होली है
होली है
आज सुबह - सुबह सोसाइटी के बोर्ड पर नजर पड़ी,लिखा था - " सोसाइटी में कृपया होली ' सलीके ' से मनावें"।
अभी जरा सलीके से पढ़ ही रही थी की तभी दूसरी मंजिल की बालकनी से पानी से भरा गुब्बारा ठीक सर पर आकर गिरा, छपाक... और बड़े ही सलीके से मैं कंधे तक भीग गई।
जी नहीं, मैंने आगे प्रस्थान नहीं किया,बल्कि ये जानना जरूरी समझा की इतने सलीके से ये निशाना साधा किसने? ऊपर से आवाज आई आंटी बुरा न मानो होली है.. हैप्पी प्री होली आंटी।अब ये तो थे आठ -दस बरस के बंटू मिश्रा, सोसाइटी के सेक्रेटरी मिश्रा जी के पोते। मैं अभी बंटू बाबू को अपने बुरा न मानने का प्रमाण दे ही रही थी की तभी साड़ी लपेटे,जुड़ा बांधे हाथ में जलभरा लोटा लिए मंत्रोच्चारण के साथ सूर्य देवता को झांकती मिश्राइन आंटी ने भी बालकनी में प्रवेश किया। अब लोटे से जल की धारा सीधे ग्राउंड फ्लोर पर, अर्थात् बड़े ही सलीके से मुझसे ठीक आधे फिट की दूरी पर तथा मिश्राइन आंटी की नजर आसमान की ओर...वो क्या कहते ना की गज़ब का सिंक्रोनाइजेशन। खैर,आप लोग यहां भी एक सलीका देखिए, इसी बीच मिश्राइन आंटी ने समय निकाल कर ऊपर से ही मुझे "पोस्ट होली पार्टी" का न्यौता भी दे ही डाला। न्यौता अभी स्वीकारा ही था की तभी सुबह की सैर से लौटते हुए मिश्रा अंकल ( सेक्रेटरी साहब) भिनभिनाते हुए सोसाइटी में दाखिल हो रहे थे - "सुबह सुबह गेट पर पानी पानी कर दिया,.. बच्चे हों या बड़े सलीका तो किसी ने सीखा ही नहीं"..
मैं मुस्कुराहट छिपाती हुई आगे बढ़ी।
अभी चार कदम ही नापे थे की कुत्ते की भौं भौं एवं भाभी जी नमस्ते दोनो ही आवाजें एकसाथ बड़े ही सलीके से कानों में पड़ीं।अब ये थे मिश्रा अंकल (सेक्रेटरी साहब) के सुपुत्र अपने प्रिय टॉमी के साथ। अब सोसाइटी से चार पांच कदम की दूरी पर टॉमी बाबू को सलीके से किस नित्य कर्म से निवृत कराया जा रहा था ये तो आप जान ही गए होंगे।खैर, भैया जी नमस्ते कह मैं कायदे सलीके के इस 'मिश्रण ' से बाहर आई तथा सुबह की सैर पर चलते हुए ताज़े हवा के झोंको का आनंद उठाने लगी,जो कम से कम सलीके से तो बिलकुल नहीं बह रही थी,या फिर ये कहूं कि अगर पेड़ के पत्तों को गुदगुदाती, झकझोरती, फूलों की खुशबू को उड़ाकर स्वयं में घोलती हवा यदि सलीके से बहती तो बड़ा मुश्किल होजाता इसकी मस्ती भरी ताजगी को महसूस कर पाना।
मानती हूं की होली का अर्थ हुड़दंग कतई नहीं है,तथा होली पूर्णतः सचेत रह कर मनाई जय चाहिए।कोरोना के मद्देनजर नियमों का पालन भी आज जरूरी है।किंतु समय परिवर्तन के नजरिए से देखा जाय तो होली मुहल्ले वाली होली अब सारी सुविधाओं के साथ सोसाइटीज में कैद नजर आती है। अगर झूठ कहूं तो कहिएगा - आती है क्या कोई रंग - अबीर से भरी मुट्ठी छुपके पीछे से आपको रंग जाने? और आपका अरे अरे बस बस कहता हुआ चेहरा खुशी से और खिल उठता हो? कहां कहता है अब कोई की एकबार बाहर तो निकल सिर्फ छोटा सा टीका लगाएंगे।
घूंघट की आड़ से भसुर जी के चमकदार सफेद कुर्ते पर पीछे से रंग फेंकने वाली धृष्टता अब कहां दिखती है? फगुआ गाती हुई कोई टोली आकर बैठती है क्या आपके द्वारे? कभी हमें या हमारी पुश्तों को उन जटाधारी साधुओं को देखने का सौभाग्य प्राप्त हो पाएगा जिनका प्रसिद्ध गीत होता था " खेलें होरी दिगंबर मसाने में, दिगंबर खेलें होरी"?
शायद नहीं,क्योंकि सोसाइटी की छोटी सी बालकनी से झांकती हुई होली आज अपना मुहल्ला तलाश रही है जहां टाइल्स या दिवारों पर रंग लगने से कोई जुर्माना नहीं था। वही मुहल्ला जहां त्योहार त्योहार हुआ करते थे न की स्टेटस सिंबल। वही मुहल्ला जहां किसी के भी रंग - अबीर को किसी कभी चेहरा रंग देने की पूरी स्वतंत्रता थी। वो मुहल्ला जहां होली सही मायने में आजाद थी।
नहीं चाहती होली अपना कोई प्री या पोस्ट स्वरूप।होली तो केवल कान्हा सा नटखटपन चाहती है जिसके आगे ब्रम्हांड के सारे सुदृश्य धाराशयी हो जाते हैं। तो आने वाले समय में क्यों ना माथे के टीके तक सिमट चुकी होली का विस्तार किया जाए तथा पूरी मर्यादा के साथ होली को उसका अपना मुहल्ला उपहार दिया जाए।
जीवन की खुशियों में रंग भरें तथा रंग जाएं।