Prabodh Govil

Drama

4.2  

Prabodh Govil

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ज़बाने यार मनतुर्की - 7

ज़बाने यार मनतुर्की - 7

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432


राजकपूर ने कुछ सोचते हुए प्लेट से एक टुकड़ा उठाया, लेकिन फ़िर बिना खाए उसे वापस रख दिया।

फ़िर वो स्पॉटबॉय से बोले- मैडम से कहो, मैं बुला रहा हूं।

लड़का झटपट गया और पलक झपकते ही वापस आ गया। उसके पीछे पीछे साधना भी चली आ रही थीं। उन्होंने खाना खाकर अभी हाथ भी साफ नहीं किए थे।

राजकपूर कुछ मुस्कराते हुए बोले- क्या कुछ स्पेशल आया था घर से,जो हमसे नहीं बांटा जा सकता था?

साधना झेंप कर रह गईं। केवल धीरे से इतना कह सकीं- उन लोगों ने खाना वहां परोस दिया तो खाने बैठ गई।

राजकपूर कुछ गंभीर हो कर खाने लगे। साधना वहीं उनके पास बैठी रहीं।

अचानक राजकपूर ने खाना छोड़ दिया और हाथ रोक कर बोले- तुमसे कुछ बात करने की सोच रहा था।

साधना को थोड़ी हैरानी हुई। केवल इतना बोल पाईं- जी, कहिए!

- हरि की बेटी और डब्बू के बारे में... राजकपूर ने बिना किसी भूमिका के तपाक से कहा। ( उनका मतलब अभिनेता हरि शिवदासानी की बेटी बबीता और खुद उनके सुपुत्र रणधीर कपूर के बारे में था। हरि शिवदासानी साधना के चाचा थे)

साधना कुछ संजीदा होकर और करीब खिसक आईं। पर बोलीं कुछ नहीं।

राजकपूर ने कहना शुरू किया- सुना है दोनों में अच्छी दोस्ती है, पार्टियों में साथ में घूमते हैं।

साधना चुप रहीं।

- क्या कर रही है ये लड़की बबीता?

साधना खामोश रहीं।

राजकपूर कुछ तल्खी से बोले- मैंने सुना है कि कॉलेज - स्कूल भी नहीं जाती, केवल मॉडलिंग और फ़िल्मों में काम पाने का शौक़ है।

अब साधना ने धीरे से मुंह खोला, बोलीं - कुछ ग़लत है क्या?

- क्या? राजकपूर ने हैरानी से पूछा।

- फ़िल्मों में काम पाने की कोशिश करना। साधना बोलीं।

राजकपूर ने सिर झुका लिया, पर कुछ बोले नहीं।

कुछ देर कमरे में सन्नाटा पसरा रहा। राजकपूर ने खाने की प्लेट बिना ख़त्म किए ही परे सरका दी।

प्लेट उठाने के लिए स्पॉटबॉय भीतर आने लगा तो साधना ने इशारे से उसे रोक दिया और बाहर जाने का इशारा किया।

लड़का चला तो गया पर बाहर की दीवार पर कान लगा कर सांस रोके खड़ा रहा।

अब थोड़ी गहरी पर मंद आवाज़ में बोल रहे थे राजकपूर, कहा - नहीं, गलत नहीं है फ़िल्मों में काम पाने की कोशिश करना, लेकिन दो सपने एक साथ देखे जाएं तो दोनों ही पूरे नहीं होते!

अगर यहां साधना की जगह कोई और हीरोइन होती तो एक बार राजकपूर से इस बात का मतलब ज़रूर पूछती। पर सामने साधना थीं। सब समझ गईं।

राजकपूर बोले- अपनी बहन को समझाओ कि कपूर परिवार की लड़कियां, या इस परिवार में आने की ख्वाहिशमंद लड़कियां फ़िल्मों का रुख नहीं करतीं।

अब साधना तिलमिला गईं। चुप नहीं रह सकीं, बोलीं- क्यों? फ़िल्मों में आने वाली सभी लड़कियां आवारा और बदचलन होती हैं क्या? जो लड़कियां फ़िल्मों में काम नहीं करतीं क्या वो सभी सती - सावित्री होती हैं?

- तुमसे बात करना बेकार है। तुम खुद नहीं समझ रही हो, तो उसे क्या समझाओगी!

- लेकिन समझने की ज़रूरत तो आपको है। आपको पता है, मैं नरगिसजी को आंटी कहती हूं पर वो मुझे बिल्कुल अपनी सहेली की तरह मानती हैं। उन्होंने अपनी हर बात मुझसे शेयर की है। क्या आप भी वही करना चाहते हैं जो आपके साथ हुआ? क्या आपको पसंद आया था वो सब!

अब राजकपूर बैठे न रह सके। वो गुस्से से तमतमाये हुए उठे और दनदनाते हुए बाहर निकल गए।

साधना उनके पीछे - पीछे प्लेट उठा कर गईं- खाना तो खाइए...

पर वो अपनी कार में जा बैठे।

पूरी यूनिट देखती रह गई। शूटिंग पैकअप हो गई।

लेकिन ये घटना कुछ समय बाद आई - गई हो गई। एक दिन एक फ़िल्म मैगज़ीन में ये खबर ज़रूर छपी कि फ़िल्म "दूल्हा- दुल्हन" के सेट से नाराज़ होकर शूटिंग बीच में छोड़कर लौटे राजकपूर।

पर इस बात की असलियत या तो साधना जानती थीं या फ़िर वो स्पॉटबॉय लड़का जो राजकपूर को लंच में खाना खिला रहा था।

इसके बाद उस फ़िल्म के सेट पर साधना ने हमेशा खाना राजकपूर के साथ ही बैठ कर खाया, पर इस विषय को लेकर दोनों में दोबारा कोई बात नहीं हुई।

असल में ये दुनिया जानती थी कि पृथ्वीराज कपूर के परिवार में कभी कोई लड़की फ़िल्मों में काम नहीं करती थी। लेकिन उस परिवार के लड़के सभी एक के बाद एक फ़िल्मों में ही आ रहे थे।

ज़ाहिर है कि उनकी दोस्तियां फ़िल्म हीरोइनों से खूब पनप रही थीं। पृथ्वीराज कपूर ने ये परिपाटी ही बना दी थी कि उनके परिवार की न तो बेटियां फ़िल्मों में काम करेंगी, और न बहुएं।

जद्दन बाई, शोभना समर्थ आदि से पृथ्वीराज कपूर के रिश्ते कलाकारों के आपसी रिश्तों तक ही सीमित रहे किन्तु राजकपूर और नरगिस ने कई सफल फ़िल्मों में साथ - साथ काम करने के बाद अपनी ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री को ऑफ स्क्रीन केमिस्ट्री में भी बदला और वो उद्दाम प्रेमी बन कर चर्चित हो गए।

किन्तु भारी जद्दोजहद के बाद भी राजकपूर को नरगिस को अपनी जीवन संगिनी बना पाने की अनुमति नहीं मिल सकी। उन्हें अलग होना ही पड़ा, और राजकपूर की शादी कृष्णा से हुई जो सब फिल्मी कलाकारों की संरक्षक और आदरणीय बन कर भी खुद फ़िल्मों से दूर ही रहीं।

साधना अकेले में कभी- कभी नियति के इस खेल के बारे में सोचती ज़रूर थीं और फ़िर खुद ही अपने खयालों और सपनों में खो भी जाती थीं।

सबको एक अचंभा ज़रूर होता था, चाहे वो फ़िल्म दर्शक हो, या फ़िल्म समीक्षक, कि अपनी इस सफलता के दौर में मोती लाल, अशोक कुमार, राजकपूर, देवानंद, सुनील दत्त, राजेन्द्र कुमार, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर,शशि कपूर,राज कुमार जैसे लगभग उस दौर के सभी सफल सितारों के साथ काम कर लेने के बावजूद साधना ने कभी दिलीप कुमार के साथ काम क्यों नहीं किया? जबकि दिलीप कुमार तो पिछले एक दशक से परदे पर थे और अभी भी बेहद सक्रिय रह कर धड़ाधड़ फ़िल्में कर रहे थे।

लेकिन लोगों को पर्दे के पीछे की कहानियां कहां पता चल पाती हैं। उन्हें तो वही पता चलता है जो रजतपट पर आता है।

दरअसल,बहुत पुरानी बात थी। स्कूल में पढ़ रही किशोरी साधना जब राजकपूर की फ़िल्म श्री चार सौ बीस में एक समूह गीत के लिए शूटिंग में पहुंच गई थी तब उसे वहीं पता चला था कि दिलीप कुमार और वैजयंती माला को लेकर एक फ़िल्म "गंगा - जमना" बन रही है जिसके लिए कलाकारों के चयन का काम चल रहा है। इस फ़िल्म में वैजयंतीमाला के साथ सहायक अभिनेत्री की एक भूमिका और भी थी जिसे बाद में सह कलाकार अजरा ने अभिनीत किया था।

साधना ने इस रोल के लिए आवेदन करते हुए निर्माता को अपना फोटो भेजा था, और एक दिन उनसे मिलने भी पहुंच गई थी। संयोग से दिलीप कुमार उस समय निर्माता के पास ही थे और फ़ोटो तथा सामने खड़ी गोरी लंबी लड़की को देख कर कुछ कुछ होता है की भावना के शिकार हो गए थे।

बाद में वैजयंतीमाला को फोटो दिखाया गया तो उन्होंने साफ़ ही मना कर दिया। कहा - बाबा, कैमरा इसे देखेगा कि मुझे! अपनी हीरोइन का कुछ तो रुतबा रखो।

साधना बैरंग लौट आईं।

लेकिन वक़्त के खेल देखिए, कि जब साधना को लव इन शिमला में हीरोइन बना कर लॉन्च किया गया तो उनकी सहायक अभिनेत्री की भूमिका में अजरा को लिया गया।

साधना ने मन ही मन रब का शुक्रिया अदा किया कि अगर उस समय उन्होंने सपोर्टिंग एक्ट्रेस का वो रोल ले लिया होता तो शायद आज उन्हें ये मौक़ा मिलता या नहीं राम जाने।

और साधना के फ़िल्म मेरे मेहबूब से बुलंदियां छू लेने के बाद दिलीप कुमार के निर्माता - निर्देशक ने जब उनके साथ फ़िल्म "लीडर" में हीरोइन के रूप में साधना को लेने की पेशकश की तो राजकुमार, वक़्त, आरज़ू, वो कौन थी की शूटिंग में व्यस्त साधना के पास दिलीप कुमार की तारीखों से मैच कर पाने वाली तारीखें उपलब्ध नहीं थीं, और लीडर में वैजयंती माला को ही लिया गया।

यहां तक कि दिलीप कुमार को लेकर फ़िल्म "पुरस्कार" बनाने की कोशिश करने वाले डायरेक्टर बिमल रॉय भी साधना को साइन कर लेने के बावजूद फ़िल्म पूरी नहीं कर सके।

उस दिन "दूल्हा दुल्हन" के सेट पर साधना की राजकपूर से जो बात हुई थी, उसने कई राज खोल दिए।

इसका मतलब ये था कि रणधीर कपूर और बबीता की दोस्ती की बात काफ़ी बढ़ गई थी। इस बात का राजकपूर तक पहुंच जाना ये बताता था कि रणधीर कपूर बबीता को लेकर गंभीर है।

लेकिन साधना के लिए ये समझना मुश्किल था कि यदि बात इस हद तक बढ़ गई है, और राजकपूर बबीता को स्वीकार करने के लिए मन से तैयार नहीं हैं तो वो सीधे बबीता के पिता से भी तो ये बात कर सकते थे।

बबीता के पिता हरि शिवदासानी तो राजकपूर के साथ काफ़ी घुले मिले थे, दोनों ने साथ में काम भी किया था।

शायद राजकपूर साधना से इस बात का ज़िक्र छेड़ कर इस सच्चाई का पता लगाना चाहते हों कि बबीता के मन में क्या है। बच्चे अपने मां - बाप से इतना खुल कर नहीं बात कर पाते जितना हमउम्र मित्रों या भाई बहनों में।

ये भी तो हो सकता था कि फ़िल्मों में काम पाने के लिए कपूर परिवार से मेल - जोल बढ़ाने वाली और कई लड़कियों की तरह बबीता ने भी रणधीर कपूर से मित्रता की हो।

जो भी हो, ये तय था कि राजकपूर अपने सिद्धांत पर अडिग रहने वाले थे और वो किसी भी सूरत में बबीता के दोनों सपने, रणधीर कपूर से शादी करना, और फ़िल्मों में काम करना,एक साथ पूरे होने देने के लिए तैयार नहीं होने वाले थे।

इसलिए साधना इस टेंशन को अपने दिल से निकाल दिया था। उनका सोचना था कि वक़्त के ही हाथों में होते हैं ऐसे फ़ैसले।

सन उन्नीस सौ छियासठ में साधना की दो फ़िल्में और भी रिलीज़ हुई। गबन के बाद ही उनकी फ़िल्म "बदतमीज" आई जिसमें उनके साथ हीरो शम्मी कपूर थे।

शम्मी कपूर का स्वभाव अपने घर में सबसे अलग था। वे मस्त- मौला तबीयत के खिलंदड़े इंसान थे और उनके साथ काम करते हुए किसी भी हीरोइन को कभी कोई तकलीफ़ नहीं होती थी। उनका सोच जटिल या उलझा हुआ नहीं था।

लेकिन इस फ़िल्म की अच्छाई बुराई भी सब शम्मी कपूर को ही मिली। वैसे भी जंगली, जानवर और बदतमीज जैसे शीर्षकों को वो ही खुशी से झेलते थे।

इस फ़िल्म की रिलीज़ के साथ ही दुर्भाग्य का एक पन्ना साधना के जीवन में खुल गया, जिसने उनके शुभचिंतकों को ज़बरदस्त आघात पहुंचाया।

साधना की तबीयत खराब हुई और जांच के बाद पाया गया कि उन्हें थायराइड रोग ने घेर लिया है। एकाएक पता चले इस रोग ने कई लोगों की नींद उड़ा दी।

साधना की उम्र अभी कुल पच्चीस वर्ष थी और वो अपने कैरियर के शिखर पर थीं।

लेकिन रोग ने धीरे धीरे अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। साधना की ढेर सारी फ़िल्में बीच में ही रुक गईं और उन्हें इलाज के लिए विदेश जाना पड़ा।

उनका इलाज अमेरिका के बॉस्टन शहर के एक प्रतिष्ठित केंद्र में चला।

फ़िल्म जगत से ये दूरी साधना को ही नहीं,बल्कि कई नामी गिरामी प्रोड्यूसर्स को भी बेचैन कर गई।

देवानंद के साथ राज खोसला के निर्देशन में बनने वाली फ़िल्म "साजन की गलियां", मनोज कुमार के साथ "दामन", गुरुदत्त के साथ "पिकनिक", जॉय मुखर्जी के साथ "साहिरा", और किशोर कुमार के साथ "लव स्पॉट" जैसी उनकी फिल्में अधर झूल में रह गईं और उन्हें इलाज के लिए जाना पड़ा।

कहते हैं कि जब मुसीबत आती है तो वो दिशा नहीं देखती, कहीं से भी आ जाती है। और सब कुछ ऐसे बदलने लग जाता है मानो अपने किरदार से कोई भारी भूल हो गई हो।

अगर किसी को कोई चाहने लग जाए, और उसका अपना दिल उसे न चाहे तो ये कोई अपराध तो नहीं, लेकिन चाहत की ये बातें ज़िन्दगी में याद ज़रूर आती रहती हैं। साधना की पहली फ़िल्म लव इन शिमला जॉय मुखर्जी के साथ आई थी। कहते हैं इस फ़िल्म के साथ आर के नय्यर तो साधना के प्रेमपाश में बंध ही गए थे, फ़िल्म के हीरो जॉय मुखर्जी भी मन ही मन उन्हें चाहने लगे थे।

कितना अंतर था साधना और उनकी बहन बबीता की चाहत में। जहां बबीता के प्रेमग्रंथ के खुलने से पहले ही रणधीर कपूर के पिता राजकपूर बबीता पर कुपित हो गए थे,वहीं जॉय मुखर्जी के साधना को मन ही मन चाहने से पहले ही उनके पिता ये तमन्ना दिल में पाल बैठे थे कि काश, इन दोनों युवा पंछियों के दिल में कोई कोमल भावना पनप जाए।

तो क्या साधना को किसी की नजर लग गई?

साधना के पति आर के नय्यर की अन्य फ़िल्में भी सफल नहीं रहीं और ऐसा प्रतिभाशाली निर्देशक जिसने अपनी पहली ही फिल्म से अपना, अपने हीरो का, और अपनी हीरोइन का सुनहरा भविष्य मुकर्रर कर छोड़ा था, डगमगाने लगा।

नय्यर को समझ में नहीं आया कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि दर्शकों ने उनकी फ़िल्मों से मुंह मोड़ लिया।

सच में, किसी ने ठीक ही कहा है कि वक़्त की पाबंद हैं आती जाती रौनकें।


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