लौट आना मुसाफ़िर
लौट आना मुसाफ़िर
ये उस समय की बात है जब मैं आगरा से दुर्ग जा रही थी छत्तीसगढ़ से मेरा ए सी 2 टायर में बुक था टिकट।
मुझे मेरे बेटे का साला ट्रेन में बिठाने आया था, जिसका नाम सतीश था। जैसे ही ट्रेन आई तो मैंने सतीश से कहा उठो आ गई ट्रेन, वो मोबाइल पर लगा था।हम लोग जल्दी में उठकर जो सामने आया डिब्बा उसमें चढ़ गए, मैने सोचा इसने देख लिया है न .सो मैंने भी ध्यान नहीं दिया। वो मुझे जल्दी से डिब्बे में बिठा कर चला गया। मैं सामान ठीक से लगाने लगी। और सीट पर बैठ गई। तब तक गाड़ी चल दी थी। कुछ देर बाद टीटी आया और मुझसे टिकट माँगा, मैंने टिकट दिया।
टीटी टिकट देख कर बोला आप गलत डिब्बे में बैठ गई है, आपका डिब्बा एसी टू टायर का है, यहाँ से नौवा डिब्बा है। मेरे तो होश उड़ गये। मैं टीटी की तरफ एकटक देखती रह गई। अब मैं क्या करूँ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं सोच में पड़ गई, अब क्या करूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं रोने लगी क्यूकि मेरे पास सामान बहुत ही था। टीटी ने ये भी कहा कि अब गाड़ी तीन स्टेशन के बाद ही रुकेगी। रेलवे का ये नियम है कि तीन स्टेशन के बाद टिकट अपने आप कैन्सिल हो जाता है। मैं अपना सारा सामान उठाकर अकेले नहीं जा सकती थी। मुझे पूरी रात की यात्रा करनी थी। कुछ नहीं सोच पा रही थी। उस समय मैं अपने आप को बहुत बेबस, लाचार समझ रही थी, कोई भी रास्ता नहीं नज़र आ रहा था। आसपास के लोग भी इतना दूर छोड़ने नहीं जा पा रहे थे। सब आपस में चर्चा कर रहे थे पर सब उलझन में थे। धीरे धीरे गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली। थोड़ी ही देर बाद एक गाँव सा स्टेशन आया और कुछ लड़के चढ़े , और आकर हमारे पास ही बैठ गए। सब लोग आपस में मेरी ही बात कर रहे थे। उन लड़कों ने भी सारी बात सुनी। मैं कुछ भी बोल नहीं पा रही थी, बस अब ईश्वर का नाम ध्यान कर रही थी। मन में हनुमान जी को याद करके रोने लगी। अचानक ही वो लड़के बोले हम ग्वालियर उतरने वाले है आपका सारा सामान उठाकर हम ले चलेंगे, आप बस जल्दी जल्दी हमारे साथ आ जाना, हम आपको उस डब्बे में बिठा देंगे। वो चार थे पढ़े लिखे अच्छे नजर आ रहे थे। ये सुनकर मेरी आंखों से अश्रु धारा बहने लगी, मुझे उनमें भगवान दिखने लगे थे। अगले कुछ घंटे के भीतर ग्वालियर आ गया। उन चारों ने मेरा सारा सामान अपने कंधों पर ही रख लिया ,और जल्दी मुझे साथ लेकर चल दिये। मुझे सही डब्बे में बिठा कर, सारा सामान सही से रखकर चले गए। मैं फिर सारा सामान देखकर पीछे मुड़कर देखा तो लड़के मेरी आंखों से ओझल हो चुके थे। मुझे ऐसा लगा कि वो लोग सब गायब कहाँ हो गये। मैं उन सबका धन्यवाद अदा करना चाहती थी, शायद उनको कुछ देने की हिम्मत कर पाती। मैं अन्दर ही अन्दर बहुत दुखी हो गई कि मैं कुछ न कर सकी। मेरा संकट अभी टला नहीं था, मेरी सीट किसी अन्य यात्री के नाम हो चुकी थी। मै बैठकर फिर मन में रोने लगी, क्या करूँ। रात कैसे गुजरेगी यही विचार दिमाग में घूम रहा था , इतने में एक यात्री आया और सीट पर बैठ गया। बातों से पता चला कि वो एक रेलवे का ही कर्मचारी है। उससे बात हुई इस विषय पर तो उसने बताया कि आप अभी टीटी आयेगा, उसको सारी बात बता कर यही आसपास कोई सीट बुक करा लीजिए। मैंने टीटी के आने पर उसको अपनी व्यथा सुनाई ,पहले तो शान्त रहा फिर एक मेरे नाम की सीट दूसरे डिब्बे में कर दी , उसी टिकट पर। मैं इतनी कृतज्ञ हो गई कि उस समय मैं उनको भी भगवान के रूप में देख रही थी। टीटी के जाने के बाद सब डिब्बे के लोगों ने मेरा सारा सामान अन्दर ही अन्दर दूसरे डिब्बे में पहुँचा दिया, मेरा सारा सामान सेट करके, ये बोल कर गये कोई भी काम हो तो बताइयेगा। हम लोग आकर देखते रहेंगे। इस सब में शाम हो चुकी थी, मैंने खाना भी नहीं खाया था। फिर शांति से बैठकर खाना खाया। इस वाकये के बाद मैंने अपने आप को एक शिक्षा दी कि गाड़ी मैं बैठने से पहले खुद सारी जांच कर लो , कभी दूसरों पर भरोसा मत करो।
हाँ एक बात अवश्य सता रही थी कि वो लड़कों से मैं अच्छे बात भी नहीं कर पाई। आज भी जब भी मैं दुर्ग जाती हूँ, तो मेरी नज़र उन लड़कों को ढूंढने लगती हैं। लगता है कि एक बार' सिर्फ एक बार ' लौट आना मुसाफ़िर '
