इण्डियन फ़िल्म्स 2.4
इण्डियन फ़िल्म्स 2.4
मैं और व्लादिक फ़िल्में बनाते हैं...
जल्दी ही मुझे ऐसा लगने लगा, कि सिर्फ इण्डियन फ़िल्म्स देखना ही काफ़ी नहीं है। मैं ख़ुद उन्हें बनाना चाहता था, इस तरह, कि मैं उनमें मुख्य भूमिकाएँ करूँ, ख़ुद ही डाइरेक्टर, स्क्रिप्ट राइटर, और गायक बनूँ। मैं शौकिया मूवी-कैमेरा के लिए पैसे इकट्ठा करने लगता हूँ, हालाँकि ये बात मैं सोच नहीं पा रहा हूँ, कि शूटिंग कैसे होगी और, ख़ास बात, हमारी फ़िल्में देखेगा कौन। जैसे जैसे मैं सोचता जाता, मेरी घबराहट बढ़ती जाती और मैं निराश होने लगा। मगर अचानक व्लादिक मुझे फ़िल्में बनाने का एक बढ़िया तरीका समझाता है, जिसमें किसी कैमेरे-वैमेरे की ज़रूरत नहीं पड़ती, सिर्फ आपको ड्राइंग आनी चाहिए।
वो कागज़ के एक टुकड़े पर एक आदमी बनाता है, दूसरे पर – वैसा ही आदमी जिसके हाथ ऊपर उठे हैं, पहले कागज़ को दूसरे के ऊपर रखता है और तेज़ी से उसे हटा लेता है। आदमी हाथ उठा रहा है ! क्या बात है ! मैं भाग कर डिपार्टमेन्टल स्टोअर में जाता हूँ और सर्दियों में खिड़कियों पर चिपकाने वाले कागज़ के बहुत सारे रोल्स लेकर आता हूँ। ये हमारी रील है। खडे डैशेस से मैं फ़्रेम्स के निशान बनाता हूँ, और ड्राइंग करने लगता हूँ।
लगन से लोगों के चित्र बनाना मेरे बस की बात नहीं है, इसलिए “बदला” नाम की फ़िल्म की दूसरी सिरीज़ आते आते मेरे सारे हीरोज़ एक जैसे लगने लगते हैं, सिर्फ कपडों के रंग से ही उन्हें पहचाना जा सकता है। खलनायकों को मैंने बड़ा बनाकर दिखाया है, और उनके चेहरे पर दो मोटी-मोटी लकीरों से झुर्रियाँ ज़रूर बनाई हैं, जिससे उन्हें पहचानना मुश्किल न हो।
शाम तक फ़िल्म बन गई। मैं एक डिब्बे में दो खड़े छेद बनाता हूँ, उनमें अपनी फ़िल्म “बदला” की पहली और इकलौती कॉपी फ़िट करता हूँ, और व्लादिक पहला और इकलौता दर्शक बनता है। अगर कागज़ की इस रील को ठीक से खींचा जाए, तो डिब्बे के स्क्रीन के सामने वाले हिस्से में तस्वीरों वाले लोग घूमने लगते हैं, लड़ने लगते हैं, और डान्स करने लगते हैं। ख़ैर, फ़िल्म में आवाज़ मुझे ख़ुद को देनी पड़ती है।
फ़िल्म शो के बाद व्लादिक भी सर्दियों में खिड़कियों पर चिपकाने वाला कागज़ ख़रीदता है और कुछ दिनों के बाद उसकी पहली फ़िल्म “बवण्डर” का प्रीमियर होता है।
धीरे धीरे हम फ़िल्म निर्माण के काम में डूब जाते हैं। व्लादिक धारावाहिक फ़िल्म “12-निन्ज़ास” बनाता है, जो “बवण्डर” ही के समान कुँग फू के दो प्राचीन स्कूलों के बीच की दुश्मनी के बारे में बताती है। वो एक नई चीज़ शामिल करता है: हीरोज़ के डायलॉग रील पर लिखता है, जिससे कि हर फ़्रेम के उनके डायलॉग को याद रखने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
जब तक व्लादिक “12–निन्ज़ास” बना रहा था (अपनी फ़िल्म बनाने में उसे करीब एक महीना लग गया), मैंने एकदम अपनी कई सारी फ़िल्में रिलीज़ कर दीं : “पराए नाम से”, “डान्सिंग रेनबो”, “जनता की भलाई के लिए”, “ख़तरनाक बीमारी”, “अपूरणीय क्षति”, “गाँव का रक्षक”, “वापसी”, और “मास्टर दीनानाथ का संगीत”। दर्शकों की अनुपस्थिति की समस्या भी धीरे धीरे हल हो रही थी। व्लादिक के मम्मी-पापा और हमारे सारे दादाओं और दादियों ने बिना विरोध किए हमारी फ़िल्में देखीं।
मगर फ़िल्में दिखाते-दिखाते समझ में आया, कि मुझे ख़ास ख़ुशी तब होती है, जब रील फट जाती है, क्योंकि तब ठीक वैसा ही होता है, जैसा असली थियेटर में होता है। रील अपने आप तो नहीं फ़टती है, और मैं हर एक मिनट बाद, दुर्घटनाओं के चित्र दिखाते हुए, उसे फाड़ देता हूँ और ऊपर से बड़बड़ाता हूँ, कि बुरी कॉपी लाए हैं।
नतीजा ये हुआ कि लोगों ने हमारी फ़िल्में देखना बंद कर दिया, और फिर मैं भी तो फ़िल्मों के लिए ड्राइंग्स बनाते बनाते बोर हो गया हूँ।
कुछ भी कहो, सचमुच की इण्डियन फ़िल्म्स बेहतर होती हैं !
कोई बात नहीं। समय के साथ साथ मैं कुछ और सोच लूँगा !