ज्ञान एवं परिधान
ज्ञान एवं परिधान
वास्तव में, ज्ञान और परिधान (वस्त्र) के बीच कोई मौलिक या आवश्यक संबंध नहीं होता। यह बात न केवल तांत्रिक संदर्भ में, बल्कि किसी भी ज्ञान-प्रधान क्षेत्र में लागू होती है। आइए इस विषय को गहराई और विविध स्तरों पर विश्लेषित करते हैं:
🔹 1. ज्ञान और परिधान: सतह बनाम सार
परिधान बाह्य पहचान का माध्यम है, जबकि ज्ञान आंतरिक बोध और अनुभव का परिणाम होता है।
एक डॉक्टर यदि अपनी श्वेत कोट नहीं भी पहने, तो उसकी चिकित्सा-सम्बंधी योग्यता कम नहीं होती।
एक शिक्षक यदि धोती-कुर्ता की जगह जीन्स-टीशर्ट पहन ले, तो उसका अध्यापन कौशल क्षीण नहीं होता।
इसी प्रकार तांत्रिक या साधक का ज्ञान, उसकी साधना, तप और आंतरिक अनुभूति से उपजता है, न कि उसके पहने वस्त्रों से।
🔹 2. तांत्रिक परिधान: उपयोग, प्रतीक या दिखावा?
तांत्रिकों से जुड़े विशेष वस्त्रों (जैसे काले कपड़े, रुद्राक्ष, भस्म, गेरुआ वस्त्र आदि) की परंपरा सदियों पुरानी है। किंतु इनका मूल उद्देश्य क्या है?
✅ सकारात्मक दृष्टिकोण से:
ऊर्जाओं का संरक्षण: कुछ तांत्रिक परिधान विशेष ऊर्जा तरंगों से सामंजस्य बनाए रखने हेतु होते हैं।
साधना के अनुकूलता: जैसे एक काला वस्त्र उर्जा को आत्मसात करता है — कुछ विशिष्ट साधनाओं के लिए उपयोगी।
मानसिक एकाग्रता: एक निश्चित पहनावा मन को साधना की स्थिति में केंद्रित करने में सहायक हो सकता है।
❌ नकारात्मक या विकृत उपयोग:
प्रदर्शन और प्रभाव जमाना: कई लोग बाहरी भेष-भूषा के माध्यम से आम जनमानस पर प्रभाव डालने का प्रयास करते हैं — ताकि लोग उन्हें रहस्यमयी, शक्तिशाली या सिद्ध मान लें।
धारणा का शोषण: समाज में यह धारणा स्थापित हो चुकी है कि कोई अगर गेरुआ पहन रहा है, माथे पर भस्म है, माला पहने है तो वह कोई "गूढ़ ज्ञान" वाला तांत्रिक या साधक ही होगा। इस मान्यता का कुछ लोग दुरुपयोग करते हैं।
🔹 3. ज्ञान का स्वरूप: वस्त्र से परे आत्म-संपत्ति
ज्ञान:
बोध से उत्पन्न होता है।
अनुभव से पुष्ट होता है।
साधना से सशक्त होता है।
विवेक से परिपक्व होता है।
यह कभी किसी रंग, कपड़े या वेशभूषा से बंधा नहीं होता। जैसे ही हम ज्ञान को वेशभूषा से जोड़ने लगते हैं, हम उसके वास्तविक स्वरूप को खोने लगते हैं।
🔹 4. आधुनिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक भ्रम
आज के दौर में:
"लुक" या "छवि" को अधिक महत्व दिया जाता है।
व्यक्ति के ज्ञान की गहराई नहीं, बल्कि उसका बाह्य रूप निर्णायक माना जाने लगा है।
इसी भ्रम में ढोंगी तांत्रिकों का एक वर्ग विकसित हुआ है — जो वस्त्रों और अभिनय से लोगों को प्रभावित करता है, जबकि उनके पास तंत्र या आध्यात्म का वास्तविक ज्ञान नहीं होता।
🔹 5. उदाहरण के माध्यम से समझें:
1. रविदास जी एक जूता बनाने वाले थे, पर ज्ञान के महासागर थे। उनका वेश कभी गुरुजनों जैसा नहीं रहा।
2. कबीर एक जुलाहा थे। न कोई तिलक, न कोई गेरुआ वस्त्र, फिर भी उनके दोहे आज भी आत्मा को झकझोरते हैं।
3. रामकृष्ण परमहंस की साधना इतनी प्रखर थी कि वे कभी शिष्य विवेकानंद को वस्त्रों और भेष-भूषा से ऊपर उठने की प्रेरणा देते थे।
🔹 6. तांत्रिकों के संदर्भ में निष्कर्ष:
तांत्रिक का वास्तविक स्वरूप उसके ज्ञान, तप, ब्रह्मचर्य, मनोबल और सिद्धियों में होता है, न कि उसकी वेशभूषा में।
वस्त्र कभी भी उसकी क्षमता का निर्धारण नहीं कर सकते।
वेशभूषा को पहचान का माध्यम माना जा सकता है, पर वह गुण का प्रमाणपत्र नहीं है।
🔚 समापन विचार:
> "वस्त्र, पहचान का मुखौटा हो सकता है; पर ज्ञान, आत्मा का स्वरूप होता है।"
जब हम किसी व्यक्ति को उसकी पोशाक से आंकने लगते हैं, तो हम उसके ज्ञान की गहराई को अनदेखा कर देते हैं। विशेष रूप से तंत्र जैसे गूढ़ मार्ग में, दिखावा सबसे बड़ा शत्रु होता है और सच्ची साधना सबसे बड़ी पूंजी।
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✍️ आलोक कौशिक
(तंत्रज्ञ एवं साहित्यकार)
