाहीं... तब तो बियाह के आठ साल बाद भी एगो कैलेंडर जारी नहीं कर पाया.... भतार के नाम पर फूटल ढ़ोल दे दिया आर रंडी-छिनाल कह-कहके ताल ठोके जा रहा है। अरे! ई देह है.... इसीलिए न? आर, हाँ! ई सिर्फ हमरी बात नाहीं.... सड़क पर भी छिनड़पन की धुन जग जाहिर है। हम वैसे में से नाहीं हैं। याद रख, हम जन्मा के भी दिखा देयब, आर ऊ तोरा नियर तार गाछ वाला दिखावा भी नाहीं.... ओकरा में लाल-पियर रंग भी भर देयब.... भूलियो मत।"

कजरी की बात सुन, मर्द लोग अवाक रह गये। सामने खड़ी महिलाएँ भी सन्न रह गईं। रामवती कुछ देर तक स्टेचु बन ताकती रही, कुछ पल बाद मुँह पर आँचल रख, वह घर के अंदर चली गई। आपस में फुसुर-फुसुर करती महिलाएँ आँगन छोड़ने को कदम बढ़ाती लेकिन फिर रूक जाती। कदम-दर-कदम बढ़ाती हुई, रंडी-छिनाल से परिष्कृत भी करती जा रही थी। लूटन अपने कमरे में यूँ ही पड़ा रहा।

पड़ोसियों के बीच मन माफिक काम हुआ और क्षण भर में ही बात से बतंगर बन, विकराल रूप धारण कर लिया।

रामवती की पीड़ा बढ़ती ही गई। पुतोहू की बात सुन पिता की भी आँखें लाल हो गई। वे भी कजरी पर टूट पड़े। गाँव वालों की उल्टी-पुल्टी बातों ने इज़्ज़त पर सवाल खड़ा कर दिया। कुछ औरतें रामवती को भी उकसाने में लगी रहीं। एक औरत हाथ चमका-चमका बोल रही, "दीदी, ऐयसन औरत के घौर में रखला से कोए फायदा नैय, कभियो नाक कटाए देतौअ.... केकरो पर नजर गड़ाय के देख लेतैय त ऊ बेचारी भी बाँझ होए जैतैय......फेर दोसरो के जिनगी में ?"

अनेको उलाहने सुन, लूटन से रहा नहीं गया। वह घर से बाहर निकल आया। उसे देखते ही सभी महिलाएँ ताव कसने लगी- "आंय हो लूटन, तोरा में कि कमी छौअ... दोसर बियाह कैर लैय..... ऐयसन मेहरारु से छुट्टी लै लैय.... एकरा में कि रखल छैय?"

उन महिलाओं की बात सुन लूटन कुछ देर के लिए चुप्पी साधे रहा, लेकिन उन लोगों की बातें कजरी पर दोष साबित करने के लिए उफान पर था। आखिरकार लूटन की आवाज़ निकल आई- "इसमें कजरी की क्या ग़लती है? यह तो निर्दोष के साथ पवित्र भी है। चरित्र भी शिखर के समान, मैं नहीं चाहता कि अपने में समाहित दुर्गुण को किसी के रग में उड़ेल दूँ और आने वाली पीढ़ी भी दुष्चरित्र होने से बचने का उपाय ढूँढते फिरे?"

निकली आवाज़ से घर वालों के साथ जमा भीड़ की निगाहें भी लूटन की ओर जम गई, कान भी सुनने को बेताब ।

उन सबों के बीच लूटन ने कहा, "वर्षों पहले मेरा मित्र सड़क दुर्घटना में घायल हो गया था। डॉक्टर ने खून की जरूरत बताया और मैं तैयार हो गया। कुछ ही मिनटों बाद जाँच रिपोर्ट आने के बाद डॉक्टर ने कहा, 'आप किसी और आदमी को लाए। आपका खून काम नहीं आएगा।' उस समय तो कुछ भी नहीं समझ पाया। जब तक उसके घर वालों की उपस्थिति हुई, तब तक मित्र को मृत्यु ने गले लगा लिया। तब जाकर मैं डॉक्टर से उलझ गया। डॉक्टर ने समझाया कि आप किसी की जान बचाने लायक नहीं हैं। आपसे औरों की जान छिन सकती है।"

इतना बोल वह मायूस हो, कुछ देर चुप रहा। अनायास आँखें नम हो गई। उस नम आँखों से आँसू को पोछते हुए कहने लगा-"मैं एड्स जैसी बीमारी से ग्रसित हूँ... और जीवन का नाम बच्चा पैदा करना या सिर्फ शारीरिक संबंध बनाना मात्र नहीं।"

उसकी बातें सुन, घर वाले अवाक रह गए। लगी भीड़ गली की ओर खिसकने लगी। 

कजरी लूटन को सुने जा रही थी, जो आज आठ वर्षों से लालायित थी। 

"उस दिन से रोग के कारण ढूंढने में लगा हूँ, जब से डॉक्टर ने एड्स बताया।

अभी भी ढूंढ रहा हूँ और आँसुओं से मन बहला...." लूटन की आवाजें भर्राने लगी, खुद को छुपाना चाहा, तब तक कजरी पति से लिपट गई। आंचल को उसकी आँखों तक ले जाने के लिए जद्दोजहद कर रही थी, तभी कानों में आवाज़ सुनाई पड़ी, "दुल्हन वही जो पिया मन भाये।"



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