खुद में झांक के देखा कभी
खुद में झांक के देखा कभी
एक लाइन का यह फलसफा "जिन्दगी भर गुफ्तगू की गैरों से, मगर मुझको अपने से मुलाकात न हुई" पूरे समाज के जख्म को कुरेद कर रख देता है।बडी शोचनीय बात है कि क्या इसी रास्ते पर चलने के लिए इस धरा पर जन्म लिया है और "पूरा जीवन जीने का"अपने से वादा किया है? क्या हम अपने में इतना कमजोर हो गये हैं कि अपनी विस्तार और प्रभुता वादी सोच का आरोपण दूसरे के सिर पर करते है ? आखिर हमारी इतनी सोच क्यों उल्टी है कि यह फैली हुई 'आत्मघाती विष' को 'संजीवनी बूटी' समझ रहे हैं ? इतनी सारी बातों के कहने के पीछे का सारांश यह है कि हमें अब प्रगाढ़ आत्म मंथन करने की आवश्यकता है।दूसरे की तरफ" तर्जनी " दिखाने की जगह समाज को अपनी तरफ मुडी शेष चार अंगुलियों की तरफ अन्दर के ज्ञान चक्षु से देखने की जरूरत है।जब ऐसा रूझान होगा तो कुटुंब, समाज और देश के आन्तरिक मामलों की तो बात छोडिये सारा संसार, सौहार्द पूर्ण हवा के सुगंध से सराबोर हो जायगा।संत कबीर का ब्रह्म वाक्य "बुरा जो देखन मैं चला……" साफ साफ जग को साफगोई से चुनौती देता फिरता है।जरूरत इस बात की है कि क्यों न हम घर से निकले सफर की दिशा पलट दें ?और संभावित नतीजे का इंतजार करें ।