कटते जंगल और बिगड़ता पर्यावरण
कटते जंगल और बिगड़ता पर्यावरण
कल एक तेंदुआ गांव में घुस गया, आजकल पृथ्वी का तापमान कितना बढ़ता जा रहा है, पता नहीं वर्षा इतनी कम क्यों हो रही है, नदियों का जलस्तर बढ़ने के कारण कई जगहों पर बाढ़ आ रही है, आदि आदि। हम हर रोज़ न जाने ऐसी कितनी खबरें सुनते हैं परंतु क्या कभी यह सोचते हैं कि ऐसा हो क्यों रहा है? क्यों हर रोज़ कोई वन्य जीव भटकते हुए नगरों की ओर आ जाता है? क्यों हमारी पृथ्वी का तापमान दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है? क्यों कहीं वर्षा कम होने से सूखा पड़ रहा है?तो कहीं नदियों के जलस्तर बढ़ने के कारण बाढ़ आ रही है? इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है- और वह है कटते वृक्ष तथा घटते जंगल। जिसके कारण हमारे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। पर्यावरण की बिगड़ती दशा से केवल मानव ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। वृक्षों के कटने से जंगल कम हो रहे हैं तथा वन्य जीवों के प्राकृतिक निवास समाप्त होते जा रहे हैं। आज हम विकास तथा आधुनिकता की दौड़ में इतने आगे निकल आए हैं कि अपने पर्यावरण के महत्व को ही भूल गए हैं। परंतु यदि समय रहते हमने स्वयं को नहीं जगाया तो इसका मूल्य समस्त मानव जाति को चुकाना पड़ेगा। हम सोचते हैं कि पर्यावरण की बात करना तो केवल समाजसेवियों का कार्य है।कोई ना कोई समाजसेवी आएगा और फिर पर्यावरण बचाने की बात करेगा,कोई आंदोलन शुरू होगा और सब ठीक हो जाएगा। परंतु ऐसा नहीं है। यह सब तब तक ठीक नहीं होगा जब तक प्रत्येक नागरिक अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेगा। यह पृथ्वी तो हम सबकी है, हम वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को जीते हैं तो इसे बचाने के लिए भी हम सभी को आगे आना पड़ेगा और अपने पर्यावरण को फिर से स्वस्थ तथा हरा बनाना बनाना पड़ेगा। अंत में मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगी की -
हरी-भरी यह रहे धरा, चहुं ओर रहें वृक्ष सदा,
यदि ये ना रहे इस अवनी पर
तो मानव का भी अस्तित्व कहां?
