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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Comedy

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Comedy

कभी कभी मैं सोचता हूं : भाग -4

कभी कभी मैं सोचता हूं : भाग -4

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आजकल मैं बहुत कंफ्यूजिया गया हूं । कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या सही है और क्या गलत ? कोरोना से बहुत सारा नुकसान तो हुआ मगर बहुत सारा ज्ञान भी मिल गया । कोरोना से पता चला कि ऑक्सीजन की क्या वैल्यू है ? एक ऑक्सीजन के सिलेण्डर के लिए कितनी मारा मारी हुई पिछले दिनों में । ऑक्सीजन की आपूर्ति में सरकारें फेल हो गई । लोगों को पीपल जैसे ऑक्सीजन देने वाले पेड़ों की अहमियत पता चली । 

कोरोना ने अपने पराये भी समझा दिये । बहुत सारे चेहरों से अपनापन का मुखौटा हट गया और उनकी हकीकत पता चल गई । रिश्तों का खोखलापन सामने आ गया। शव को उठाने को तथाकथित अपने तैयार नहीं हुए । इलाज कराने के लिए अस्पताल ले जाने वाला कोई नहीं मिला। सड़क पर ही दम तोड़ दिया कुछ लोगों ने । जीवन और रिश्तों की नंगी सच्चाई सामने आ गई । 


कोरोना ने यह भी बता दिया कि ज्यादा जरूरी क्या है ? मंदिर या मधुशाला ? मधुशाला के बिना ना तो इंसान जिंदा रह सकता है और ना ही सरकारें । मंदिर का क्या है ? मंदिर नहीं खुलेंगे तो क्या लोग मर जाएंगे ? नहीं ना । दर्शन तो बाद में भी कर लेना जब जिंदा रहोगे । जिंदा रहने के लिए और कुछ मिले या ना मिले मगर "बोतल" मिलना बहुत जरूरी है । कोरोना संकट से एक बात तो पता चल गई कि जिंदगी के लिए जितनी ज़रूरी ऑक्सीजन है उतनी ही जरूरी "दारू" भी है । सरकार की भी लाइफलाइन "दारू" ही है । अगर दारू नहीं होगी तो पैसा कहां से आएगा ? और अगर पैसा नहीं होगा तो कोरोना के इलाज के लिए , लोगों को खाद्य पदार्थ मुफ्त में देने के लिए, वैक्सीन के लिए, कोरोना योद्धाओं के वेतन के लिए व्यवस्था कैसे होगी ? इसलिए "दारू" ने अपनी उपयोगिता फिर से साबित कर दी है । "सब पर भारी , दारू हमारी" । अब तो चारों ओर यही नारा सुनाई देता है। 


मंदिर का क्या है ? कुछ लोग तो भगवान का अस्तित्व मानते ही नहीं हैं । ऐसे लोगों ने तो श्रीराम को काल्पनिक ही बता दिया था और माननीय उच्चतम न्यायालय में एक हलफनामा भी प्रस्तुत कर दिया था । इन लोगों के अनुसार जब भगवान हैं ही नहीं तो मंदिर खोलने की जरूरत ही क्या है ? फिर भगवान कोई "दारू" की बोतल से बड़े हैं क्या ? अरे , जब अंगूर की बेटी के दो घूंट हलक से नीचे उतरते हैं तो टुनटुन भी हेमा मालिनी दिखने लगती है । फिर आप ही बताइए कि "नशे" में भगवान के दर्शन नहीं हो सकते हैं क्या ? बिल्कुल हो सकते हैं और वह भी केवल एक बोतल में घर बैठकर । और क्या चाहिए आपको ? 


बस, हमें "दारू" की महिमा समझ में आ गई और अब हमने मंदिर के बजाय मधुशाला जाना शुरू कर दिया है । अपनी जमात के बहुत सारे लोग मिल जाते हैं वहां पर । एक एक पैग लगाने के बाद सब लोग अपनी औकात में आ जाते हैं और खूब "थुक्का फजीहत" करते हैं । अब आप ही बताइए कि ऐसा आनंद मंदिरों में आता है क्या ? सरकारें कितनी अधिक संवेदनशील हैं हमारी । एक तो हमारी जान की इतनी परवाह करती है कि वह "मधुशाला" खोलकर "बोतल वाला अमृत" पिलाती है और सबको जिंदा रखती है । इसके अलावा सबको "गाली गलौज" करने का भरपूर अवसर प्रदान कर "आनंदोत्सव" मनाने का सौभाग्य प्रदान करती है । ऐसी जन हितैषी सरकार का गुणगान तो बनता है ना , यारों ! 



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