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कामदेव की धिरडी

कामदेव की धिरडी

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उसकी समझ के बाहर था यह उत्साह। किसके लिए था यह भी समझ में नहीं आ रहा था। लौट आये मधुसूदन के लिए या उस धिरडी के लिए जिसकी तैयारी रात से हो रही थी। उसे देखते ही बदन में कैसी झुरझुरी सी उठ आयी थी। जो बात दो साल पहले अपनी मासूमियत बनाए रखने की ज़िद को परास्त कर गयी थी, आज उबर कर उबकाई बन मुंह में भर आयी।

 

रचना को तो यकीन ही नहीं हुआ कि मधुसूदन लौट आया है। पिछले साल की ऐसी ही भयानक गर्मी के दिनों में गया था। गया क्या था, मजबूर हुआ था। उसी के कारण न। वही निमित्त बनी थी। नानी के मरने का रास्ता ही देख रहा था क्या? या पहले भी आता रहा था? ऐसा होता तो कोई तो उसे बता देता। प्रभा ही कह देती, मधु काका आये थे, या छोट्या बता देता पिछली गर्मी की छुट्टियों में जब वे उसके यहाँ आये थे। शायद नानी के जीते जी लौटा नहीं था, तभी तो रचना को यहाँ आया देखते ही छोट्या के मुंह से निकला था, “कायको आयी? ऐसी गलीज जगह पे?” उसे लगा होगा कि नानी के मरने के बाद नहीं आती वह इस घर को।

 

तब उसने नहीं सोचा था कि मधुसूदन आने वाला होगा। और यह देखो, उसको आये दस दिन भी नहीं हुए कि आ गए नवाब साहब। कल ही, छोट्या रेलवे लाइन की तरफ से दौड़ा आया था, “देखो कौन आयेला है?” और मधुसूदन दिखा था। बैंगनी फूलों वाला काला ट्रंक हाथ में झुलाता, बड़े-बड़े पैरों पर चढ़ी सैंडिल से धूल उड़ाता। मांसल होंठों की हंसी के भीतर से झांक रहे थे, उसके भक्क सफ़ेद दांत। पान, सिगरेट कुछ नहीं छूता मधुसूदन, मंजन में नमक मिलाकर दांत घिसता है। खूब चमकते हैं।

 

मावशी के पैर जैसे भारी हो गए हों उसकी झलक देखते ही। उसे लगा रो देगी या बिफर पड़ेगी। पर वह दरवाज़े पर ठिठकी खड़ी रह गयी थी।

 

“यहींच बदली हो गयी क्या रे?” मावशी ने आखिर कहा था। “नहीं तो रस्ताईच भूल गए थे ना?”

 

छोट्या कैसे फिस्स करके हंस दिया था। एक प्रभा ही फिरकनी सी थिरकती हुई बोली थी, “मधु काका! मधु काका आये!”

 

वह तो सन्नाटे में थी, प्रतिभा अक्का ने ज़बान ही नहीं खोली। आँखें चमक गयीं थी, यही क्या कम था?

 

मगर मधुसूदन ने पहला वाक्य कहा तो उसी से। “कैसी है रे तू, रचना? अभी भी आती तू इधर? अब तो पंजाबी ड्रेस पहनने लग गयी!”

 

इसी साल, फ्रॉक पहनना छोड़ा है उसने। वह दौड़ गयी भीतर नानी को बताने और भौचक सी खड़ी रह गयी। नानी अब नहीं हैं, आखिर विश्वास हो गया,  इतने महीनों बाद। चंडीगढ़ में तो लगता था अभी भी होगी वान्देपुर में ही, रफ़ी के गीतों को मुहावरों सा दोहराती हुई।

 

“मैं सोचती थी कायको आता अब मधु,” मावशी की आवाज़ यहाँ तक आ रही थी। “शादी बना लिए होंगे। भाभी को कायको पूछता अब? क्यों?” बेचैनी का इज़हार था यह या खबर की भूख? मधुसूदन जोरों से हंसा, वहीं धूप में खड़ा।

 

“टावेल दे, नहाना होगा, बाहर गाँव से आये हैं। इतना नहीं समझता क्या?” अश्विन ने डपट कर प्रभा से कहा तो मधुसूदन चला आया था अन्दर, जहां वह खड़ी थी ठगी सी, यह कहता कि टावेल ले लेगा, ट्रंक खोल कर कपड़े भी तो निकालने हैं ही।

 

रस्सी से टावेल उतारते हुए उसकी कुहनी रचना के अग्रभाग से टकरा गयी थी। क्या सचमुच इतनी हिमाकत कर सकता है यह आदमी? वह ना हिली न हटी। मधुसूदन हंस दिया।

 

“ताली एक हाथ से नहीं बजती,” उसकी आँखों में आँखें डाल कर उसने कहा था।

 

क्या सचमुच बाईं आँख दबा दी थी? रस्सी पर टंगे कपड़ों की परछाइयों से लदे इस कमरे में क्या पता चलता था किसने क्या जान बूझ कर किया है और क्या हो गया है यूँ ही?

 

सभी अब तक अन्दर आ चुके थे। अश्विन ने तहमद सँभालते हुए कहा, “कैसा चल रहा हैदराबाद में? नौकरी अच्छी लग गयी क्या?”

 

“क्या रे, नया शुरू कर दिए?” मधुसूदन ने चारखाने की लुंगी देख कर कहा। “बताना था ना। लाता था मैं तुमको। अपने हैदराबाद में क्या सुन्दर सुन्दर लुंग्या मिलते। प्रिंटेड। झक्कास। लोगां शर्ट बना रहे देखो लुंग्या खरीद के।”

 

अभी शाम को अमोघ आयेगा ऑफिस से, देखना है क्या कहता वह। छह महीने पहले एसटी में नौकरी लगी तब से कॉलर और टाइट हो गयी है। मधुसूदन गया था तो वह बीए फाइनल में था। अब तो प्रतिभा की बीए भी हो गयी।

 

अमोघ आया तो एक नज़र चचा पर डाल कर बोला था, “छुट्टी पर आये क्या? कितने दिना?” बस तभी तय हो गया था, मधुसूदन यहाँ पहले की तरह टिक नहीं सकता। “बाबा आयेंगे तब तक तो रहेंगे ना? आते देखो परसों तका,” अमोघ ने आगे जोड़ा।

 

उसे तो लगा था आज ही कोई उसे जाने को कह देगा, मगर यहाँ तो मोहलत दी जा रही है! दो बार तो स्टोव जला कर चाय बनायी गयी, खाना परोसा गया, गपशप हुई।

 

अश्विन ने कहा, शायद बात संभालने की गरज से, “कल धिरडी बनाते क्या? छुट्टी भी है।”

“बाबा के आने तका रुक जाते,” अमोघ ने कहा। “उनो भी खा लेते।”

“फिर से बनाते ना, उनके आने पे,” मावशी ने जल्दी से कहा।

 

बस, ऐसे ही तय हो गया कि कल धिरडी बनेगी। दाल और चावल निकाल लिए गये। खुद मधुसूदन ने कटोरियों में मापे जाते दाल और चावल की मात्रा देखी, कुछ दाल और डाली, दोनों को मिलाया, हाथ में ले कर ऊपर से सूप में झरने सा गिराते हुए तसदीक की कि ठीक है। जब भी उसके हाथ की धिरडी बनती है यही सब होता है। हर गर्मी की छुट्टी में बनती है एक बार, ज़्यादा से ज़्यादा दो बार। अनाज चुन बीन कर भिगो दिए गए थे। उत्साह में उछाल आ गया। कितने दिनों बाद ऐसी धिरडी मिलेगी, जीभ पर अभी से स्मृति ने वह स्वाद रख छोड़ा कि भाकरी का ख्याल ही बुरा लगने लगा।

 

मावशी ने बहुत दिलदारी दिखाई, “रात को आज बटाटा भात बनाती मैं,” उन्होंने कहा।

 

“इसको कहते ना, काका की धिरडी का कमाल। ख्याल भी आया तो दावत हो जाती देखो,” अश्विन ने कहा।

 

सचमुच यह कोई ऐसी वैसी धिरडी नहीं। यह कामदेव की धिरडी है। सुबह नहा धोकर, संध्या करके, धोती पहन कर, वह स्टोव के नजदीक बैठ जाता है तो घंटा भर उठता नहीं। ऐसी धिरडी उतरती है तवे पर से कि पूछो नको। यह नहीं कि कागज़ की तरह तवे पर फैला दिए, उसमें कुछ आलू भर दिये और लो हो गया तैयार, तेल में चिपचिपाता दोसा।

 

कामदेव कि धिरडी, बोले तो क्रोशिये का थालपोश। रेशम सी मुलायम और चपल। एकदम गोल। झील में फिंके पत्थर से उठने वाली, बाहर की ओर धैर्य से फैलती लहरों का आभास देती, एक तरफ से सुनहरी, दूसरी तरफ लहरों के किनारों पर सुनहरी चित्तियाँ लिए हुए। ऐसी धिरडी चटनी तक की मोहताज नहीं। फिर भी मावशी चटनी पीसती, साम्भर भी बनाती। एक दो बार खाना है तो क्या कंजूसी करना?

 

इस अपेक्षा और आशा, उल्लास और उत्साह के अतिरेक के आवरण में तनाव की छींट साफ़ दिख रही थी उसे जैसे पुरानी घिस चुकी चादर का भी छापा दिखता ही है भले कितना भी फीका पड़ गया हो। अक्का की चाल मंथर सी हो गयी थी मानो एकदम से गदरा आये बदन का बोझ भरी पड़ रहा हो। मावशी की छाती तन गयी थी, अपने अनुभव के प्रदर्शन में या अनायास आमंत्रण की मुद्रा में? अक्का बार-बार चोटी हिलाती, तो आँचल सरकता। मावशी के झुर्रियों के नज़दीक आ पहुंचे गाल खुशी को निगल कर फिर भर गए।

 

पड़ोस की कादम्बरी भी आ गयी, अक्का के बगल में बैठ कर धीमे से बोली, “और भी मस्त दिख रहा ना, अपना कामदेव?”

 

पूरे वान्देपुर में ऐसा मस्त आदमी नहीं था। दूज का चाँद सरीखा बोलो। उस हंसिया जैसे चाँद के भीतर उभरी उसकी तीखी नाक, लम्बी कैरी की फांक सी आँखें और सीधी भौंहे, ठुड्डी में गड्ढा, जबड़ों की क़टार सी हड्डियों पर मांस का एक कतरा भी नहीं। पेट भी अन्दर को, फूली हुई नहीं। लगता तो था कि मेहनत ने मांसपेशियां कस दी हैं मधुसूदन की, पर कानों के पास सफ़ेद होते बाल क्या किसी को और मस्त बना देते हैं? अब तो चेहरे पर कुछ आड़ी तिरछी रेखाएं भी उभर आयी थीं, छोट्या की ज्योमेट्री की कॉपी में बेमन खींचे लकीरों की तरह।

 

अक्का ने ही उसे बताया था, गल्ली कि लड़कियां कामदेव कहती हैं उसको। मावशी के दफ्तर जाने और नानी के सो जाने पर दोपहर को गजरा पहन कर घर में लड़कियां भीड़ लगाए रहती थीं। हर लड़की को मधुसूदन ने किसी न किसी फिल्मी हिरोइन का नाम दे रखा था। कादम्बरी थी वहीदा रहमान। और भी थीं आस-पास, आशा पारेख, वैजयंतीमाला, और तो और एक आशा सचदेव भी थी।

 

“कशमकश वाली, आशा सचदेव! सारी हिरोइनें हैं इधर, अपने वान्देपुर में,” मधुसूदन कहता था। “अपन एक ही हीरो, लेकिन, क्या?”

 

वान्देपुर, जहां धूप की बहुतायत थी, बिजली की किल्लत, रिवाजों का राज था और पड़ोसियों के पास लम्बी जुबानें। जहां जंक्शन पर ट्रेन बदलती थी, रेल के ड्राइवर बदलते थे, ट्रेन पर नौकरी बजाने वाले मौसाजी आते थे, जाते थे, मावशी रहती थीं, अपने पांच बच्चों, देवर और विधवा माँ के साथ लाइन के पार मैदान की झालर बने कोयले के धुएं से काले से हो आये ईंटों के छोटे से रेलवे के क्वार्टर में। स्टेशन की तरफ न उतर कर, दूसरी तरफ कूद कर लाइन टाप कर मैदान पार कर लो तो आ जाता मावशी का घर, उसमें टेबल फैन के सामने रेडियो सुनती फर्श पर बैठी नानी। असल में बाहर मैदान से ही शुरू हो जाता ना घर मावशी का, आवारा कुत्तों के बीच, छोट्या की दुबली, आयोडीन की तीखी गंध में रची जख्मों से भरी, कुछ मुड़ी सी टांगों के साथ। धरती पर खींचे गए चौकोरों पर लंगड़ी टांग से पीठ पीछे सेफ्टी पिनों का गुच्छा उछाल कर घर बनाने की प्रभा की कोशिशों के साथ। सारे बच्चे बाहर ही तो रहते थे सारा समय, घर में जगह ही कितनी थी? प्रभा भी अब बड़ी हो गयी थी कुछ, दस की तो हो ही गयी थी।

 

“यह अँग्रेज़ भी न, ऐसे मकान बनाते थे कि पूछो नको। आजकल उनका ही सीख कर मकान बना रहे देखो। मालूम नहीं था क्या कि यहाँ सवला होता? अरे लोगां नहाकर पाट रखते, उस पे थाली रखते, उसके अतराफ में पानी छिड़कते, मन्त्र पढ़ते, तब खाते। चूल्हे के पास बैठकर। शिस्त कहते हैं इसको। लेकिन नहीं, बनाए तो इतने छोटे रसोईघर कि उसमें चूहा भी ना घुसने को डरता, कहीं उसका मोटा पेट फँस गया तो?” मधुसूदन कहता था।

 

जभी उस पक्की रसोई को स्टोर बना कर अनाज रखते थे। खाने पकाने को यह टीन डाल लिए आँगन में। आँगन का बड़ा हिस्सा उस टीन के नीचे ही था और वहाँ कुछ ठंडा था तो कच्ची फर्श जिसे गोबर से लीपती थी कभी कभी मावशी। दिन को बाहर के कमरे में डेरा, रात को बाहर बिस्तरों पर।

 

दो ही तो कमरे। बाहर का थोड़ा बड़ा है उसमें पढ़ने को टेबल, उसपर स्कूल की किताबें, कॉपियां, रेडियो, और अब तो मौसाजी की एक फोटो भी रखी रहती। एक टूटी बांह की कुर्सी भी थी। एक टेबल फैन, घूम-घूम के भी किसको हवा देगा? अन्दर के कमरे का बोले तो हाल और भी बेहाल। एक तो सबके ट्रंक ही एक के ऊपर एक रखे। एक पलंग और उसपर एक के ऊपर एक गद्दों का ढेर, उस पर एक तरफ चीकट हो आये तकियों के ढेर, और दूसरी तरफ मैले और धुले कपड़ों की ढेरियाँ। पलंग जितना नीचे से ऊंचा है उतना ही ऊपर से ऊपर को चढ़ा है। बिस्तरों का ढेर ही रहता है उसपर। सोता तो कौन यहाँ पर इतनी गर्मी में? पंखा भी नहीं है। छत और ढेर के बीच फासला इतना कम है कि पंखा टंगे तो कहाँ? टंगा होता भी तो पलंग पर खड़े होते ही सर कट जाता।

 

“यह देखो दीदी, सुदर्शन चक्र बन जाता,” छोट्या कहता और खी करके हंसता। “एक दिन लगाऊंगा मैं इधर सुदर्शन चक्र, कुछ लोगां हैं, जिनके सर कटने चाहिए।”

 

“किनके रे?” मावशी पूछती।

 

“जान देवो, भाकरी देव,’ छोटू कहता। “कोई भी होएंगा लेकिन अपनी दीदी नहीं होएंगी, क्या?”

 

रचना को वह दीदी ही कहता है, प्रभा भी। अक्का बोले तो प्रतिभा से कन्फ्युजन होता। उसी के कहने पर यह दोनों उसे दीदी कहने लगे हैं। वह खुद प्रतिभा को अक्का कहती है बार-बार ताई कहने की हिदायत के बावजूद।

 

“मुझे न बड़ा अजीब लगता है। ताई वहां पर बड़े चाचा की पत्नी को कहते हैं।”

 

दीदी और अक्का, यह एक ही विभाजन रेखा नहीं थी उनके बीच। उसके पिता बैंक में अच्छी नौकरी पर, माँ टीचर, दो ही बच्चे, वह और उसका बड़ा भाई जो मावशी के घर की गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकता था और यहाँ या तो आता ही नहीं था, या माँ के साथ उसे छोड़ने आकर चार दिनों में लौट जाता।

 

यहाँ पांच-पांच भाई बहन। कमाने वाले बोले तो एक मौसाजी। कुछ ही सालों पहले, प्रभा बड़ी हो गयी तो मावशी भी किसी प्राइवेट जगह पे टाइपिस्ट बन गयी थी, मामूली तनखा पे।

 

“मैंने कहा था, शार्ट हैण्ड सीख लो। आजकल स्टेनो को एकदम से पांच सौ की नौकरी मिल जाती है। मगर इसका ध्यान तो कुछ भी सीखने में नहीं। पढ़ाई ढंग से की होती तो यह नौबत क्यों आती?” उसकी माँ अपनी बहन के बारे में कहती थीं।

 

मावशी के बच्चों में कोई भी तो होशियार नहीं निकला कि इस रेलवे के ड्राइवर की नौकरी से आगे की कुछ सोचे। कई-कई दिन मौसाजी घर से दूर रहते थे। छोट्या तो दो बार चौथी में ही फेल।

 

"अरे शंटिंग करते डिब्बों पर चढ़ने से नहीं ना नम्बर मिलते। कौन दे रहा। नवाब पटौदी बन सकते क्या सब? क्रिकेटर भी बैंक में नौकरीच कर रहे ना? अश्विन भी वैसाईच। बस पूरा दिन नावेल पढ़ना। एक अमोघ का आसरा था तो उने भी एसटी में लग कर दिल तोड़ दिए देखो। अपनी माँ को ही देख लेते। टाइपिंग का काम करती, दोपहर को आकर इतने सारी कपड़े भी धोती फिर खाना भी पकाती। और यह प्रतिभा बोले तो अपना रूप ईच देखती रहती। कोई बात नहीं। चल तो रहा ही है। सब मधुसूदन सरीखे ही निकल रहे। कभी किया तो किया कोई काम। नहीं तो क्या अपने घर में रहे। पीछे स्टोर में डाल, जोवारी, भाजणी, माल भरा रहता। काहे को परेशान होने का? और कुछ नहीं तो ठेचा भाकरी तो मिल ही जाती,” कभी टुकड़ों में, कभी एक साथ मावशी अपनी पूरी दास्तान ऐसे ही सुनाया करती थी। इस बरस इसमें अमोघ की क्लर्क की नौकरी की फरियाद भी आ जुड़ी थी।

 

रात को हमेशा की तरह ही छोट्या एक छोटी बाल्टी पानी लेकर आया और गच्ची के पास रख कर उसने दहलीज़ के पास टिकाया पत्थर उठा कर अपने तकिये के नीचे रख लिया था। यही था उसका विक्रमादित्य का सिंहासन जिसपर लेटे-लेटे ही वह एक दिन अमीर बनाने वाला था।

 

“ये देखो, तारा टूटते ही पानी में फत्तर डाले तो सोना बन जाता। बस, तारा धरती पे गिरा कि फत्तर पानी में पड़ना। एक साथ गिरे ना, तोईच बनता। दिखा न दीदी तारा टूट रहा बोल के, तो बताने का।”

“तो बड़ा पत्थर ले ना,” रचना ने कहा।

“इतना भी भोत है,” छोट्या ने कहा था।

“दिमाग में भी फत्तर हीच है इसके,” मावशी ने टिप्पणी की मगर उनकी आवाज़ में आज गुस्सा नहीं था।

 

कभी-कभी लोग कहते थे कि छोट्या भी कामदेव निकलेगा, दिखता तो उसी के जैसा है, सिर्फ रंग गया है मावशी पर, मगर उससे क्या, कृष्ण भी तो काले ही थे।

 

बस छोट्या का पत्थर और पानी का इंतजाम, यही उस रात सामान्य था, बाकी सब सामान्य दिखते हुए भी असाधारण ही था। मैदान में घर के बाहर ही सोते थे सब लोग। इसके लिए कितना काम करना पड़ता मावशी को। रात को शतरंजी बिछाओ, गद्दे डालो, सुबह को सब उठा कर वापस लेके जाओ। अब देखो छोट्या बड़ा हुआ है तो कुछ फटाफट गद्दे गुंडाल कर अन्दर के पलंग पर रखता। मावशी कहती है, उससे नहीं होता बाबा, इतने लोगां के बिस्तर अन्दर से लाना, बिछाना, सुबह को उठाना। अमोघ की तो ऐसी नौकरी लगी कलेक्टर भी क्या समझता होगा अपने को, इस्त्री किया शर्ट पहन के जो निकलता तो कभी झुकना ईच नहीं। प्रभा अभी बच्ची ही ठहरी। अश्विन अपना-अपना ले आता, कभी ज्यादा बोले तो मावशी का ले आता। बाकी क्या करते? छोट्या का ही काम था, ऊपर का सारा काम। आज लेकिन मधुसूदन ने लाकर गद्दे फेंके बाहर और खुद अन्दर चला गया।

 

सबकी आँखें चौकन्नी हो गयीं जैसे। दरवाज़े के बाहर खुले मैदान में घर के सामने बने सीमेंटी फर्शी पर सतरंजी पर बिछे गद्दों पर सात लोगों की करवटें परस्पर पहरे का एहसास करा रही थी। करवटें मधुसूदन का पता पूछ रही थीं। वहीं जमा लिया था उसने फिर से अपना ठिकाना जहां हमेशा रहता था, पंखे के सामने, आगे के कमरे में, रस्सी पर टंगे कपड़ों के नीचे, मानो कभी यहाँ से गया ही न हो। वहीं था? या फिर से जा पहुंचा था उस दूसरे धधकते कमरे में जहां बिस्तरों का ढेर अब ढह चुका था, जहां पंखा तक नहीं और घुप्प अन्धेरा था। जहां की एकमात्र खिड़की की कांच मैल बटोर कर कब की लकड़ी सी दिखने लगी थी। जहां पच्चीस वाट का बल्ब अँधेरे को पलंग के नीचे धकेल देता था। जाने कब खरीदा था वह पलंग और क्यों। मावशी को भी अब याद नहीं कि कोई उस पर सोया हो कभी। उसकी लकड़ी तक तो दिखाई नहीं देती थी, बिस्तरों का इतना बड़ा ढेर होता था ऊपर। उस ढेर पर गोल-गोल लपेट कर रखे सतरंजियों के लुढ़कुढों के पीछे छिपा पलंग रात ही को फन उठाता था। अभी बदलती करवटों को खबर थी,  भीतर कोई हलचल नहीं है। क्या मधुसूदन परिस्थितियों को तौल रहा है या परस्पर पहरेदारी ने उसकी मंशा को वान्देपुर की कड़क गर्म सूखी हवा में झुलसा कर कुम्हला दिया है?

 

उसी पर तो मिला था वह ऐसी ही एक सूखी रात को जब धरती सूरज से घंटों की निजात पाकर कुछ ठंडी हो जाती है और टूटने से पहले नींद कस कर पलकों को दबोच लेती है। क्या हुआ था उस सुबह कि वह उठ बैठी थी? हवा ने क्या रुक कर चेताया था? पेट में मरोड़ उठी थी? प्यास लग आयी थी जोरों की? प्यास ही लगी होगी तभी तो रसोई में अन्दर तक चली गयी शायद वरना अल्ल सुबह टीन तले गुफा में कोई क्यों जाता चूल्हे से कुछ दूर रखे मटके से पानी लेने? रात में पीने के वास्ते बाहर रखा होता है ना लोटा।

 

लेकिन उस सुबह तपते फर्शी का सीमेंट जब निगले सूरज की किरणों की गर्मी से गद्दी को सेंक चुका, वह सूखे हलक की खारिश लिये अन्दर गयी थी, उसे अचानक याद आ गया था कि एक फैन है वहाँ और वह उसके सामने पसर सकती है।

 

कमरे में गयी, तो यह देख उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ था कि कमरा खाली था। बाहर भी गया हो सकता है। पंखा चलाने को उसने स्विच पर हाथ रखा ही था कि उसने सुनी थी, वह हंसी, फिर कुछ खुसफुस, फिर हिचकी। अन्दर से आ रही थी। अच्छा तो अन्दर से कोई कुछ निकाल रहा है। उसने अन्दर की अंधेरी गुफा में कदम रखा और खड़ी रह गयी।

 

बिस्तरों के अब ढह चुके ढेर के ऊपर मधुसूदन था औंधे मुंह और नीचे थी उसके प्रतिभा। प्रतिभा ही हंस रही थी और मधुसूदन कुछ हिलता सा था। अक्का का यौवन धीरे-धीरे डोल रहा था। उसके स्पंदन को बाँधने वाला ब्लाउज़, लहराती साड़ी का आवरण कुछ नहीं था। उसकी जगह थी मधुसूदन की कमान सी तनी देह। जाने वह अक्का की देह की थिरकन से हिल रहा था या किसी अदृश्य धुरी पर घूमता वही प्रतिभा को मथ रहा था। वह हल्की हिचक-हिचक कर निकलती हंसी, वह धीमा-धीमा सा नृत्य का सा लय।

 

‘अक्का’, उसके मुंह से निकला। मधुसूदन पलटा। उसके तन पर जनेऊ था बस। प्रतिभा के तन पर तो वह भी नहीं था।

 

वह दौड़ कर बाहर आ गयी थी, गर्मी में, नानी की पसीने में तर थुलथुल ठंडी बांह से सट कर लेट गयी थी और जोरों से आँखें बंद कर ली थी। लगा था अक्का आयेगी उसके पीछे, पर वह नहीं आयी थी।

 

सुबह उसने नानी को बताया था जो उसने देखा था। दोनों गालों पर अपने हाथ रख कर नानी चीखी थी, “पाप, पापिष्ट। मैं बोलती थी यह आदमी अच्छा नहीं बोलके।”

 

कोहराम मच गया था। “अपनी बेटी जैसी है उनो, हाँ, अरे गोदी में पाले उसको तुम। जिस थाली में खाए उसी में थूके, बोले तो कैसा आदमी? कहती थी मैं, कोई काम करता नहीं, नको पालो ऐसे सांप को।”

 

लेकिन जो भूचाल आया था वह तो नानी की पकी हुई सोच और उसकी कच्ची कल्पना से कहीं ज़्यादा भयावह निकला था।

 

“क्यों रे, यह सिला दिए भाभी के प्यार का?” मावशी देवर से पूछ बैठी थीं।

 

कितने साधारण, कैसे मासूम से शब्द। भाभी का प्यार। मगर उनकी आँखों में उतरे अंगारे, उनकी कांपती हथेलियाँ, उनका वह आपे से बाहर चेहरा जैसे सांस लेना भूल गयी हो, वह लम्बी चीख जो आत्मीय की मौत के बाद निकलती है, वह छाती पर मारा हुआ दोहथ्थड़। संदेह की पूरी गुंजाइश थी कि यह अपने कमसिन बेटी की जवानी से खेलने वाले आदमी पर बेसब्र होता गुस्सा नहीं था, अपनी बेटी के रूप और यौवन पर इस तरह घर के लोगों के ही डाके का प्रतिरोध नहीं था, एक आहत माँ की चीत्कार नहीं थी।

 

मगर प्रतिभा ने सारे ही संदेह मिटा दिए थे।

 

मावशी ने प्रतिभा की लम्बी चोटी पकड़ी ही थी कि गर्दन झटक कर प्रतिभा ने जो कहा था उसके मायने वह समझी तो नहीं थी, मगर जान गयी थी। चोटी हाथ से एक झटके में छुड़ा कर अक्का ने पलट कर माँ के मुंह पर जड़ दिया था वह तमाचा, जिसे सिर्फ शब्द कहते हैं पर जिसमें धोबीपाट से भी ज्यादा दम होता है।

 

“तो? तेरी ढीली छाती चूसेगा क्या वह?”

“चुप रह।”

ऐसे शब्द होते हैं? साफ़ सुथरे शब्द, डिक्शनरी में देखा तो वे थे, वहीं के वहीं, अलग-अलग पन्नों पर। उन्हीं को बटोर लो एक साथ, तो कैसे मायने बदल जाते हैं? कितने अश्लील हो जाते हैं! फुफकार के शीर्ष पर फेंक दो तो कैसे लपट बन कर निकलते हैं?

 

“बुरा लग रहा, जो तेरे को मिला मेरे को क्यों मिला? तेरे को नहीं मिलने का अब!” कहकर प्रतिभा तो निकल भागी थी घर से, सारी लानत मलामत को अपने चप्पलों की फटकार बताते। पीछे मावशी की चीखें, नानी की फुफकार और बाकी सब की खामोशियाँ आपस में देर तक टकराते रहे थे।  

 

“छुरा भोंकी तो बेटीच भोंकी, ऐसा सुने क्या कभी?” मावशी होश गवा कर बोल रही थी। “अमानत में खयानत किये, ऐसे भाई देखे क्या कभी?”

 

सौतिया डाह की वह लपट छीन कर ले गयी थी उसकी मासूमियत। उसने जाने कितनी कोशिश की उन शब्दों को अनसुना कर देने की। स्वर होता क्या है? हवा में उठी लहरें ही ना? हवा तो कब की बह कर चली गयी पर वह आवाज़ घर कर गयी दिमाग में, उसके कानों के भीतर। तब उसे पता चला था, स्वर का फिजिक्स के परे भी एक अस्तित्व है, वह हवा में उठी लहरों पर सवार होकर आता तो है पर जाता नहीं इतनी आसानी से।

 

उसने सोचा था कि अक्का अब कभी बात नहीं करेगी उससे। पर रात देर से लौटी अक्का ने अगले दिन कहा था, ‘ऐय, तेरे को भी, चुप रहना नहीं आता क्या?”

 

वह नहीं समझी थी क्यों अक्का का मस्तक अब और ऊंचा हो गया था, नानी के ‘बेहया’, ‘निर्लज्जम सदा सुखी’, जैसी छींटाकशी का क्यों कोई असर नहीं हुआ था उस पर। मधुसूदन खामोश हो गया था, प्रतिभा हंसती थी, मावशी भुनभुनाती थी। जब तक उसके चंडीगढ़ लौटने के दिन आये, मधुसूदन को देश निकाला मिल चुका था, प्रतिभा का चेहरा बुझ गया था।

 

अमोघ ने ही निकाला था दो दिनों बाद उसको। “जाओ, अब और क्या बचा है?” उसने हाथ जोड़ कर कहा था। “बाबा आयेंगे आज, पहले ही निकल जाओ।”

 

मावशी ने हाथ नचा-नचा कर कई बार कहा था, “जा ना, चली जा। देखती मैं, क्या खुद खाता, क्या तुझको खिलाता। कौड़ी नहीं है खीशे में, नवाब बनके रहे यहाँ भाई की कमाई पर। इनको देखो कंगाल की रानी बनने को चली। अरे इतना तो सोचना था, खानदान का नाम मिट्टी में मिला के रख दिए।”

 

उधर नानी अपने ही हाथों से अपने ही गालों को थप्पड़ मारती कहती जा रही थी, “देवा, देवा, क्या पाप किये रे पिछले जनम में, ऐसे बेटी दी। पापिष्ट, पापिष्ट।”

 

मधुसूदन आखिर चला गया था।

 

इसके बाद भी नानी के लगातार पापिष्ट के जाप से जल कर मावशी ने कहा था, “जाओ तुमको भी जाना है तो बहिण के घर। इनो जाके बतानेच वाली, वो कौन सा आने देती अपनी बेटी को इस पाप के खड्डे में। तुम्ही जाओ, कायको रहना पापियों के साथ?”

 

मगर नानी नहीं आयी थीं। वतन था उनका वान्देपुर, वह कहीं और जाना नहीं चाहती थी। यही क्या कम अपमानजनक था कि बेटी के घर में रह रही थीं, पर अपने वतन में तो थीं।

 

“बेटा नहीं हुआ ना, तो औरत की यही दुर्गति होती,” वह उसके बालों में तेल लगाते हुए कहती थीं। “कोई तो पाप किये होंगे पिछले जनम को। कब पाप कटेगा, क्या पता।”

 

“इसको, इसको सबसे ज़्यादा लाड़ करी मैं,” मावशी प्रतिभा के सामने पड़ते ही कभी-कभी फट पड़ती। सच था। पहली बच्ची, प्रतिभा, इस घर की शान। अमोघ को उसके सौंदर्य पर नाज़ था। प्रतिभा के लिए इस घर में आज तक सबसे छोटी देगची में एक नन्ही कटोरी चावल पकते थे, दूध पर जमी मलाई उसकी थाल में उतरता था। न, प्रभा को भी नहीं मिलता जब तक वह फर्श कर टाँगें फैला कर बैठ के बुक्का फाड़ कर रोने नहीं लगती। लड़कों को तो खैर मिलने का प्रश्न ही नहीं था। इतना दूध दही नहीं होता था कि सबको मिले। इतना भी बुरा हाल नहीं था कि चटनी रोटी से ही गुज़ारा करना पड़े, मगर खाने वाले इतने थे कि एक लीटर दूध चाय को ही पूरा नहीं पड़ता था। गर्मी में आमरस बना तो समझो दीवाली हो गयी।

 

‘आदमी भाकरी खाते और औरतों को कंट्रोल में रखते,’ अमोघ कहा करता था जिसमें इस घर की घोषित नीति निहित थी। उस घटना के बाद भी उसने यह कहना नहीं छोड़ा था।

 

मौसाजी इस नीति में कहाँ थे समझ में नहीं आता था। उसे बहुत कुछ इस घर का समझ में नहीं आता था। मधु काका का दिन भर घर में पड़े रहना, बाज़ार से सौदा सुलफ लाने के लिए ही निकलना, और गल्ली की सब लड़कियों का उस पर रीझना। अपने बटुए में रखता था वह कई लड़कियों के फोटो, जो वे रेलवे लाइन पार स्टूडियो में जाकर खिंचवा कर लाती थीं। काले परदे की पृष्ठभूमि में काले कपड़े के पीछे छिपे फोटोग्राफर के कैमरे में झांकती, कुछ आशंकित सी, कुछ शरमाई सी। शादी के लिए लड़के वालों को दिखाने को खिंचवाए फोटो।

 

“देवानंद की खाली तीन देवियां थीं, अपनी देखो कितनी हैं,” मधुसूदन ने उसे एक बार अनेक तस्वीरें दिखाते हुए कहा था। इनमें कुछ की तो शादी हो चुकी थी। कुछ की बात पक्की हो चुकी थी। मगर यह तय था, मधु इनमें किसी से ब्याह नहीं रचाने वाला था।

 

“अरे, कुछ करना पड़ता शादी के वास्ते, घर में पड़े रहे तो कौन लड़की देता?” मावशी कहती। “वो तो मेरे जैसी भाभी मिली बोलके गुज़ारा हो रहा इनका।”

 

मधुसूदन हंस देता। मौसाजी को इस पूरे नाटक का कुछ पता चला भी हो, छोट्या ने बताया हो कि अमोघ ने, उसे खबर नहीं। शायद खबर ना भी लगी हो, शक रहा हो पर पुष्टि किसी ने नहीं की हो। मौसाजी ने ही दिलाई थी नौकरी अपने निकम्मे भाई को रेलवे के किसी ग्राहक के पास हिसाब देखने का। शुरू में यहीं वान्देपुर में, फिर हैदराबाद में किसी के पास रखवा दिया था।

 

“रेलवे में हैं ना, बाबा काम दिला दिए देखो,” छोट्या ने उसे बताया था। “चलो, पाप कटा,” नानी ने कहा था, छोट्या बताता था।

 

मौसाजी वैसे के वैसे ही रहे, मटके का पानी, शराब की बोतल, बासी रोटी, मुट्ठी से मार कर प्याज और चटनी पर गुज़ारा करने वाले। कभी-कभी मुस्करा देते।

 

नहीं बतायी थी उसने माँ को वान्देपुर की दहकती रात की बात या सिसकते दिन की कहानी। किसने रोक ली थी उसकी ज़बान? क्यों छिपा गयी थी वह यह सब? अपनी अबोध सरलता पर अनुभव के इस आक्रमण को स्वीकार करने में भी लाज लगती थी शायद उसे। ऐसा कुछ बयान करने की भाषा ज्ञान पर ही शर्म आने लगी थी। ज़बान को तालू से चिपका कर गले को सुखा जाने वाली ऐसी हया भी होती है, उसने पहली बार जाना। इन सबके नीचे, बहुत नीचे दबी थी मावशी के प्रति प्यार, उनके दुलार की याद, उनको उनकी बहन की नज़रों में, बहनोई की नज़रों में न गिराने की अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास। नानी ने भी शायद यही सोच कर ज़बान रोक ली थी पर उससे नहीं कहा था कुछ भी। न चुप रहने को, न चुप न रहने को, बस मौसाजी से कहने लगी थीं, “जल्दी शादी कर दो, लड़की की”।

 

नानी ने कभी नहीं बताया अपनी बड़ी बेटी को। जभी तो यहाँ आ सकी है वह। जभी तो मधुसूदन आ सका है, नानी के मरने के बाद। कैसी बेहया सी हंसी है मधुसूदन की। घर के हर चेहरे पर फ़ैल गई है। अक्का की मुस्कान मंद है। मावशी, साफ़ दिखता न, बन ऐसे रही है मानो रोज़मर्रा की बात हो। मधुसूदन नौकरी को जाता और छुट्टी में आता जैसे रचना आती। जैसे मौसाजी आते, बाहर गाँव जाते दो-तीन दिन और फिर आते। रेलवे की नौकरी में ऐसाईच रहता।

 

न जाने क्यों उसे लगता था मौसाजी को इस सब ड्रामे की खबर नहीं है। वे घर में होते तो हलचल कुछ थमी सी रहती। सबकी हंसी थोड़ी सी मंद रहती, पर बदलता कुछ नहीं था। वे कम ही रहते थे। इस बार आते ही उसने देखा था मौसाजी का नया फोटो। उन्होंने खूब लम्बी दाढ़ी रख ली थी। अब तो वह सफ़ेद हो चली है पर फोटो खिंचवाए तब काली ही थी। बड़ा सा फोटो है, छाती पर गिरती दाढ़ी। उन्हीं का चेहरा तीन बार छपा है। एक बड़े चेहरे के आगे उससे छोटा और फिर उससे भी छोटा चेहरा। एक के बाद एक, तीनों गर्दनें मिल कर एक विराट मोमबत्ती की लौ पर टिके लगते हैं, तीनों चेहरों के किनारे कुछ पिघलते से, पर सबसे छोटे चेहरे की दाढ़ी लगभग मोमबत्ती की लौ को छूकर उसके किनारे जम गयी मोम सी बह रही है। मौसाजी मोमबत्ती की तरह पिघल रहे हैं। मौसाजी ने बड़े गर्व से उसे फोटो टेबल पर से उठाकर दिखाया था।

 

“ट्रिक फोटोग्राफी है, बहुत पैसा दिया मैं,” मौसाजी ने कहा था। “कैसा है?”

 

“अच्छा है,” उसने शिष्टाचारवश कहा था।

 

उसे पसंद नहीं यह छोटे शहर का अत्यधिक बनावटीपन। हर चीज़ बढ़ा चढ़ा कर बताएंगे, सजायेंगे। अभी दो महीनों पहले प्रतिभा ने निमंत्रण भेजा था, चिट्ठी ही थी, पर निमंत्रण सा था, अपनी सगाई का, हर वाक्य में तीन चार रंगों के पेन से लिखे शब्द। छी।

 

“यह है अपनी हकीकत, यही अपना जीवन,” मौसाजी ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा था। “तू आती अच्छा लगता। इनोसेंट है तू। कब तक आयेंगी?”

 

नानी चली गयीं। उनका पाप कटा। और अब लौट आया है मधुसूदन। मौसाजी नहीं हैं, इसका तो अंदाज़ा ही लगाया होगा। वह हैरान है। अब क्या होगा? सवाल जैसे हवा में टंगा हुआ है। यह भी स्वर का एक नया ही रूप है। जब तक हवा में हलचल पैदा नहीं होती शब्द नहीं बनते और शब्द नहीं तो सवाल भी नहीं। किसी ने पूछा ही नहीं तो दिमाग में सवाल है, कैसे कह सकते? सबके दिमाग में वही सवाल है यह तो कह ही नहीं सकते। मधुसूदन ने कुछ तो भी नहीं बताया, बदली हुई क्या, छुट्टी पर आया क्या, नानी नहीं रही यह तो पता चले साल होने को आया होगा फिर अभी कायको आया? रचना आई होगी, सोच कर आया क्या? अब हो गयी वह भी पंद्रह की। माँ ने कहला के ही भेजा है, आखरी बार आ रही। अगले साल बोर्ड देना है, कालेज की तैयारी करना है। बस आखरी गर्मी की छुट्टी मावशी के घर।

 

सोचा था बिना मधुसूदन के अच्छे से कटेगी छुट्टियाँ। अक्का की तो शादी भी तय हो गयी है, उससे उसके होनेवाले के बारे में बातें होंगी। लेकिन अब? प्रतिभा का वह गर्व से दपदपाता चेहरा, चुनौती में तनी गर्दन, माँ से प्रतिस्पर्धा में निश्चित जीत का आँखों में ऐलान। मावशी का उस देवर के शादी न करने में अपने अस्तित्व की खोज, अपनी बेटी के लिए लड़का ढूंढ लिए, इस खबर से उसपर आक्रमण, अब सब कुछ साफ़ नज़र आने लगा था उसे।

 

पिछले साल यह लोग आये थे गर्मी की छुट्टियों में चंडीगढ़, तो अक्का नहीं आयी थी। कहती थी उसको एग्जाम की तैयारी करने की है, बीए हो गयी, कॉम्पटीशन में बैठेगी तो ना नौकरी मिलेगी। यही अरेंजमेंट था, एक साल यह आते, एक साल रचना आती। अब वह भी ख़त्म होने को है। पापा इनको पसंद नहीं करते।

 

वह उदास थी। छुट्टियां अब बिताये नहीं बीतने की। आज करवटें जानना चाहती थीं, बगल में लेटी मावशी की काया वहीं है ना? कहीं प्रतिभा की आँख तो नहीं खुल गयी? अँधेरे में आकृतियाँ भाँपी जा रही थीं।

 

सुबह उठ कर वह अन्दर गयी तो सब सो ही रहे थे जैसे। अपनी अपनी जगह पर। पंखे की हवा में शतरंजी का किनारा फड़फड़ा रहा था और मधुसूदन बेसुध सा पड़ा था, बनियान तक नहीं थी। लुंगी सिमट कर ऊपर को आ गयी थी। उसे उबकाई सी आ गयी। घर में कुछ खटास की सी गंध थी। शायद रात भिगोये चावल दाल कुछ ज़्यादा ही भीग गए थे। बुलबुले उठ रहे थे पानी में। लगता था अभी उफान आयेगा।

 

मावशी ने उठ कर चाय बनाई और सिलबट्टा निकाल लिया। मधुसूदन ने चाय का कप हाथ से सरकाते हुए कहा, “छी! कभी चाय पिया क्या मैं अस्नान किये बगैर?”

रचना को याद आया, मधुसूदन सारी तिथियाँ याद रखता था, नानी को एकादशी की याद वही दिलाता था।

“पहले नहा तो लेओ,” मधुसूदन ने डपटा। “सब धर्म-कर्म भूल ही गए क्या?”

“काका को सब आता, धर्म भी, कर्म भी,” छोट्या ने चुटकी ली।

“एक धपाटा पड़ेगा ना,” मधुसूदन ने पलट कर कहा था, “कमर टूट जायेगी, क्या समझे?”

“सब समझा,” छोट्या ने कहा।

 

सबसे पहले मधुसूदन ही नहाया था, संध्या जाप किया, धूप बत्तियां जलाईं, देवताओं की फ्रेम की गयी तस्वीरों की आरती उतारी, तब जाकर चाय पीने रसोई में आया था। घर अगरबत्ती के धुएं से महक उठा। देखा ही होगा उसने अपने बड़े भाई के पिघलते अस्तित्व की तस्वीर। वहीं बाहर के कमरे में रखा था, टेबल पर, जहां छोट्या और प्रभा की पढ़ने की किताबें, कापियां होती और एक पीतल का फूलदान। वहीं। और कहाँ रखते? मावशी कहती थी दीवार पर टांगने को लेकिन मौसाजी अड़ गए थे, यहीं रहेगा, टेबल की जगह घेरेगा। उनका घर, उनकी कमाई, उनका टेबल। महीने में दस दिन रहते घर को तो क्या? है तो सब कुछ उन्हीं का? बच्चे भी जाते हर साल अपनी मौसी के घर को दो दो ट्रेन बदल के तो उनके ही रेलवे पास पर ना?

 

मावशी नहाने चली गयी। लौट कर फिर चाय बनाई, फिर कुछ भीगे दाने दाल और चावल के मधुसूदन के हाथ पर रख दिए। उनको उंगलियों में दबा कर देखने के बाद उसने कहा था, “हउ, हो गया भीगना, पीस देव।” कुछ हरी मिर्चियाँ भी उठा कर उसने सिलबट्टे पर रख दी। “मिर्च्यां अच्छे से पीसो, दिखना नहीं हाँ।”

 

“इसी का तो मज़ा है, हमने पीसना, तुमने बनाना, तभी अच्छी बनती धिरडी,” मावशी ने चटखारा लेते हुए कहा और एक नज़र प्रतिभा पर डाली जो तभी नहा कर निकली थी सर पर टावेल बांध कर।

 

आज फिर से सर धो लिया? अभी परसों ही तो चौथे दिन का स्नान किया था। रचना ने ही डाला था आखरी दो लोटे पानी उसके सर पर कि सुच्ची होकर घर में प्रवेश करे। यही एक चीज़ मावशी के घर में अखरती है उसे, उन दिनों में कोने में बैठना पड़ता है और सबको पता चल जाता है कि हो गया इस महीने का खून बहना शुरू। वरना बाकी सब कितना अच्छा होता है, आराम, आराम से। उसके भागमभाग वाले चंडीगढ़ के घर की तरह नहीं। वहां झील है, चौड़ी सड़कें हैं, मंदिर भी हैं लेकिन यहाँ जैसा नहीं है कुछ भी। यहाँ रोज़ ही कुछ न कुछ होता ही है, नेम करने को। सावन के शुक्रवार, एकादशी, वट सावित्री का व्रत, सब कुछ यहीं तो सीखा है उसने। यही हलचल शायद उसे खींच लाती है और हर बार अनुभव का झाँवा अज्ञान की एक पर्त को घिस कर उतार देता है जिसे मासूमियत कह कर खूब बढ़ावा दिया जाता है।

 

छोट्या को प्रतिभा ने आदेश दिया, “ऐ, मोगरे निकाल”।

“तुम निकालो,” उसने कहा और बाहर भाग कर शंटिंग कर रही ट्रेन की ओर लपक लिया। यही उसका रोज़ का खेल, शंटिंग को जाती ट्रेन के डिब्बों के बीच के पाईप पर चढ़ना और इधर से उधर, उधर से इधर कूदना। प्रभा ने जाकर मोगरे के पेड़ को झटका दे दिया। महकते फूलों का ढेर नीचे बरस आया।

“शहाणी बन रही क्या?” अक्का ने जड़ दिया एक तमाचा उसके मुंह पर। “तोड़ने को बोली, गिराने को नहीं।”

अक्का ने चुन चुन कर फूल थाली में रखे और सुई धागा पिरो कर गजरा बनाने लगी।

मधुसूदन ने कहा, “मैटिनी चलते चलो, आज सब,” उसने कहा।

“बहुत पैसे आ गए क्या?” मावशी बोली। “भाभी के लिए लाये नहीं कुछ?”

“आपकी बेटी के लिए लाया ना, कान के, शादी होने जा रही ना?”

 

मावशी का चेहरा बुझा, प्रतिभा का खिल कर मोगरे सा महका, गजरा बालों में गुंथ गया। गजरा बाँध कर प्रतिभा ने रचना से पूछा, “बीच में है ना? टेढ़ा तो नहीं है?”

 

वह खामोश बैठी नावेल पढ़ती रही।

 

मावशी सिलबट्टे पर चावल पीस रही थी दाल मिली हुई। मधुसूदन पास में बैठा देख रहा था हाथ में लेकर, बताता जाता, दानेदार है अभी, थोड़ा जोर लगाओ ना। मावशी पीसे जा रही है।

 

‘हाँ अब ठीक है। चलो, बाहर रखने का है।”

 

बाहर गच्ची पर ही रखना होगा। बस हो गया ना अमीन सयानी का सलाम। सबको खबर लगीच समझो। आ जाते सब। यह लो, सोचा और बशीर आकर आवाज़ दे रहा, अमोघ का यार, गच्ची के पास ही खड़ा हुआ। उसको तो देना ही होगा। गनीमत उसका अभी निकाह नहीं हुआ, घर में चार ही जने हैं नहीं तो पूरा बर्तन तो उसी का टप्पर खा जाएगा।

 

पूरी गल्ली ही आती देखो खाने को। दाल चावल पिस कर धूप में पक रहे हैं, देखते ही समझ जाते सब क्या बनने जा रहा है। मावशी ने कहा भी कि इस बार इतनी गर्मी है, अन्दर ही खमीर उठवा लेंगे पर मधुसूदन नहीं मानता। अन्दर जगह कहाँ है? बोले तो अन्दर कमरे में तो रख नहीं सकते, जूठन कमरे में नहीं ना लाते। आँगन में मोगरे के पेड़ की छाया है। उसके एक कोने में सीमेंट की मुंडेर से घेर कर बने चौकोर सी जगह के एक तरफ पानी गर्म करने को ताम्बे का भभका रखा है, और पर्दा खींच लिए तो अस्नान हो जाता। वहां रखते क्या? दूसरी तरफ लैट्रीन है। छी बाबा उधर कौन रखता? होने को तो रसोई में भी हो जाता। टीन की छत लोहे के पाइपों से चूल्हे की लपट को सोख कर कितना तो गर्म हो जाती है। लेकिन मधुसूदन की धिरडी ऐसे छाया में उफने अनाज से नहीं बनती। उसको धूप चाहिए तो चाहिए। और वह है देखो बाहर ही दीवार से सटे सीमेंट के उस संकरे चबूतरे पर जो कुछ ही देर में तप के गर्म हो जायेगी। वहीं।

 

“क्या बाबा यह मधुसूदन की धिरडी, बहुत महंगी पड़ती देखो,” मावशी ने हंस कर कहा।

 

हाँ ठीक है। सिल पर से पानी के सहारे एक-एक दाना बटोर कर मावशी ने बड़े से पतीले में निकाल लिया है। मधुसूदन लोटे में पानी लेकर बाहर निकला है, गच्ची पर उसने कुछ बुदबुदाते हुए पानी का घेरा छींट दिया है, उस घेरे के अन्दर बर्तन टिका कर वह भीतर आते-आते प्रतिभा से टकरा गया जो दहलीज़ पर खड़ी उसे यह सब करते देख रही है। अश्विन ने बाहर बैठ कर बर्तन पर नज़र रखने से इनकार कर दिया। कौन बैठेगा गर्मी में? मधुसूदन कहता है कि घंटे दो घंटे में खदक कर बाहर निकलने लगेगा बर्तन से धिरडी का घोल, थोड़ी सी देर की बात है, बैठ जाओ, पर इतनी देर कौन बैठेगा?

 

“इतना क्या सवाल करना? बाज़ार में नहीं खाते क्या कभी?” अश्विन चिढ़ कर कहता है।

 

सावला। मंडी। नहा धोकर, चौके के चारों ओर पानी का छींटा मार कर, बिना उस घेरे के बाहर निकले खाना पकाना। किसी को छूना नहीं, वहां से बाहर भी निकलना नहीं, खाना पकाने के बर्तनों और सामग्री के अलावा किसी चीज़ को हाथ भी नहीं लगाना। शुद्ध। धर्म की रीतानुसार। यहीं सुना, देखा है, रचना ने। उसके घर में माँ कब का त्याग चुकी यह सब। कैसे हो? छोटे से फ्लैट में? जल्दी-जल्दी काम निपटा कर ऑफिस जाने के लिए निकलना होता है। उसके पिता ने भी कहा है, “यहाँ कौन देखता है?”

 

“जहां नौकरी करता है वहाँ कौन इतने नेम से पका के खिलाता?” मावशी जानना चाहती है।

 

प्रतिभा की गर्दन भी जिज्ञासा में, सवाल सुन, मधुसूदन की ओर मुड़ी है। मधुसूदन के होंठों पर रहस्यमयी मुस्कान है। कहता वह कुछ नहीं।

 

छोट्या बाहर खेल ही रहा है।

 

“चलो नारल फोड़ने का है,” मधुसूदन कहता है। प्रभा इसीलिये तो मंडरा रही है।

“पानी मेरे को होना, हाँ!” वह रोने की तैयारी में है। जानती है प्रतिभा को ही मिलेगा और उसकी आँखों से बहेगी धारा। लेकिन आज प्रतिभा ने हिकारत से कहा, “जा, ले ले।” और चोटी झटक दी। मोगरे की कुछ पंखुड़ियां टूट कर बिखर आयी उसके आँचल पर।

मावशी ने कहा, “कुछ काम करो। चटनी बनावो।” प्रतिभा हल्की सी हंसी हंस दी, विद्रूप से लदी।

 

थाल भर नन्हे प्याज छीलने बैठी मावशी की मदद करने रचना रसोई में आ बैठी। उसने देखा मधुसूदन को परात के ऊपर नारल फोड़ कर पानी बहाते। “क्यों रचना, पीती क्या?”

“नहीं,” रचना ने कहा।

“नहाया धोया सब बेकार हो गया,” मावशी ने कहा। पसीने में उनका ब्लाउज भीग कर बदन से चिपक गया था। बास उठ रही थी।  

“फिर से नहा लो, मावशी,” उसने कहा। “नहीं तो धिरडी खाने का मज़ा ही नहीं आयेगा।”

 

कादम्बरी आ गयी है, लाल फूलों का गजरा पहने जिनमें रंग तो होता है, खुशबू नहीं। अमोघ अब निकला है बाहर, बशीर खड़ा ही हुआ है गच्ची से दूर हट कर। बचपन के दोस्त। आज तक बशीर ने घर का भीतर का हिस्सा देखा नहीं है।

 

बाकी सब सामान तैयार है। छोटे प्याज़ का सांबर। चटनी। मावशी ने चूल्हा बुझा दिया है। कटोरे में तिल का तेल निकल लिया गया है, धिरडी सेंकने के लिए। मावशी अब कुम्हला गयी है। सबकी नज़रें घूम-घूम कर स्टोव पर पड़ रही है। चूल्हे के पास से आकर मावशी ने स्टोव में कुप्पी लगा कर केरोसीन डाल दिया और उठ कर बोली, ‘लेओ हो गया हमारा फ़र्ज़ पूरा।”

 

मधुसूदन बनाएगा तो स्टोव पर ही। चूल्हा फूंकना औरतों को शोभा देता, उसका कहना है। अच्छी धिरडी खाना है तो पैसा लगता, केरोसीन बचाने से काम नहीं बनता।

 

“बस हो गया समझो,” मधुसूदन बाहर का चक्कर लगा कर आया है, ढक्कन खुला और बंद हुआ है। “ये देखो पांच मिनट और लगते।” वह अपनी हथेली की पाँचों उँगलियों को आपस में जोड़ कर खोलते हुए कहता है। “पहली धिरडी किस को देना?”

 

क्या सबने सुना है कि सिर्फ रचना को ही लगा उसने ‘किसको’ का विच्छेद कर ‘किस’ को कुछ देर हवा में टांग कर प्रतिभा की ओर उछाला है?

 

“जो मेहनत करी उसको फल मिलना ना!” मावशी ने किंचित क्रोध से कहा। उन्होंने ज़रूर ध्यान दिया है।

 

घर एकदम से चुप हो गया है, अशांत प्रतीक्षा की छाया गहरा गयी है।

 

“बाबा मैं तो नहा के आती,” मावशी कहती है।

 

मधुसूदन बाहर निकल गया। औरतें नहाती तो मर्द बाहर ही निकलते। लेकिन अश्विन गुस्से में है। नहीं जाएगा वह इस गर्मी में बाहर। उसने दरवाज़ा उड़का लिया है और फैन का मुंह अपनी तरफ करके उसका घूमना बंद कर दिया है। प्रतिभा ने उसकी पीठ पर धौल जमा दी है, और फैन फिर सबको बारी- बारी हवा देने लगा है।

 

मावशी ने गीली सी साड़ी बदन पर लपेट कर चबूतरे के चारों तरफ खींचा पर्दा खिसका दिया और बाहर की तरफ खुलने वाले दरवाज़े को उन्होंने धक्का देकर जता दिया कि अब लोग अन्दर आ सकते हैं। मधुसूदन अन्दर आ गया है।

 

“छोट्या, छोट्या, लेके आओ बर्तन अन्दर कु,” वह कह रहा है और रसोई में जाकर उसने स्टोव में हवा भरना शुरू कर दिया।

 

स्टोव जलेगा अब, तवा चढ़ेगा, धिरडी बनेगी। प्रभा ने दौड़ कर चौकियां रख दी हैं कतार बाँध कर और थालियाँ निकाल लीं।

 

मावशी रसोई की ही तरफ से पीछे भंडारे से होकर छोटे कमरे में जा रही है।

 

एकाएक मधुसूदन बैठक कमरे में घुस आया।

“ऐसी औरतें होती तभी पाप पलता,” वह जोर से चिल्ला रहा था।

“क्या हुआ?” अश्विन ने पूछा।

मधुसूदन गुस्से में फनफना रहा है।

 

“एक मिनट नहीं रह सकता मैं यहाँ। आया ही कायको? आना हीच नहीं था मेरे को।” उसने अपना ट्रंक अपनी ओर खींच लिया। बैंगनी फूलों का काला पल्ला खुला और उलट कर फर्श से टकरा गया। “जा रहा मैं। अब नहीं आता देखो। सब नेम धर्म सब मिट्टी में डाल दिए। आदमी नहीं होगा न औरतें ऐसे ही करेंगी।”

 

सब हक्का बक्का हैं, प्रभा सबसे ज्यादा। वह काका की टांग पकड़ कर झूल गयी है।

 

“जाओ नको, काका” उसने कहा।

 

उसे धक्का देते हुए मधुसूदन ने कहा, “वह तो मैं देख लिया, नहीं तो इनो धर्म भ्रष्ट कर ही दिए थी मेरा। पूछो अपनी माँ से। खून लगा था कि नहीं?”

 

“अरे, अभीच हुआ,” मावशी अन्दर के कमरे से बाहर आते हुए बोलीं।

 

“जाके देखो भभके के पास। छी? वहीच कपड़े हैं कि नहीं? धोने को रखी। मेरे को हऊला समझी क्या? दिखता नहीं मेरे को? आँखें फूटी क्या मेरी? सब छूना, पकाना, सब करी इनो कल से। सब मिला दिए गन्दगी घर में। छूत मिला दी।”

 

ऐसी चीख पुकार मच गयी कि कादम्बरी एक कोने में दुबक गयी। प्रभा फर्श पर बिखर कर धाड़ें मार कर रोने लगी। अश्विन टेबल पर पड़ी एक कॉपी उठा कर खुद को हवा करता बाहर निकल गया।

“ए बोम मारना बंद कर,” मावशी ने एक लात प्रभा को जमाते हुए कहा। “कोई मरा क्या, ऐसे रो रही।”

“देखा, देखा क्या? अभी भी इनो बाहर नहीं बैठ रही। यहां खड़ी है, छू रही देखो। गलीज।।।” मधुसूदन चिल्लाया।

“तू तो कहती थी बंद हो गया है। दो साल से कर रही यह सब?” प्रतिभा ने अब मुंह खोला।

 

मधुसूदन सन्नाटे में आ गया। फिर एकदम से माथा पीट कर उसने कहा “गंगा जल से भी घर को धोई ना, पाप नहीं मिटने का।”

“नको मिटने दो,” मावशी चिल्ला रही थीं। “ज़्यादाइच चल रहा।”

“ऐसे पापिष्ट घर में नहीं रहने का मेरेकू,” मधुसूदन ने कहा। 

“हउ, नको रहो,” छोट्या ने कहा। वह दहलीज पर खड़ा था।

 

ट्रंक खटाक से बंद हुआ, मधुसूदन ने कमरे से निकल कर सैंडिल पहनी और ट्रंक झुलाता हुआ निकल गया। सब लोग पीछे-पीछे देखने आये, खड़े ही रहे उसके रेल लाइन पार करने तक। रचना को लगा कोई जाएगा पीछे उसके, मनायेगा उसको, लगा अभी लौट आयेगा। पर वह लाइन के उस पार हो गया।

 

गच्ची पर बर्तन तप कर भभका बन चुका था, घोल उफन कर बाहर को गिर रहा था। कुत्ते जीभ बाहर निकाले हांफ रहे थे।

 

 

 


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