Prabodh Govil

Drama

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Prabodh Govil

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ज़बाने यार मनतुर्की - 8

ज़बाने यार मनतुर्की - 8

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फ़िल्म "दूल्हा दुल्हन" की रिलीज़ के बाद एक महिला पत्रकार साधना का इंटरव्यू लेने आई। ये कई बार लिख कर अब तक साधना की फैन और सहेली बन चुकी थी। फ़िल्म को दो बार देख भी आई थी।

इसने काफ़ी देर तक साधना के साथ में रह कर इंटरव्यू लिया था।

- एक बात बताइए, आप बुरा मत मानिएगा, पर इस फ़िल्म में आपका वो हमेशा वाला जलवा नज़र नहीं आया। लड़की ने सीधे सीधे पूछ लिया।

- अरे, फ़िल्म ब्लैक एंड व्हाइट थी न ! साधना ने पत्रकार को कुछ अचंभे से देखते हुए कहा।

- साधना मैडम, हम इससे पहले आपको ढेर सारी ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों में देख चुके हैं। लव इन शिमला, परख, हम दोनों, एक मुसाफ़िर एक हसीना सब ब्लैक एंड व्हाइट ही तो थीं। पर सब एक से बढ़ कर एक थीं। लड़की बोली।

- अरे, तुम्हें नहीं पता, राजकपूर साहब बहुत ठिगने हैं। मुझसे भी छोटे। इतनी परेशानी होती थी, पूछते रहते थे- तुमने हील तो नहीं पहनी? दिखाओ कौन सी चप्पल हैं इस सीक्वेंस में? डायरेक्टर से कहते ये सीन वरांडे में ही लेना ज़रूरी है क्या, सीढ़ियों के पास अा जाएं? और लपक कर सीढ़ी पर चढ़ जाते। साधना खिलखिलाते हुए राजकपूर की नक़ल करके बतातीं और उनकी सहेली मन ही मन मुस्करा कर मज़े लेती।

वो भी शायद घर से ठान कर आई थी कि आज साधना को तंग करना है। बोली- लेकिन,ये कोई राज साहब की पहली फ़िल्म तो नहीं थी? इससे पहले भी उन्होंने कई लंबी हीरोइनों के साथ फ़िल्में की हैं। नूतन जी के साथ उनकी कई फ़िल्में आई हैं, और नूतन भी आपकी तरह लंबी हैं।

साधना ने कुछ गुस्से से उसे देखा। साधना समझ गईं कि उनकी दाल इस जवाब से भी नहीं गली। पर उन्होंने हार नहीं मानी। सुर बदल कर बोलीं- अरे यार, तुम्हें तो मालूम है न, मैंने सबसे पहले कैमरा उनकी फ़िल्म श्री चार सौ बीस में एक कोरस गर्ल बन कर ही फेस किया था। फ़िर कहां तो वो ग्रेट आर्टिस्ट, शोमैन, इतनी सीनियर हस्ती, और कहां मैं? कुछ नर्वसनेस तो होनी ही थी।

कहती कहती साधना कुछ संजीदा हुईं और वो महिला पत्रकार उस शख्सियत को गर्व और स्नेह - सम्मान से देखती रही जो खुद एक से बढ़कर एक सुपर हिट फ़िल्में देने वाली कामयाब हस्ती थी, और अपनी सफ़ाई इस तरह दिए जा रही थी, जैसे कोई जूनियर कलाकार हो, जिसने सीन में कुछ गलती कर दी हो।

महिला उनकी अदा पर नतमस्तक हो गई।

फ़िर साथ में चाय पीते - पीते साधना ने उसके सामने कई राज़ खोल डाले।

किसी से कहना मत, की हिदायत के साथ दबी ज़बान में साधना ने अपनी मित्र को ये भी बता डाला कि राजकपूर अपने बेटे डब्बू को लेकर आजकल कुछ ज़्यादा ही परेशान हैं।

अब सामने वाली तो पत्रकार ठहरी। वो भी फ़िल्म जगत की। उसका तो रोज़ का काम ही ये था कि हवा में गंध सूंघे, मिट्टी पर तिल बिखेरे, पानी के छीटें मारे और बना दे लहलहाता हुआ ताड़ का जंगल!

चंद दिनों में सब फिल्मी और गैर फिल्मी रिसालों में ऐसी सुर्खियां लहराने लगीं - "पिता का बदला बेटे से लेंगे राज?", "डब्बू के प्यार को अपना कर पृथ्वीराज कपूर को सबक सिखाने की तैयारी", "रणधीर के सामने दो ही रास्ते- बंगला छोड़ो या बबीता!"

इन सुर्खियों के माने समझ पाना उन लोगों के लिए तो आसान था जिन्होंने फ़िल्म जगत का स्वर्ण युग कहा जाने वाला ये समय अपनी आंखों देखा और कानों सुना हो, पर बाकी लोगों के लिए इन्होंने अफवाहों का बाज़ार सजा दिया।

राजकपूर अपनी हर फ़िल्म के लिए नायक तो स्वयं को, या फ़िर अपने परिवार से किसी युवक को चुनते थे, किन्तु नायिका चुनने के लिए देश - विदेश की तमाम अभिनेत्रियों को तमाम तरह के टेस्ट्स, जांच, परीक्षाओं, प्रशिक्षणों से गुजरना पड़ता था। फ़िर पृथ्वीराज कपूर से लेकर राजकपूर तक का सार्वजनिक रूप से ये कहना कि हमारे परिवार की कोई बेटी या बहू फ़िल्मों में कभी काम नहीं कर सकती, उनकी फ़िल्मों में महिलाओं की भूमिका और अभिनय प्रक्रिया को संदिग्ध बनाता था।

यही कारण था कि शम्मी कपूर और शशिकपूर इस विरासत से आहिस्ता से अलग हो गए। आर के स्टूडियो और बैनर पूरी तरह राजकपूर के आधिपत्य में ही आ गया।

संयुक्त परिवार के एक साथ मिल कर रहने के दावे भी समय - समय पर कुछ सदस्यों के अलग फ्लैट्स में शिफ्ट होते चले जाने से धूमिल पड़ने लगे।

शम्मी कपूर ने दो बार विवाह रचाया, और दोनों बार फ़िल्म अभिनेत्रियां ही उनकी जीवन संगिनी बनीं। हालांकि नक्षत्रों की तिरछी चाल ने उनका पीछा कभी नहीं छोड़ा।

शशि कपूर ने जेनिफ़र से शादी की जो परदेसी महिला थीं किन्तु उनका गहरा लगाव अभिनय से था। वो नाटकों में ज़्यादा सक्रिय थीं किन्तु उन्होंने फिल्मों में भी काम किया। शशिकपूर के सभी बच्चे खुद भी फ़िल्मों आए। हालांकि सफ़लता उनमें से किसी को नहीं मिली।

रणधीर कपूर, ऋषि कपूर और राजीव कपूर तीनों राज कपूर के बेटे थे। तीनों ने फ़िल्मों में क़दम रखा और इनके लिए घर का प्रोडक्शन हाउस हमेशा उपलब्ध रहा। ये बात और है कि बड़ी सफ़लता केवल ऋषि कपूर ने ही अपने नाम लिखी।

ऐसे में साधना ये कभी समझ नहीं सकीं कि उनकी चचेरी बहन बबीता की दोस्ती अगर रणधीर कपूर से हो गई थी तो राजकपूर इस हद तक चिंतित क्यों थे? और अभी तो बबीता व डब्बू भी अपनी उम्र के उस दौर में ही थे, जिसे टीन एज का सुनहरा किनारा कहा जाता है।

साधना ने तो खुद प्यार किया था। उनका भोला भाला मन तो उनसे ये कहा करता था कि जब हम फ़िल्म जगत में बनने वाली हर फ़िल्म को प्रेम से ही शुरू करते हैं,और प्रेम पर ही ख़त्म, तो अपने घर परिवार बच्चों या समाज में हो जाने वाले प्यार पर इतने क्रूर कैसे हो सकते हैं?

इसी सोच से शायद रूप की इस रानी का चेहरा इस क़दर दमकता था कि फ़िल्म के पर्दे पर नायक कह उठते थे - कितने मीठे हैं लब तेरे ऐ जाने ग़ज़ल, तू बुरा भी कहे तो लगे है भला!

साधना के चाचा हरि शिवदासानी के परिवार से साधना के परिवार का ज़्यादा मेलजोल कभी नहीं रहा।

वैसे तो दोनों ही परिवार पाकिस्तान से विभाजन के समय हिंदुस्तान आए थे लेकिन वो दिन पारिवारिक रिश्ते निभाने के नहीं, बल्कि अपना अपना खोया आधार फ़िर से तलाशने की जद्दोजहद के दिन थे।

फ़िर मुंबई जैसे शहर में घरों के फासले भी इतने सीमित नहीं होते कि किसी खास ज़रूरत के बिना आना जाना निभ सके।

दोनों परिवारों में से फ़िल्मों में पहला मुकाम चाचा हरि शिवदासानी ने बनाया।

साधना तब छोटी थीं, हालांकि उनके सपने बड़े थे, इरादे बड़े थे और मंसूबे बड़े थे।

ये सिंधी समुदाय की खासियत सारे देश में ही थी कि इसमें हर शख़्स बेहद खुद्दार होता है। और अपना वतन छोड़ कर नई दुनियां में अपने घरौंदों के लिए पर मारते परिंदों में तो ये खासियत और भी शिद्दत से पाई जाती थी।

लोगों ने मिल्कियत हारी थी, अपने ज़मीर नहीं हारे थे।

अपने माल -असबाब -ज़र -ज़मीन छोड़े थे, हौसले नहीं छोड़े थे।

ये सारे तौर - तरीके तब तो आपका बड़प्पन कहलाते हैं जब आप मुश्किल में, तंगहाली में हो, लेकिन यही आपका घमंड कहलाए जाने लगते हैं जब आप अपनी कुछ हैसियत बना लो।

बबीता का स्वभाव शुरू से ही कुछ अलग था।

साधना और बबीता को कभी साथ - साथ, घुलते मिलते नहीं देखा गया।

इसका एक कारण ये भी था कि बबीता की मां बारबरा अंग्रेज़ महिला थीं। मां का कुछ असर बबीता के स्वभाव में होना स्वाभाविक ही था। जबकि साधना की मां लाली शिवदासानी एक घरेलू महिला थीं। यद्यपि उन्होंने स्कूल में पढ़ाने का काम किया था फिर भी स्वभाव से घरेलू ही थीं। चाची बारबरा एक फ़िल्म आर्टिस्ट की बीवी होने का रुतबा भी रखती थीं।

और बाद में साधना के रजतपट की साम्राज्ञी बन जाने के बाद दिलों में दूसरी तरह की दूरियों ने घर कर लिया था।

बबीता को जब ये अहसास हुआ कि राजकपूर उसे फ़िल्मों में काम पाने के लिए रणधीर कपूर के पीछे लगी लड़की समझते हैं तो उसने भी उनके परिवार से इस बाबत कोई मदद न लेने की ठानी।

इतना ही नहीं, उसने साधना से भी एक अदृश्य दूरी बना ली ताकि जीवन में उसकी सफ़लता का श्रेय खुद उसे ही मिले, किसी और को नहीं।

इस तरह सबकी खिचड़ी अलग- अलग हांडी में पकने का नतीज़ा ये हुआ कि राजकपूर और साधना, दोनों को ही फ़िल्म "दस लाख" लगभग पूरी हो जाने के बाद पता चला कि बबीता हीरो संजय खान के साथ फ़िल्मों में लॉन्च होने जा रही है।

मीडिया में चाहे बबीता के आगमन को "मिस्ट्री गर्ल साधना की बहन भी फ़िल्मों में" कह कर प्रचारित किया गया हो पर ये सच था कि ये खुद साधना और राजकपूर के लिए भी एक खबर ही थी।

फ़िल्म एक हल्की- फुल्की कॉमेडी थी पर सफ़ल रही।

इस फ़िल्म में बबीता के पिता हरि शिवदासानी ने भी एक भूमिका निभाई थी।

बहुत कम लोग जानते हैं कि फ़िल्मस्टार बन जाने के पहले से ही बबीता और साधना के बीच आपसी मनमुटाव हो गया था। इतना ही नहीं, बल्कि राजकपूर के साथ भी साधना को बबीता के कारण ही एक मिसअंडरस्टैंडिंग झेलनी पड़ी, जिसका प्रभाव साधना के जीवन में बहुत दूर तलक गया। ये ग़लत फहमी काफ़ी बाद तक बनी रही और कभी ठीक से दूर की ही नहीं जा सकी।

जब तक इसका प्रभाव दूर हो पाता, साधना के सुनहरे दिन उनके हाथ से जा चुके थे।

थायराइड ने साधना के आलीशान सुनहरे सफ़र को रोक दिया। कुछ लोग जो कभी साधना को अपनी फिल्म में लेने का ख्वाब देखते थे पर साधना की फीस और उनके बजट का सामंजस्य नहीं बैठ पाता था, अब बबीता का रुख करने लगे।

अगले ही वर्ष बबीता की रवि नगायच के निर्देशन में जितेंद्र के साथ आई फ़िल्म "फ़र्ज़" ज़बरदस्त हिट रही। ये फिल्म जेम्स बॉन्ड शैली की अपराध फ़िल्म थी, पर युवा और आकर्षक जितेंद्र के साथ बबीता की जोड़ी अच्छी जमी।

इस बीच साधना इलाज के लिए बॉस्टन जा चुकी थीं, किन्तु उनकी फ़िल्म "अनीता" प्रदर्शित की गई। फ़िल्म को साधारण सफलता मिली।

अनीता उन्हीं राज खोसला की तीसरी फ़िल्म थी, जिन्होंने वो कौन थी और मेरा साया जैसी सुपर हिट फ़िल्में बनाई थीं। जिन तीन फ़िल्मों के प्रभाव से साधना को मिस्ट्री गर्ल का खिताब दिया गया था, ये उसी में से तीसरी फ़िल्म थी।

लेकिन साधना का जादू इसमें दर्शकों को मुग्ध नहीं कर पाया। इसके कई कारण थे।

एक कारण तो ये था कि पहली दोनों सफल फ़िल्मों के बाद खोसला शायद इसमें कुछ अति आत्मविश्वास का शिकार हो गए, और तकनीकी रूप से भव्यता रचने के बावजूद वो पहले सा प्रभाव नहीं रच सके।

दूसरे, इस बार उन्होंने बाज़ार के रुख के अनुसार अपना संगीत निर्देशक बदला और मदन मोहन जैसा सुरीला जादू लक्ष्मीकांत प्यारेलाल नहीं जगा पाए।

तीसरे, फ़िल्म के गीतकार राजा मेहंदी अली ख़ान इसी फ़िल्म के गीत को बीच में अधूरा छोड़ कर दिवंगत हो गए जिसे आनंद बख़्शी ने पूरा किया।

फ़िल्म के प्रचार में ये कहा गया था कि इसमें साधना के चार रोल्स हैं। जबकि दर्शक ये देख कर ठगा महसूस करने लगे कि हीरोइन अलग रोल्स में नहीं है बल्कि स्प्लिट पर्सनैलिटी की शिकार के रूप में प्रेमिका, बार डांसर, बंजारन और जोगन बन कर अलग अलग परिधान मात्र में है।

अन्तिम और सबसे बड़ी वजह इस फ़िल्म की विफलता की ये रही कि थायराइड की शिकार साधना अपने चेहरे का लावण्य खोने लगी थी और दर्शक नायक के साथ सुर मिला कर ये बात स्वीकार नहीं कर पाए कि "गोरे गोरे चांद से मुख पर काली काली आंखें हैं"। फ़िल्म का ग्रामीण नृत्य गीत "कैसे करूं प्रेम की मैं बात" भी "झुमका गिरा रे" वाला असर नहीं पैदा कर पाया।

सौ बातों की एक बात ये कि वक़्त की गर्दिश ने आर के नय्यर और साधना के सुकून भरे दिन छीन लिए।

कहते हैं कि साधना की फ़िल्मों से बेशुमार कमाई के चलते उनके निर्देशक पति आर के नय्यर ने अपनी फ़िल्में भी काफी ओवर बजट कर ली थीं और कई बार अपना पैसा ही लगाने के साथ साथ बाज़ार से भी पूंजी ऋणों के रूप में उठा ली थी।

फ़िल्मों ने उतना बिजनेस नहीं किया और वो कर्ज के भारी दबाव में आ गए।

उधर साधना का महंगा इलाज़ शुरू हो गया। जो अभिनेत्री कभी राष्ट्रीय रक्षा कोष में प्रधान मंत्री को अपने बेशकीमती ज़ेवरात सौंप आई थी, उसके खर्चे के लिए नय्यर को लोन लेने पड़े। ये ही है ज़िन्दगी।


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